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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २४

सोलह साधन

संवत् १८८५ में आश्विन कृष्णा द्वादशी (४ नवम्बर, १८२८) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष साधुवृंद तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज से मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान के भक्त अक्षरधाम में भगवान की सेवा में रहते हैं, उस सेवा की प्राप्ति के कौन-से साधन हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रद्धा, स्वधर्म, वैराग्य, समस्त प्रकार से इन्द्रिय निग्रह, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, साधु-समागम, आत्मनिष्ठा, माहात्म्यज्ञानयुक्त भगवान की निश्चल भक्ति, सन्तोष, निर्दम्भता, दया, तप, अपनी अपेक्षा अधिक गुणवाले भगवद्भक्तों के प्रति गुरुभाव रखना, और उनकी महिमा जानना, अपने समकक्ष भगवद्भक्तों में मित्रभाव रखना, अपने से कम उम्र के भगवद्भक्तों में शिष्यभाव रखकर उनका हित सोचना - इन सोलह साधनों के द्वारा भगवान के एकान्तिक भक्त अक्षरधाम में भगवान की सेवा को प्राप्त करते हैं।”

फिर शुकमुनि ने प्रश्न पूछा कि, “अपने समस्त सन्त पंचव्रतों का पालन तो करते ही रहते हैं, फिर भी उनका ऐसा कौन-सा लक्षण है, जिससे यह विश्वास हो जाए कि ये आपत्तिकाल में भी धर्म से विचलित नहीं होंगे?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसकी दृष्टि निरन्तर भगवान के छोटे-बड़े वचनों को भी प्रधान मानकर उन आज्ञाओं पर ही रहती है, तथा वचनों का उल्लंघन करना जिसे अत्यन्त कठिन मालूम पड़ता है, एवं जो आज्ञापालन में न तो अतिरेक करता है और न तो कुछ कमी रखता है, ऐसी दृढ़ता जिस भक्त के हृदय में हो, उसके सम्बंध में जान लेना चाहिए कि वह आपत्तिकाल में भी धर्म से विचलित नहीं होगा।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने कृपा करके ऐसी बात की कि, “प्रकृति को टालना जीव के लिए अत्यन्त कठिन कार्य है। फिर भी, सत्संग में यदि स्वार्थ दिखाई पड़े, तो प्रकृति के टालने में कोई कठिनाई नहीं होती। जैसे दादाखाचर के परिवारजनों को हमें अपने घर में रखने में स्वार्थ है, तो वे ऐसी प्रकृति नहीं रखते जो हमें पसन्द न हो। इस प्रकार स्वार्थ एक कारण है, जिससे प्रकृति टल जाती है। दूसरा उपाय है भय। हालाँकि भय से प्रकृति का उतना नाश नहीं होता, जितना होना चाहिए। क्योंकि जिससे भय लगता हो, वह व्यक्ति यदि प्रत्यक्षरूप से उपस्थित न हो, तो डरने का कोई कारण नहीं रह जाता। जैसे राजा के भय से चोर अपनी प्रकृति का परित्याग कर देता है। (परन्तु बिना दंड और भय के वह स्वच्छन्द ही रहता है।)

“और, जिसके स्वभाव को मिटाने के लिए हमने बार-बार कठोर वचनरूपी डंक दिए हों, फिर भी वह बिना ग्लानि के सत्संग में अविचल बना रहा हो, उसके पर तो हमारा इतना स्नेह बढ़ जाता है, कि जाग्रत और स्वप्नावस्था में बिना स्मृति किए ही हमें उसके साथ निरंतर प्रीति बनी रहती है, जो किसी भी स्थिति में नहीं मिटती।

“इसके अतिरिक्त जिस हरिभक्त में जैसे भी अंग होता हैं, उसमें एक प्रधान अंग हम बतलाते हैं। जैसे - दादाखाचर को विश्वास का अंग प्रधान है, वैसे राजबाई को त्याग का अंग; जीवुबाई को श्रद्धा का अंग; लाडूबाई को मुझे सदा प्रसन्न रखने का अंग; नित्यानंद स्वामी को मुझे प्रसन्न रखने का अंग; ब्रह्मानंद स्वामी को सत्संग की मर्यादाभंग न हो ऐसा आग्रह, वह अंग; मुक्तानंद स्वामी को मुझे सदैव प्रसन्न रखने की चेष्टा और विश्वास वह अंग; सोमला खाचर को सदैव एक समान रहन-सहन का अंग; चैतन्यानंद स्वामी को मेरी प्रसन्नता हेतु कुछ भी करने की वृत्ति रहे वह अंग; स्वयंप्रकाशानंद स्वामी को निश्चय और माहात्म्य का अंग; ठाकोर झीणाभाई को भगवान के अतिरिक्त अन्य पदार्थों से विरक्ति का अंग तथा बड़े आत्मानंद स्वामी को मेरी आज्ञा के उल्लंघन न होने की तत्परता का अंग।”

इस प्रकार वरिष्ठ परमहंसों तथा भक्तों के भक्ति सम्बंधी विशिष्ट अंगों को श्रीहरि ने बतलाया।

इसके पश्चात् उन्होंने कहा कि, “यहाँ की तीन अग्रणी स्त्री-भक्त तथा गोपालानंद स्वामी, ब्रह्मानंद स्वामी, मुक्तानंद स्वामी नित्यानंद स्वामी, शुकमुनि, सोमलो खाचर तथा दादाखाचर आदि आप सब कितनी दृढ़ता से पंचव्रतों का पालन करते हैं! तथापि देश, काल, संग एवं क्रिया इन चारों में यदि विषमता आ जाएँ, तो आज जितनी दृढ़ता और उमंग है, वैसी नहीं रहेंगी। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। और, कदाचित् विषयों में आसक्त हो भी गया, परन्तु उसमें जिसको जितना अधिक ज्ञानांश होगा, उतना ही जल्दी वह विषयों के बंधन को तोड़कर निकल जाएगा।

“वह ज्ञानांश तो एक ‘समझ’ का नाम है। ज्ञानांशवाला यह समझता है कि मैं जो जीव हूँ, वह ऐसा हूँ, तथा यह देह है, वह ऐसा है तथा इस देह के जो सम्बंधी हैं, वे ऐसे हैं; और प्रकृति, पुरुष, विराट, सूत्रात्मा एवं अव्याकृत के स्वरूप को भी वह जानता है कि वे ‘ऐसे’ हैं, तथा भगवान और भगवान का धाम इस तरह का है, उसे भी जानता है। इत्यादि ज्ञानांश की अत्यंत दृढ़ता यदि अन्तःकरण में हो गयी और उसे वैराग्य का उदय हो गया, तो समझना कि वही वैराग्य सच्चा वैराग्य है। उसके बिना अन्य प्रकार का जो वैराग्य है, वह तो दिखावटी ही है; ऐसे वैराग्य में बल नहीं रहता। बल तो ज्ञानांश से उत्पन्न वैराग्य में ही रहता है। जिस प्रकार दीपक की लौ हवा लगने से बुझ जाती है तथा वड़वानल और मेघ में व्याप्त बिजली की अग्नि जल में रहने पर भी उससे अप्रभावित रहती है और प्रज्वलित होती रहती है - उसी तरह बिना ज्ञानांश का वैराग्य विषयों के संपर्क के बाद टिक नहीं पाता, जबकि ज्ञानांश द्वारा उत्पन्न वैराग्य विषयों से सम्बंध रहने पर भी क्षीण नहीं पड़ता, किन्तु वड़वानल की अग्नि की तरह प्रज्वलित होकर कायम रहता है। और, आपके मन में इस प्रकार के ज्ञानांश की ग्रन्थि लग जाए, इसके लिए हम निरन्तर वार्ता करते रहते हैं, क्योंकि किसी एक वार्ता का भी दिल पर गहरा प्रभाव पड़ जाए, तो इस प्रकार की ग्रन्थि उत्पन्न हो जाए। परन्तु, जो इस प्रकार नहीं समझता, तथा ‘यह मेरी जाति, यह मेरी माँ, यह मेरा बाप, ये मेरे सम्बंधी’ ऐसी अहं-ममता युक्त विचारधारा रखता है, उसे तो अति प्राकृतमतिवाला नादान पुरुष ही समझना चाहिए!”

पुनः श्रीजीमहाराज कृपा करके कहने लगे कि, “मुमुक्षु को उत्कृष्ट गुणों की प्राप्ति किस प्रकार होती है? तो भगवान की कथा-वार्ता सुनने में जिसको जितनी प्रीति, उसको जगत से उतनी ही अनासक्ति हो जाती है, तथा काम, क्रोध, लोभादि दोषों का नाश हो जाता है परन्तु जिसे कथा-वार्ता में आलस्य रहता है, उसके सम्बंध में तो ऐसा अनुमान लगाना कि, ‘उसमें महान गुण कभी नहीं आएँगे।’ और, शास्त्रों में नव प्रकार की जो भक्ति बताई गई है, उसमें श्रवण भक्ति को प्रथम स्थान दिया गया है। इसलिए, जो श्रवण भक्ति की दृढ़ता रखेगा, उसे प्रेमलक्षणा भक्ति पर्यन्त भक्ति के समस्त अंग सिद्ध हो जाएँगे।”

पुनः उसी दिन दोपहर के समय दादाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे के आगे जब समस्त परमहंस भोजन करने के लिए बैठे थे, तब श्रीजीमहाराज नीमवृक्ष के नीचे पलंग बिछवाकर विराजमान थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से कहा कि, “स्त्री हरिभक्तों का अधिकरूप से माहात्म्य मत समझना; क्योंकि उनकी महिमा के बहाने मन में उनका मनन होने लगता है, और वे स्त्री-भक्त स्वप्न में आती हैं। इसलिए महिमा जानें तो सभी का समान रूप से जानना कि, ‘ये सब भगवान के भक्त हैं।’ परन्तु, किसी की न्यूनाधिक महिमा नहीं समझनी चाहिए। यदि किसी की अधिक महिमा समझें और किसी की कम समझें तो बड़ा भारी विघ्न हो सकता है। उसी प्रकार स्त्रियों को भी पुरुषों की महिमा समान रूप से ही समझना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं समझेंगी, तो स्त्रियों को भी बड़ा विघ्न उपस्थित हो जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २४ ॥ २४७ ॥

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