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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २५

भगवान की प्रसन्नता, सच्चे भक्त के लक्षण

संवत् १८८५ में कार्तिक शुक्ला दशमी (१६ नवम्बर, १८२८) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वारा के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज अपनी कृपा-वार्ता इस प्रकार कहने लगे, कि, “‘भगवान की भक्ति, उपासना, सेवा, श्रद्धा तथा धर्मनिष्ठा आदि जो भी कुछ साधना करें, उनमें अन्य फल की इच्छा न ही रखनी चाहिए।’ ऐसी बात सत्शास्त्रों में कही गई है, सो तो ठीक है, परन्तु ऐसी साधना करनेवालों को एक इच्छा तो अवश्य रखनी चाहिए कि, ‘इसके द्वारा मुझ पर भगवान की प्रसन्नता हो जाए।’ ऐसी इच्छा रखे बिना ही यदि कोई जीव भक्ति करेगा तो वह तमोगुणी कहलाएगा। इसलिए, भगवान की भक्ति आदि गुणों के द्वारा भगवत्प्रसन्नतारूपी फल की इच्छा रखनी चाहिए। यदि कोई इसके बिना अन्य इच्छा रखता है, तो उसे चतुर्धा मुक्ति आदि फलों की प्राप्ति होती है।

“और, जो अनेक उपचारों द्वारा भक्ति करता है उसी पर भगवान प्रसन्न हो जाते हैं और गरीब पर प्रसन्न नहीं होते, ऐसा मत समझना। यदि कोई गरीब श्रद्धापूर्वक जल, पत्र, फल, फूल भगवान के लिए अर्पित करता है तो वे इतने पर ही प्रसन्न हो जाते हैं, क्योंकि भगवान तो बहुत दयालु हैं। जिस प्रकार कोई पुरुष किसी राजा के नाम पर एक श्लोक की रचना करके उसके समक्ष प्रस्तुत करता है, तो राजा उसे गाँव दे देता है, उसी प्रकार भगवान भी तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं।

“और, भगवान का वास्तविक भक्त किसे कहा जाए? तो कदाचित् अपनी देह में कोई दीर्घकालीन रोग उत्पन्न हो जाए, तथा खाने को अन्न न मिले, तथा वस्त्र न मिले, इत्यादि अनेक प्रकार से चाहे जितना दुःख भोगना पड़े अथवा सुख भी प्राप्त हो - परन्तु ऐसी स्थिति में जो भगवान की उपासना-भक्ति, नियम-धर्म, श्रद्धा आदि में लेशमात्र भी शिथिल नहीं पड़ता, किन्तु रत्तीभर आगे ही बढ़ जाता है, उसे ही सच्चा हरिभक्त कहा जाना चाहिए।”

इसके बाद श्रीजीमहाराज से राजबाई ने प्रश्न पुछवाया कि, “हे महाराज! आप किस गुण के द्वारा प्रसन्न होते हैं और किस दोष के कारण अप्रसन्न हो जाते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “वचन में अनेक दोष हैं, वे कौन-से हैं? तो यदि अपने अन्तःकरण में कुछ विशिष्ट आचरण की कोई बात हो, तो उसके सम्बंध में हमसे एकबार कह देना कि, ‘हे महाराज! आप कहें तो मैं इस प्रकार का आचरण करूँ;’ परन्तु, यह बात बार-बार नहीं कहनी चाहिए कि, ‘हे महाराज! मुझे इस प्रकार बरतना चाहिए या उस तरह, यह आप मुझसे क्यों नहीं कहते?’ ऐसी जो वृत्ति है, मुझे पसन्द नहीं है। मुझे अपना इष्टदेव जानते हुए भी बार-बार मेरे वचनों पर प्रतिवचन कहता है, वह भी नहीं रुचता। मैं यदि किसी से वार्तालाप कर रहा हूँ, उस समय कोई बिना बुलाए ही बीच में बोल पड़ता है, तो यह बात भी मुझे पसन्द नहीं है। भगवान का ध्यान करना, धर्मपालन करना तथा भक्ति में मन लगाना आदि शुभ क्रियाओं को भगवान पर डाल देता है कि, ‘यदि भगवान ये साधना कराएँगे तो करेंगे!’ वह भी मुझे पसन्द नहीं है।

“तथा ‘मैं ऐसा करूँगा, मैं इस तरह करूँगा’ इस प्रकार जो केवल अपने बल की ही डींग मारता है और भगवान का बल नहीं रखता, तो उसे भी हम पसन्द नहीं करते। जिस भक्त को शब्दोच्चार करते हुए अपने अंग के बारे में पता न हो, वह तो हमें बिल्कुल ही पसन्द नहीं है। हमें ऐसा पुरुष भी पसन्द नहीं आता, जिसे व्यावहारिक कार्य सम्पन्न करने में तो लाज और आलस्य नहीं हैं, किन्तु भगवान की वार्ता, कथा और कीर्तन करने में उसे लज्जा आती है तथा ऐसी साधना करने में वह आलस्य भी रखता है। और, अपनी वाणी में त्याग का अथवा भक्ति का अथवा किसी भी प्रकार का अहंकार रखता हो, उसको भी हम पसन्द नहीं करते। और, हमें वह भी पसन्द नहीं है कि जहाँ सभा हो रही हो, वहाँ जो सबसे पीछे आकर बैठे, किन्तु उचित स्थान में वह न बैठे। हम उस भक्त को भी पसन्द नहीं करते, जो सभा में बैठे हुए किसी को कोहनी मारकर जगह करके स्वयं बैठ जाए।

“और, अब जो हमको पसन्द है, वह बताते हैं - हमें उन स्त्री-भक्तों का बर्ताव पसन्द है, जो अपने शरीरांगों को ढाँक कर लज्जापूर्ण आचरण करती हैं और मार्ग पर चलते समय नीची दृष्टि रखकर चलती हैं, परन्तु असभ्य या स्वच्छन्द दृष्टि रखकर नहीं चलतीं। कोई ऐसा भी होता है, जो हमारा दर्शन करते हुए भी चंचल दृष्टि से दर्शन को छोड़कर वहाँ से गुजरते हुए किसी स्त्री या पुरुष को देखता रहे, अथवा कोई कुत्ता या पशु भी क्यों न वहाँ से गुजरे, उसकी ओर झाँकता रहता है अथवा किसी चीज़ की खड़खड़ाहट हो रही हो, वहाँ भी दर्शन को छोड़कर देखा करता है, परन्तु एकाग्र दृष्टि से दर्शन नहीं करता, उस पर तो इतना क्रोध आता है कि क्या करें, हम साधु हैं, अन्यथा इसका कुछ ताड़न करते! परन्तु, ऐसा तो हम कर नहीं सकते। क्योंकि किसी का ताड़न करना साधु के लिए अत्यन्त अनुचित कर्म है।

“और, जो भी हम से कपट रखता हो और अपने मन की बात को उपयुक्त व्यक्ति के पास भी नहीं कहता हो, वह भी हमें पसन्द नहीं है। तथा मान, क्रोध एवं किसी से दबकर रहना अर्थात् अपने मन की बात, अपनी सोच दूसरों के दबाव में आकर यथार्थरूप में नहीं दिखा सकना ये तीनों बातें अत्यन्त बुरी हैं। एवं हरिभक्तों में परस्पर समानभाव रहता हो, किन्तु एक-दूसरे की मर्यादा नहीं रहती, यह तो बहुत ही बड़ी बुराई है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २५ ॥ २४८ ॥

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