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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २९

बीस वर्षीय दो हरिभक्त

संवत् १८८५ में पौष शुक्ला द्वितीया (७ जनवरी, १८२९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में हवेली के आगे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर रात्रि के समय विराजमान थे। उन्होंने सर्व श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष साधुगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने शुकमुनि से पूछा कि, “दो सत्संगी हैं, जिनकी आयु बीस-बीस वर्ष की है। इन दोनों सत्संगियों में निश्चय, स्नेह-भक्ति, वैराग्य और धर्म समानरूप से विद्यमान हैं। इनमें से एक सत्संगी को प्रारब्धयोग से विवाह द्वारा स्त्री मिली, परन्तु दूसरे सत्संगी को स्त्री न मिल सकी। अतः वह सांख्ययोगी तो बन गया फिर भी उसे विवाह करने की इच्छा तो थी, किन्तु स्त्री नहीं मिली। इन दोनों में तीव्र वैराग्य पहले से ही नहीं था। अतः दोनों की विषयभोग में तीक्ष्ण वृत्ति बनी रही। अब यह बताइए कि उन दोनों के हृदय से विषयासक्ति की तीक्ष्ण वृत्ति गृहस्थ में कम होगी या सांख्ययोगी में कम होगी? वेदों में तो ऐसा कहा गया है२९० कि जिसे तीव्र वैराग्य हो उसे ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके ही संन्यास ग्रहण करना चाहिए परन्तु जिसे मन्द वैराग्य हो, उसे विषय भोग की तीक्ष्णता को मिटाने के लिए गृहस्थाश्रम को ही स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर वानप्रस्थाश्रम में रहना, तथा अन्त में संन्यास ग्रहण करना। अतएव, विचार करके उत्तर दीजिए।”

उस वक्त शुकमुनि इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, किन्तु यथेष्ट उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज ने इस प्रकार उत्तर दिया कि, “इसी स्थिति में वह गृहस्थाश्रमी अच्छा है, किन्तु वह सांख्ययोगी ही बुरा है। क्योंकि उसे तीव्र वैराग्य नहीं है। अतः उसने विषयों को तुच्छ और असत्य नहीं माना, इतना ही नहीं, उसके हृदय में आत्मनिष्ठा की दृढ़ता भी नहीं है। इस कारण सत्संग से बाहर जाने पर वह विषयों के योग से उनके बन्धन में फँस जाता है। यदि विषयों का योग न हो, तो पुनः सत्संग का लालच रखकर सत्संग में लौट आता है। जबकि गृहस्थ को यदि छः मास के बाद भी सन्त के दर्शन हों तो भी उसकी दृढ़ता बनी रहती है। अतएव, मन्द वैराग्यवाले के लिए त्याग करना ठीक नहीं है। त्याग तो तीव्र वैराग्यवाला ही करे, वही उचित है। यदि मन्द वैराग्यवाला त्याग करता है तो उसका त्याग जीवनपर्यन्त टिक नहीं सकता। वर्ष, दो वर्ष अथवा दस वर्षों में उसके त्याग में अवश्य ही विघ्न पड़ जाता है।”

यह सुनकर शुकमुनि ने आशंका प्रकट की कि, “हे महाराज! यह मन्द वैराग्यवाला त्यागी यदि सन्त द्वारा भगवान के माहात्म्य की बात सुन ले और उसके बाद उस पर विचार करता रहे, तो क्या उसे तीव्र वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा? पहले से ही तीव्र वैराग्य तो किसी को प्रारब्ध के योग से होगा; बहुधा, प्रत्यक्षरूप से तो यही दिखाई पड़ता है कि इसे वैराग्य नहीं था, किन्तु बाद में हुआ। इसे किस प्रकार समझा जाए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर तो यह है कि अपने विचार से तथा अन्य किसी भी प्रकार से उसे तीव्र वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है। परन्तु यदि धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति - इन चारों गुणों से सम्पन्न महान साधु के साथ उसे ऐसा अतिशय ही स्नेह हो जाए, जैसा भगवान से स्नेह होता है, तब देखे, सुने या बोले, आदि जो कुछ क्रिया करे, सब कुछ ऐसे बड़े सन्त की मर्जी के अनुसार ही करे कि जिनके साथ उसे स्नेह है; परन्तु बिना उनकी इच्छा के वह ऐसी कोई क्रिया न करे। तथा वह कदाचित् सन्त की मर्जी से विरुद्ध आचरण करता है तो उसके मन में निरन्तर भय रहा करे कि, ‘यदि मैं इनकी मर्जी के अनुसार आचरण नहीं करूँगा, तो वे मेरे साथ स्नेह नहीं रखेंगे।’ तब वह उन सन्त की मर्जी का ही पालन किया करता है। अतः सन्त के साथ यदि अत्यंत स्नेह हो गया तो वैराग्य न होने पर भी उसका त्याग पार लग जाता है।

“देखिए न, हमारे सत्संग में भक्त स्त्रियाँ, पुरुष तथा परमहंस, सभी का हमसे अपार स्नेह हैं, इसी कारण जो दो-तीन अग्रगण्य स्त्रियाँ हैं, उनके समान ही अन्य सभी स्त्रियाँ पंचव्रतों का पालन करती हैं। वे सब मन में समझती हैं कि, ‘यदि हमने सावधान होकर व्रतों का पालन नहीं किया, तो महाराज का स्नेह हम पर नहीं रहेगा और वे हमसे अप्रसन्न हो जाएँगे।’ उसी प्रकार परमहंसों, अन्य सत्संगियों, ब्रह्मचारियों तथा पार्षदों में भी वैसी ही भावना है। तथा देश-देशान्तर के हरिभक्त स्त्री-पुरुष दूर-दराज के स्थानों में रहते हैं, परन्तु सतर्कतापूर्वक व्रतों का पालन करते हैं और यह समझते हैं कि, ‘हम लोग यदि अच्छी तरह आचरण नहीं करेंगे, तो महाराज अप्रसन्न हो जाएँगे।’ इसलिए, हमारे स्नेहबन्धन में बंधे हुए ये सब लोग दृढ़ता के साथ धर्माचरण करते रहते हैं; भले ही किसी को वैराग्य थोड़ा होगा और किसी को अधिक, इसका तो कोई मेल नहीं है।

“पहले जब हम पंचाला में बीमार पड़े थे, उस समय यदि हमारा देहावसान हो गया होता, तो आज आप सबकी (परिपक्व, प्रफुल्लित) वृत्तियाँ हैं, वैसी नहीं रहतीं। ऐसे समय तो जो तीव्र वैराग्यवान है, वही धर्मरत रह सकता है तथा जिसने अपने जीव को सत्संग में स्नेहपूर्वक जोड़ रखा हो, तथा अपने साथ स्नेहपूर्वक जुड़ा हो, वह भी धर्मरत रहता है, और भगवान को अन्तर्यामी जानकर अपने-अपने नियमों के अनुसार आचरण करते हैं, वही धर्मनिष्ठ रह पाते हैं। इनके सिवा, दूसरों का तो कुछ ठिकाना नहीं रहता। इसलिए, हमने जो प्रश्न पूछा था, उसका यही उत्तर है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २९ ॥ २५२ ॥

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२९०. जाबाल उपनिषद्: ४

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