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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा अंत्य २८
भगवन्नमार्ग से पतन होने के दो प्रकार
संवत् १८८५ में कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा (२२ नवम्बर, १८२८) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में गोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान की भक्ति से जीव का दो प्रकार से पतन होता है। इनमें से एक तो यह है कि शुष्क वेदान्त के ग्रन्थों को सुनकर कोई पुरुष अन्य आकारों को असत्य ठहराता है और भगवान के श्रीकृष्ण आदि आकारों को भी मिथ्या सिद्ध कर डालता है, ऐसे शुष्क वेदान्तियों को अत्यन्त अज्ञानी समझा जाना चाहिए। दूसरा प्रकार यह है कि कोई यह समझता है कि यदि भगवान की उपासना करेंगे तो गोलोक एवं वैकुंठलोक में स्त्रीभोग और खानपान आदि पंचविषयों का सुख प्राप्त होगा। उस सुख की आसक्ति के कारण वह भगवान को भी भूल जाता है और कुबुद्धिवाला बनकर ऐसा मानने लगता है कि, ‘ऐसा सुख न हो, तो उन धामों में भगवान भी राधिका, लक्ष्मी आदि स्त्रियों के साथ क्यों रमण करते हैं! इसलिए यह सुख भी सच्चा ही है।’ परन्तु, वह भगवान को पूर्णकाम तथा आत्माराम नहीं समझता है। वस्तुतः भगवान की ऐसी क्रियाएँ तो भगवद्भक्तों के सुख के लिए हैं। इसलिए भगवान की भक्ति ज्ञान-वैराग्य सहित ही करनी चाहिए।
“और, जिसने भगवान के स्वरूप को ऐसा समझा हो कि, ‘सर्वसुखमय मूर्ति तो भगवान ही हैं तथा अन्य पंचविषयों का सुख भगवान की भक्ति से प्राप्त होनेवाले सुख की अपेक्षा लेशमात्र ही है।’ जिसने माहात्म्यसहित भगवान को इस प्रकार समझा हो, वह किसी भी पदार्थ के बन्धन में नहीं बंध सकता। मोक्षधर्म में बताया गया है कि, ‘भगवान के धाम के आनन्द के आगे अन्य लोकों के सुख नरक-जैसे हैं।’ अतः भगवान के भक्त को भी इसी प्रकार समझना। ऐसी समझ के बिना वह उपर्युक्त दोनों प्रकार की दुर्बुद्धि के कारण भगवद्भक्ति से भ्रष्ट हो जाएगा!”
इसके पश्चात् सुराखाचर ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “भगवान को और सन्त को यथार्थरूप से पहचान लिया हो, फिर भी किसी भक्त का अन्तर सत्संग से पतनोन्मुख हो जाता है, उसका क्या कारण है?”
तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर दिया कि, “जबसे उसने भगवान के स्वरूप का निश्चय किया था, तभी से उसमें अपूर्णता रह गई थी। वह कौन-सी थी? तो किसी को स्वाद के कारण अच्छे-अच्छे खाद्यपदार्थों की इच्छा रहती हो, तब यदि भगवान और सन्त उसके स्वाद की आसक्ति का खंडन करते हैं, तब उसको झटका-सा लग जाता है। तथा यदि उसके काम वासना के संकल्पों का खंडन किया जाए और लोभ-त्याग के लिए आदेश दिया जाए कि, ‘तू अपना धन-माल और खेतीबाड़ी का त्याग कर दे!’ तो वह उस वचन का पालन नहीं करता, बल्कि सत्संग से उसका मन उचट जाता है। यदि उसके अहंकार को मिटाने के लिए सन्त तथा भगवान उसकी भर्त्सना करें अथवा अपमान करें तो भी वह उद्विग्न हो जाता है। इस प्रकार उसके जो भी अवगुण होते हैं, उनकी प्रधानता के कारण वह निश्चय होने के बावजूद सत्संग से पतनोन्मुख हो जाता है। परन्तु जिसने भगवान के स्वरूप का निश्चय किया था, उसी समय इन अवगुणों को मिटाकर किया होता, तो उसका पतन नहीं हो सकता था। ये अवगुण अब भी जिस-जिस में होंगे और यदि वह विचारपूर्वक आत्मनिरीक्षण करेगा, तो उसको पता चल जाएगा कि, ‘इस प्रकार से अमुक प्रकार की कमी है, यदि भगवान या सन्त मुझसे उसी कमी को मिटाने का आदेश देंगे, तो मैं सत्संग से विमुख हो जाऊँगा।’ इस प्रकार वह यथार्थ समझ लेगा।”
फिर श्रीजीमहाराज ने ब्रह्मानन्द स्वामी, शुकमुनि तथा सुराखाचर से पूछा कि, “जिसके कारण सत्संग से आप पिछड़ जाए, आपमें यदि कोई ऐसा अवगुण हो, तो वह कौन-सा अवगुण है?”
तब इन तीनों ने कहा, “हे महाराज! एक मानरूपी दोष है, जिसके कारण कदाचित् कोई समकक्ष सन्त हमारा अपमान कर डाले, तब कुछ उद्वेग सा आ जाता है।”
यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “हम पूछते हैं कि, ‘द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया’२८६ इस प्रकार माहात्म्यपूर्वक भगवान को समझा हो, तो भगवान के ऐसे सन्त के प्रति मन में मान, ईर्ष्या तथा क्रोध उत्पन्न क्यों होते? यदि ऐसी कुत्सित भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, तो उनकी यथार्थ महिमा समझने में कमी है। क्योंकि गवर्नर साहब के विषय में जान लिया है कि ये समग्र प्रान्त के शासक हैं, और बलवान है। ऐसे में यदि उनका एक गरीबसा सन्देशवाहक भी आ जाए, तो उसका हुकुम बड़े-बड़े राजा को भी मानना पड़ता है।२८७ वह जैसा कहे, वैसा ही उसे मानना होगा। क्योंकि उस राजा ने समझ रखा है कि, ‘यह तो गवर्नर साहब का सन्देशवाहक है।’ अतः उसके आगे मान नहीं रहने पाता; क्योंकि जो अपने से अधिक बलवान हो, उसके आगे मान रहता ही नहीं! उसी प्रकार से जिसने भगवान को समग्र ऐश्वर्य तथा समृद्धि का स्वामी समझा हो, उसे सन्त के समक्ष मान कैसे रहेगा?”
तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा कि, “हे महाराज! आप ठीक कहते हैं कि जिसने इस प्रकार के माहात्म्यसहित भगवान को समझा है, तो सन्त के प्रति मान, ईर्ष्या और क्रोध कभी रहते ही नहीं।”
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “देखिए, उद्धवजी कितने बड़े ज्ञानी और चतुर थे, फिर भी वे भगवान की महिमा को जानते थे, तो उन्होंने भगवान से स्नेह रखनेवाली व्रजवासिनी गोपियों की चरणरज को प्राप्त करने के लिए वनलता का जन्म माँगा! अतः कहा भी गया है कि:
‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यांवृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥’२८८
“इसी प्रकार ब्रह्मा ने भी कहा है:
‘अहो भाग्यमहो भाग्य, नन्दगोपव्रजौकसाम्।यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम् ॥’२८९
“इस प्रकार ब्रह्मा भी भगवान का माहात्म्य जानते थे। अतः जिसने भगवान तथा सन्त की ऐसी महत्ता को समझ लिया, तो उसके भीतर मान, ईर्ष्या और क्रोध रहते ही नहीं, बल्कि वह तो भगवान के समक्ष दासानुदास होकर ही रहें तथा (भगवान अथवा संत उसका) चाहे कितना ही अपमान क्यों न करें, वह कभी उनका संग छोड़कर दूर जाने की इच्छा ही नहीं करता! तथा उस भक्त के मन में ऐसी भावना भी नहीं उठती कि, ‘अब कहाँ तक सहन करें? अब तो हम घर पर बैठे हुए ही भजन किया करेंगे।’ यदि इस प्रकार माहात्म्य समझा लिया जाए, तो मान मिट सकता है।”
तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने पुनः कहा कि, “यदि भगवान के किसी भक्त को किसी कर्मयोग के कारण सूली पर चढ़ा दिया जाए और उस समय यदि हम भी उसके पास खड़े हों, तो भी उस भक्त के हृदय में ऐसा संकल्प नहीं होना चाहिए कि, ‘यह भगवान यदि मुझे सूली के कष्ट से छुड़वा दें तो ठीक रहेगा।’ इस प्रकार जिसे अपने दैहिक सुख का संकल्प तक नहीं उठता तथा जो कष्ट पड़े, उसे सहन कर लेता है, ऐसे निष्काम भक्त पर भगवान की बड़ी प्रसन्नता होती है।”
इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान सम्बंधी सुख किसे प्राप्त होता है, वह बात कहते हैं कि जिस प्रकार जल मछली के लिए जीवनरूप होता है, और जब तक जल का योग रहता है तब तक मछली पानी में चलती-फिरती और क्रीड़ा करती रहती है, किन्तु जल का वियोग होते ही उसकी चंचलता समाप्त हो जाती है, और वह मर जाती है। उसी तरह जिस पुरुष ने पंचविषयों को ही जीवन माना है, और उन विषयों में ही सुख माना है, वह तो विषयों के वियोग से ही मृतः प्राय हो जाता है। अतः उसे भगवान की प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती। परन्तु, पंचविषयों से जिसका जीवनयापन मिट गया है, ऐसा भक्त ही भगवान सम्बंधी सुख की अनुभूति करता है, वही भक्त भगवान के सुख की अनुभूति करता है, और उस सुख का उपभोग भी करता है; तथा ऐसे भक्त को ही भगवान के स्वरूपजन्य आनन्द की प्राप्ति होती है।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ २८ ॥ २५१ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२८६. अर्थ के लिए देखें: वचनामृत लोया १० की पादटीप।
२८७. यहाँ अंग्रेज गवर्नर का आदेश भारत देश के विभिन्न राजा, जो कि बड़े-बड़े स्टेट के सत्ताधीश थे, वे भी मानते थे, उस परिस्थिति का जिक्र करके दृष्टांत दिया गया है।
२८८. अर्थ: “अहो, गोपियाँ तो किसी के भी द्वारा त्याग न होनेवाली सम्बंधियों की तथा आर्यधर्म की मर्यादाओं का त्याग करके ऐसे भगवान की उपासना-भक्ति करने लगीं, जिन बालमुकुंद को वेद भी खोज रहे हैं! ऐसी गोपियों की चरणरज के स्पर्श से पुनित हुई लता, औषधि आदि के मध्य मैं भी कोई तृणगुच्छ बन जाऊँ, कि जिससे गोपियों की चरणरज के स्पर्श का मुझे भी लाभ प्राप्त हो...।” (उद्धवजी की प्रार्थना, श्रीमद्भागवत: १०/४७/६१)
२८९. अर्थ: “जो परमानन्द रूप है ऐसे सनातन, पूर्ण परब्रह्म श्रीकृष्ण जिनके मित्र है, ऐसे नंदगोप व्रजवासियों के अहोभाग्य हैं! जिनके भाग्य का वर्णन ही असंभव है।” (श्रीमद्भागवत: १०/१४/३२)