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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २३

मानसी पूजाविधि

संवत् १८८५ में आश्विन शुक्ला पूर्णिमा (२२ अक्तूबर, १८२८) को रात्रि के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर चौक में पलंग बिछवाकर उस पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब, श्रीजीमहाराज ने कृपा करके सब हरिभक्तों के प्रति बोले कि, “भगवान का जो भक्त हो, वह भगवान की नित्य मानसी पूजा करे। उस मानसी पूजा करने की विधि यह है कि ग्रीष्म काल, शीत काल तथा वर्षा काल - तीनों ही ऋतुओं में पृथक् पृथक् रीति से मानसी पूजा करनी चाहिए। ग्रीष्मऋतु के चार मास तक तो मानसी पूजा इस प्रकार करें: सर्व प्रथम अच्छे ठंडे सुगन्धित पवित्र जल से भगवान को स्नान कराना। इसके पश्चात् उन्हें स्वच्छ श्वेत एवं घट्ट परन्तु मुलायम धोती अर्पण करना। बाद में सुन्दर आसन पर विराजमान भगवान के प्रत्येक अंग में कटोरी में घिसकर रखा हुआ सुन्दर मलयगिरि चन्दन लगाना। यह चन्दन की अर्चा सबसे पहले भगवान के ललाट पर करके ललाट का अच्छी तरह से दर्शन करना फिर करकमलों पर करके उन हाथों को निरखना, तत्पश्चात् हृदय, उदर, जंघा तथा पिंडली आदि अंगों पर चन्दन की अर्चा करना एवं इन समस्त अंगों के दर्शन एकाग्र दृष्टि से करना तथा चरणारविंदों के ऊपर और तलुओं पर सुन्दर कुमकुम लगाना और चरणों के दर्शन करना। तत्पश्चात् मोगरा, चमेली, गुलाब और चम्पा आदि सुगंधित पुष्पों के हार, कंकण, बाजूबंद और टोपी आदि आभूषण भगवान को पहनाना तथा मोगरे के पुष्प समान सफ़ेद, महीन, हलका वस्त्र उनके मस्तक पर धारण करवाना। इसके पश्चात् सफ़ेद, महीन, हलकी, सुन्दर पिछौरी उन्हें ओढ़ानी। बाद में भगवान से एक बार, दो बार और जिस प्रकार अपने अंतःकरण में परमेश्वर के प्रति प्रेमभावना उत्पन्न हो, वैसे गले लगाकर मिलना तथा भगवान के चरणारविंदों को अपनी छाती में लगाना, और अपने मस्तक के ऊपर भी धारण करना। इस प्रकार भगवान को गले लगाने से उनके अंगों का चन्दन अपने अंगों पर लगा हो, तथा भगवान के चरणारविंदों को अपनी छाती में लगाने से तथा मस्तक पर धारण करने से जो कुमकुम रोली अपने शरीर पर लगे, एवं पुष्पहारों आदि जो भी चिह्न अपने अंग में लगे, उनका निरीक्षण करना और ऐसी स्वानुभूति करना कि, ‘भगवान का प्रसादी चन्दन, कुमकुम और हारों का स्पर्श मेरे शरीर से हुआ है।’

“अब शीतकाल की पूजाविधि कहते हैं। शीतकाल के चार महीने तक पूजा का क्रम इस प्रकार रखना। सबसे पहले भगवान को गरम जल से स्नान कराना। तत्पश्चात् श्वेत धोती धारण करने के लिए अर्पित करना तथा पलंग पर मखमल की गद्दी बिछवाकर श्वेत चादर भी बिछाना। बाद में भगवान को विराजमान करना एवं उन्हें सुरवाल तथा बगलबंडी अर्पण करना। सुनहरे तारवाला कीमती तथा कुसुम्भी रंगवाला मूल्यवान साफा उनके मस्तक पर बाँधना तथा मूल्यवान दुपट्टे से कमर भी बाँधना। कन्धे पर कीमती दुपट्टा धारण कराना, हीरा-मोती, सोने और प्रवाल के विभिन्न आभूषण प्रत्येक अंग में पहनाना। मोतियों की माला अर्पण करना। तथा वस्त्र और अन्य गहने पहनाकर भगवान के इन अंगों के अच्छी तरह दर्शन करना। तथा भगवान के ललाट में कुमकुम का टीका लगाना।

“अब वर्षाऋतु में मानसी पूजा विधि का विधान बताते हैं। इन चार महीनों तक इस प्रकार कल्पना कीजिए, जैसे भगवान किसी गाँव से अभी अभी पधारे हैं, और उनके सभी श्वेत वस्त्र भीग गए हैं अथवा वे परमहंसों के साथ स्नान के लिए जब नदी पर पधारे थे, और वहाँ से भीगकर अपने निवास पर आए हैं। फिर उन वस्त्रों को बदलकर उन्हें कुसुम्भी वस्त्रों को अर्पण करना और ललाट में केसर-चन्दन का लेप करना।

“यदि ग्रीष्म काल हो तो ऐसी धारणा करें कि भगवान खुले चौक अथवा बगीचे में विराजमान हैं। यदि शीतकाल तथा चातुर्मास (वर्षाकाल) हो तो सोचें कि भगवान कहीं अच्छे आवास में अथवा बड़े से घर में विराजमान हैं, इस प्रकार धारणा करनी चाहिए।

“भगवान को भोजन कराने के लिए कौन सी चीजें देनी चाहिए? तो मन ही मन उनको वही चीजें अर्पण करनी चाहिए जो स्वयं को पसन्द हो, ऐसे ही भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य पदार्थ भगवान के लिए अर्पण करें। तथा धूप, दीप और आरती आदि उपचार द्वारा भगवान की यथेष्ट सेवा करें। इस प्रकार तीनों ऋतुओं में यदि पृथक्-पृथक् रीति से पूजा की जाए, तो उस भक्त को भगवान के प्रति प्रीति में वृद्धि होती है तथा उसकी जीवात्मा भी भक्ति से परिपुष्ट होती है। अतः जिन्होंने यह वार्ता सुनी है, वे इसे हृदयंगम कर लें और नित्य इसी प्रकार भगवान की मानसी पूजा करते रहें। आज हमने जैसी बातें कही हैं, वैसी तो हमने कभी भी नहीं कीं।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने एक दूसरी बात कही कि, “जब भगवान तथा उनके भक्त अपने पर प्रसन्न हों, तब उस भक्त को ऐसा मानना चाहिए कि, ‘मेरा सौभाग्य है कि मुझ पर भगवान तथा भगवान के भक्त प्रसन्न हुए हैं।’ और, उपदेश के निमित्त यदि भगवान और भगवान के भक्त हमें कटु वचन कहकर हितोपदेश दें तब हमें यह सोचना चाहिए कि, ‘मेरे बहुत बड़े सौभाग्य हैं, कि मुझे भगवान एवं भगवान के भक्त ने डपटकर कहा! जिससे मेरे अवगुण नष्ट हो जाएँगे!’ इस प्रकार वे डाँट दे तब भी प्रसन्न ही रहना चाहिए, परन्तु दुःखी और उदास मत होना, तथा झुंझलाना भी मत; साथ ही अपनी जीवात्मा को अति पापी भी नहीं मानना। एवं भीतर प्रसन्न रहना। यह बात भी मनन करने योग्य हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २३ ॥ २४६ ॥

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