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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २७

उचित-अनुचित गाँठ बाँधन से सुख-दुःखानुभूति

संवत् १८८५ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा (२१ नवम्बर, १८२८) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने यह वार्ता कही कि, “शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन पाँचों विषयों से सम्बंधित सुख एक दिव्यमूर्ति भगवान पुरुषोत्तम के सुखमय स्वरूप में से ही प्राप्त हो जाते हैं। अतः भगवान की मूर्ति के दर्शन करते समय ‘रूप’ का सुख तो प्राप्त होता ही है, परन्तु साथ ही साथ स्पर्श आदि अन्य चार विषयों का सुख भी प्राप्त होता है; और वह भी एक ही समय में प्राप्त होता है। जबकि अन्य मायिक पाँच विषयों में एक विषय का योग होने पर केवल उसी का सुख प्राप्त होता है, परन्तु अन्य विषयों का सुख नहीं प्राप्त होता। इस प्रकार मायिक पंचविषयों में एक-एक विषय में एक-एक विषय का सुख रहता है, वह भी तुच्छ तथा नाशवंत है, और अंततोगत्वा अपार दुःख का कारण ही बन जाता है। और भगवान में तो समस्त विषयों का सुख एककालावच्छिन्न प्राप्त हो जाता है और वह सुख भी महाअलौकिक है, तथा अखंड, अविनाशी है। अतएव, मुमुक्षु के लिए यही उचित है कि उसे मायिक विषयों से सर्वथा वैराग्य धारण करके भगवान की अलौकिक सुखमय दिव्य मूर्ति में ही सभी तरह से जुड़ जाना चाहिए।”

श्रीजीमहाराज ने पुनः कहा कि, “जिस हरिभक्त को भगवान की भक्ति करने की गरज़ हो, तथा जिसे सन्त-समागम करने की गरज़ हो, वह अपना चाहे जैसा विपरीत स्वभाव हो, उसे टालकर सन्त की आज्ञा तथा उनकी मर्जी के अनुसार आचरण करता है। तथा उसका चाहे जैसा चैतन्य से ओतप्रोत हो चुका कोई बुरा स्वभाव हो परंतु सत्संग की गरज़ रखनेवाला उस स्वभाव को मिटा देता है।”

इस पर श्रीजीमहाराज ने अपनी वार्ता कही कि, “पहले हमारा त्याग का स्वभाव था और हमें श्रीरामानन्द स्वामी के दर्शन की गरज़ थी; इसलिए, हम मुक्तानन्द स्वामी की आज्ञा के अनुसार ही रहे तथा हमने कभी भी अपनी मनमानी नहीं की।

“अब दूसरी बात यह है कि हरिभक्त को किसी तरह की ग्रन्थि बाँधनी हो तो उसे निष्कामादिक व्रतपालन की ग्रन्थि बाँधनी चाहिए, परन्तु कोई अनुचित और तुच्छ प्रकार की ग्रन्थि मत बाँधना कि, ‘मैं यदि यहीं पर आसन बिछाऊँगा, तभी निद्रा आएगी, किन्तु अन्यत्र नींद नहीं आएगी!’ ऐसी तुच्छ स्वभावग्रन्थि को व्रतपालन की ग्रन्थि से बिल्कुल भिन्न समझना। व्रतपालन की दृढ़ता की ग्रन्थि तो अपने जीवनरूप है, और ऐसी दृढ़ता में अत्यंत लाभ भी है। इस प्रकार माहात्म्य समझते हुए उसकी ग्रन्थि बाँध लेनी चाहिए। और अन्य जो विपरीत स्वभावों की ग्रन्थि हों उन ग्रन्थियों को तुच्छ समझकर यदि सन्त उसे छुड़वायें तो उसे छोड़ देना चाहिए, परन्तु इन पंचव्रतों की ग्रन्थि को कभी मत छोड़ना।

“यदि उन दोनों ग्रन्थियों को कोई एक समान ही मान लेगा तो वह उसकी मूर्खता है। जैसे बालक अपनी मुट्ठी में बादाम पकड़े हुए हो और कोई उसे छुड़वायें तो वह उसे नहीं छोड़ता है। इसी प्रकार मुट्ठी में रुपया हो या सोने की मुहर हो, तो किसी के छुड़वाने पर भी वह नहीं छोड़ता। उसका अर्थ यह हुआ कि उस बालक ने बादाम, रुपया तथा सोने की मुहर आदि की महिमा समानरूप से समझी है। इसका कारण यह है कि बादाम और स्वर्णमुद्रा में बालक की मूढ़ता है। परन्तु यदि कोई चोर आकर बादाम को देखे, और कहे कि, ‘इसे छोड़ दे, नहीं तो मैं तलवार से तेरा सिर काट डालूँगा।’ तब यदि चतुर मनुष्य होगा तो वह उसे दे देगा, परन्तु मूर्ख उसे नहीं छोड़ेगा।

“इस प्रकार इन दो प्रकार की ग्रन्थियों में न्यूनाधिकता समझनी चाहिए। यदि कोई ऐसा न समझे और इन दोनों बातों को सामान्य माने, तो उसका स्वभाव दुराग्रही और अभिमानी समझना। यदि कोई ऐसा दुराग्रह आदि के कारण व्रतों का पालन करता हो और यदि उन्हें मरणपर्यन्त निभाया, तब तो ठीक है, परन्तु हमें ऐसे भक्त का विश्वास पूरी तरह नहीं जमता। क्योंकि, यदि उसे किसी प्रकार के कठोर वचनों की चोट लग जाए अथवा उसके अहंकार का खंडन हो जाए तो वह सत्संग में भी नहीं रहेगा! यदि कोई अभिमानवश व्रतों का पालन या भक्ति करता हो, तो वह राजर्षि है। परन्तु यदि कोई भगवान की प्रसन्नता के लिए भगवद्भक्ति करता हो और पंच व्रतों का पालन करता हो, वह तो ब्रह्मर्षि है तथा वही साधु कहा जाता है। इस प्रकार इन दोनों में फल का भेद भी है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने आगे कहा कि, “मान, ईर्ष्या तथा क्रोध, ये तीनों दोष काम की भी अपेक्षा अत्यंत बुरे हैं, क्योंकि कामी पर तो सन्त दया भी कर लेते हैं, परन्तु मानी के प्रति वे दयाभाव नहीं रखते। क्योंकि मान से ईर्ष्या तथा क्रोध उत्पन्न होता है। इसलिए, मान एक बड़ा दोष है। मान रखने के कारण सत्संग से जैसा पतन हो जाता है, वैसा काम के कारण पतन नहीं होता। क्योंकि, इस सत्संग में अनेक गृहस्थ हरिभक्त रहते ही हैं। इसलिए मानी, ईर्ष्यालु और क्रोधी के प्रति हमारी अत्यंत उपेक्षा रहती है, और हमारे जो-जो वचन लिखे हुए होंगे उनको पढ़कर देखना तो हमारी ऐसी ही रुचि दिखाई देगी। यदि कोई इस पर सोचकर गहराई में जाएगा, तो मालूम हो जाएगा। अतः भगवान की महिमा को समझकर मान को मिटा देना चाहिए।”

श्रीजीमहाराज ने आगे कहा कि, “भगवान में निश्चय किसे कहते हैं? तो जैसे बाल्यावस्था से माँ-बाप, वर्ण, आश्रम, जातपाँत, पशु, मनुष्य, जल, अग्नि, पृथ्वी, वायु तथा आकाश इत्यादि जिन-जिन पदार्थों का निश्चय हुआ है, वह शास्त्रों के द्वारा ही हुआ है। यदि किसी ने शास्त्र न भी सुना हो, तो यह समझ लेना कि लोक में व्यवहृत शब्दों का प्रवर्तन शास्त्रों के द्वारा ही हुआ है तथा उनके अनुसार ही उनके सम्बंध में निश्चय किया गया है। उसी प्रकार शास्त्रों में वर्णित निष्काम, निर्लोभ, निर्मान, निःस्वाद और निःस्नेह आदि सन्त के लक्षण आपको जहाँ भी देखने को मिले, वहाँ समझना कि ऐसे लक्षणवाले सन्त का भगवान के साथ साक्षात् सम्बंध होता है। अतः ऐसे सन्त के वचनों द्वारा ही भगवान का निश्चय दृढ़ करना तथा उनके वचनों में दृढ़ विश्वास रखना, वही निश्चय कहा जाता है।”

इसके पश्चात् वड़ोदरा-निवासी नाथभक्त ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “जिसे भगवान के स्वरूप का दृढ़ निश्चय हो, ऐसे भगवद्भक्त के सम्बंधीजनों का कल्याण उस भक्त के सम्बंध द्वारा होता है कि नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि उसके सम्बंधियों तथा पितरों को उस भक्त के प्रति स्नेह हो, तो उनका कल्याण होता है। यदि स्नेह न हो तो कल्याण नहीं हो सकता। यदि कोई उस भक्त का सम्बंधीजन भी न हो, फिर भी उस भक्त के प्रति स्नेह रखता हो, तो उसका भी कल्याण हो जाता है। क्योंकि, मृत्यु समय पर उसे यदि उस भक्त का स्मरण हो जाए तो केवल स्मृतिमात्र से ही उसका कल्याण हो जाता है। क्योंकि, उस भक्त की वृत्ति भगवान में निरंतर ही लगी रहती है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने आगे कहा कि, “हम आत्मा के स्वरूप तथा भगवान के स्वरूप की वार्ता करते हैं, किन्तु वार्ता द्वारा उनका यथार्थ सुख नहीं मिल पाता। उनके यथार्थ सुख की अनुभूति तो समाधि के द्वारा ही होती है और देह छोड़ने के बाद ही उसका अनुभव होता है। परन्तु, केवल वार्ता द्वारा ही उसकी प्रतीति नहीं होती; जैसे नेत्रों द्वारा रूप का उपभोग होता है, फिर उस सुख का वर्णन किया करता है कि बहुत अच्छा रूप दिखाई दिया। तो उस वर्णन से मुख को नेत्रों जैसा सुख तो प्राप्त नहीं होता!

“तथा श्रवणेन्द्रिय द्वारा शब्दों को सुनना, नासिका द्वारा सुगन्ध पाना, त्वचा से स्पर्श करना, और जिह्वा द्वारा रसास्वादन करना आदि जो अलग-अलग सुख प्राप्त होता है, उसका वचनों द्वारा वर्णन किया जाए कि, ‘बहुत अच्छा सुगन्ध था, बहुत अच्छा रस था, बहुत अच्छा स्पर्श था, तथा शब्द भी बहुत अच्छा था;’ यह प्रशंसा यद्यपि बिल्कुल यथार्थ है, परन्तु जिस प्रकार जिन इन्द्रियों द्वारा विषयसुख का अनुभव होता है, वह वचनों द्वारा थोड़े ही मिलेगा? वैसे ही समाधि द्वारा तथा देह छोड़ने के बाद जिस प्रकार भगवान के सुख का अनुभव प्राप्त होता है तथा आत्मा सम्बंधी सुख का जो अनुभव होता है, वैसा अनुभव केवल उनकी बातें करने से थोड़े ही मिलेगा? यदि आत्मा एवं परमात्मा - इन दोनों की वार्ता सुनकर उस पर मनन और निदिध्यासन किया जाए, तब उनका साक्षात्कार हो जाता है। साक्षात्कार होने पर इन दोनों (आत्मा एवं परमात्मा) का अनुभव उसी प्रकार का होता है, जैसा समाधि होने पर प्राप्त होता है। अतएव, इन दोनों की वार्ता सुनकर उनका मनन और निदिध्यासन करते रहना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २७ ॥ २५० ॥

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