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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २५

बीस मोट का प्रवाह; चित्तवृत्ति का निरोध

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला सप्तमी (२३ दिसम्बर, १८१९) को प्रातः काल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों के स्थान पर पधारे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी। श्वेत शाल ओढ़ी थी, सफ़ेद फेंटा बाँधा था और वे पश्चिमी द्वार के बरामदे में पूर्वाभिमुख होकर विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज कृपा करके बोले, “भगवान का भक्त स्वधर्म से युक्त होने पर भी वह अपने हृदय में यथार्थ पूर्णकामता नहीं समझता। पूर्णकामता तो आत्मनिष्ठा एवं भगवान के माहात्म्य के ज्ञान से ही उत्पन्न होती है। इन दोनों में जितनी न्यूनता रहती है, उतनी ही न्यूनता पूर्णकामता में भी रहती हैं। अतः भगवान के भक्त को इन दोनों साधनों को दृढ़तापूर्वक सिद्ध कर लेना चाहिए। इन दोनों में जितनी कमी रहती है, वह समाधि में भी उतनी ही बाधक बन जाती है।

“हाल में ही हमने एक हरिभक्त (स्त्री) को समाधिस्थ किया था। उस स्थिति में उसे अतिशय तेज दिखाई दिया। उसे देखकर वह चीखने लगी और बोली कि, ‘मैं जल रही हूँ।’ अतः समाधिवाले को भी आत्मज्ञान की आवश्यकता अनिवार्यरूप से रहती है। यदि वह अपने स्वरूप को आत्मा न समझकर ‘देह’ ही मानता है, तो उसमें बहुत कचाई अपूर्णता रह जाती है। हमने तो उस हरिभक्त को समझाया कि, ‘तुम्हारा स्वरूप देह नहीं, बल्कि आत्मा है। तथा “लाडकीबाई” नाम एवं भाट जाति की देह तुम्हारा वास्तविक रूप नहीं है। अछेद्य तथा अभेद्य आत्मा ही तुम्हारा स्वरूप है।’ बाद में हमने उसे समाधि कराकर बताया कि, ‘गणपति के स्थान में चार पंखुड़ीवाले कमल के पास जाकर तुम अपने स्वरूप को देखो। और जब समाधिवाला गणपति के स्थान में जाता है, तब उसे वहाँ नाद सुनायी पड़ता है और प्रकाश दिखाई देता है। फिर उससे परे ब्रह्मा के स्थान में जाने पर और भी अधिक नाद सुनायी पड़ता है तथा अधिक प्रकाश भी दिखाई पड़ता है। फिर उससे परे विष्णु के स्थान में जाता है, तब उसे उससे भी अधिक नाद और तेज क्रमशः सुनायी और दिखाई पड़ते हैं।३७

“इस प्रकार ज्यों-ज्यों वह ऊर्ध्वगति करता है, त्यों-त्यों उसे तीव्र नाद सुनाई पड़ता है और अधिकाधिक प्रकाश दिखाई पड़ता है। इस तरह समाधि में अतिशय तेज दिखायी पड़ता है, तथा अत्यधिक नाद सुनाई पड़ने लगता है और बहुत अधिक कड़ाके होते हैं, ऐसे समय में चाहे कितना ही अधिक धैर्यवान हो, फिर भी उसमें कायरता आ जाती है। यद्यपि अर्जुन भगवान के अंश थे तथा महाशूरवीर भी थे, फिर भी वे भगवान के विश्वरूप को देखने में समर्थ नहीं हुए। वे बोले कि, ‘हे भगवन्! मैं इस रूप को देखने में समर्थ नहीं हूँ। इसलिए, आप अपने पूर्व-रूप के दर्शन कराइए।’ इस प्रकार समाधि में जब ऐसे समर्थ व्यक्ति को भी ब्रह्मांड फट जाने के समान कड़ाके सुनाई पड़ते हैं और जिस प्रकार समुद्र के अमर्यादित होने पर प्रचंड जलप्रवाह को देखकर डर लगता है, उसी तरह प्रचंड तेज के समूह को भी देखकर धैर्य नहीं रहता। इसलिए अपने स्वरूप को देह से भिन्न समझना चाहिए। इस तरह जो समाधि होती है, उसके दो प्रकार होते हैं। पहला प्रकार वह है कि प्राणायाम करने से प्राण का निरोध होता है और उसके साथ-साथ चित्त का भी निरोध हो जाता है। दूसरा प्रकार यह कि चित्त के निरोध से प्राण का निरोध हो जाता है। चित्त का निरोध तब होता है, जब सब स्थानों से वृत्ति हटकर जब भगवान में जुड़ जाए। और यह वृत्ति भगवान में तभी जुड़ पाती है, जब सभी स्थानों से वासना मिटकर एक भगवान के स्वरूप की ही वासना हो जाए। ऐसा होने पर चित्त की वृत्ति को कोई हटाने का प्रयत्न करे, फिर भी वह भगवान से नहीं हट सकती।

“जिस तरह किसी कुएँ पर बीस मोट (चरसा) चलते हों और प्रत्येक का प्रवाह भिन्न-भिन्न दिशा में जाता हो, तो उन प्रवाहों में शक्ति नहीं रहती, परन्तु यदि इन बीस मोटों के प्रवाह को मिला दिया जाए, तो उसमें नदी के समान इतना तीव्र प्रवाह होता है कि वह किसी के हटाने पर भी नहीं हटता। उसी प्रकार, जिसकी वृत्ति निर्वासनिक होती है, उसका चित्त भगवान के स्वरूप में लग जाता है। परन्तु जिसके चित्त में संसार के सुखों की वासना हो, उसकी वृत्ति श्रोत्र-इन्द्रिय द्वारा अनन्त प्रकार के शब्दों में अलग-अलग होकर बिखर जाती है। उसी प्रकार, त्वचा-इन्द्रिय द्वारा हज़ारों प्रकार के स्पर्शों में अलग-अलग होकर वह फैल जाती है। इसी तरह नेत्रेन्द्रिय की वृत्ति हजारों प्रकार के रूपों में, रसनेन्द्रिय की वृत्ति हजारों प्रकार के रसों में, नासिका (घ्राण) इन्द्रिय की वृत्ति हजारों प्रकार की गंधों में फैल जाती है। इस तरह कर्म इन्द्रियों की वृत्तियाँ भी अपने-अपने विषयों में हजारों प्रकार से फैल जाती हैं। वैसे दसों इन्द्रियों के द्वारा उसका अन्तःकरण हज़ारों प्रकार की वृत्तियों में बिखर जाता है। जैसे कि चित्त जब भगवान का ही चिन्तन करे, मन भगवान का ही संकल्प करे, बुद्धि भगवान के स्वरूप का ही निश्चय करे और अहंकार ‘मैं आत्मा हूँ तथा भगवान का भक्त हूँ,’ ऐसा अभिमान करे, तब उसकी ‘एक’ ही वासना हुई समझें।

“और प्राण से चित्त का निरोध अष्टांगयोग द्वारा होता है। अष्टांगयोग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि इन आठ अंगों से युक्त होता है। ऐसा अष्टांगयोग साधनरूप है तथा उसकी फलश्रुति है भगवान के स्वरूप में निर्विकल्प समाधि! जब ऐसी निर्विकल्प समाधि होती है, तब प्राण के निरोध से चित्त का निरोध होता है। और यदि चित्त निर्वासनिक होकर भगवान में लग जाता है, तब उस चित्त के निरोध से प्राण का निरोध होता है। अतः जिस प्रकार अष्टांगयोग की सिद्धि से चित्त का निरोध होता है, वैसे ही भगवान के स्वरूप में जुड़ जाने से चित्त का निरोध होता है। इसलिए जिस भक्त की चित्तवृत्ति भगवान के स्वरूप में जुड़ जाती है, उसे अष्टांगयोग की सिद्धि, बिना साधना के ही सिद्ध हो जाती है। अतः हमने आत्मनिष्ठा तथा भगवान के माहात्म्यज्ञानरूपी जो दो साधन बताए हैं, उनमें दृढ़ता रखें; और धर्म-मर्यादा अर्थात् भगवान की आज्ञा का पालन अवश्य करें। जिस प्रकार नहाना-धोना और पवित्रतापूर्वक रहना आदि ब्राह्मण का धर्म है, वह कभी शूद्र के घर का पानी भी नहीं पीता इसे वह अपना धर्म समझता है। उसी तरह सत्संगी को भगवान की आज्ञा के पालन में कभी न्यूनता नहीं बरतनी चाहिए। क्योंकि जो आज्ञा का पालन करता है, उस पर भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। तथा भगवान का माहात्म्य-ज्ञान तथा वैराग्यसहित आत्मज्ञान - दोनों गुणों में अतिशय दृढ़ता रखें एवं स्वयं को पूर्णकाम हुए समझें कि, ‘अब मुझ में कोई कमी नहीं है।’ इस प्रकार समझकर निरन्तर भगवान की भक्ति करनी चाहिए। तथा ऐसी समझ के मद से कभी उन्मत्त भी नहीं होना और स्वयं को अकृतार्थ भी नहीं मानना चाहिए। यदि वह स्वयं को अकृतार्थ मानेगा तो समझ लें कि उसके ऊपर भगवान की कृपा तो हुई, किन्तु क्षारभूमि में बोया गया बीज उगा ही नहीं, तथा उन्मत्त होने पर जैसा तैसा बरतने लगा तो यह समझना कि अग्नि में डाला गया बीज जैसे जल गया! अतः हमने जिस प्रकार बताया उसी प्रकार जो समझाता है, उसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं रहती।” ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज अपने निवास पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


३७. गणपति तथा विष्णु आदि के स्थान सम्बंधी जानकारी: आधार आदि छः चक्र तथा सातवें ब्रह्मरंध्र का वर्णन, योगशिखोपनिषद् के संदर्भानुसार (१/१६८-१७५) दिया गया है।

क्रमचक्र का नामकमल की पांखदेवताशरीर में स्थान
आधार (मूलाधार)चार पंखुड़ीवाला कमलगणपतिलिंग तथा गुदा के मध्य के बीच
स्वाधिष्ठान छः पंखुड़ीवाला कमलब्रह्मालिंग के पास
मणिपूरदस पंखुड़ीवाला कमलविष्णु नाभि के पास
अनाहतबारह पंखुड़ीवाला कमलशिवहृदय के पास
विशुद्धसोलह पंखुड़ीवाला कमलजीवात्माकंठ के पास
आज्ञाचक्रदो पंखुड़ीवाला कमलगुरुभ्रूकुटी के मध्य में
ब्रह्मरंध्रहज़ार पंखुड़ीवाला कमलपरमात्मामस्तिष्क में
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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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