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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३०

पाँच बातों का नित्य स्मरण

संवत् १८८५ में पौष पूर्णिमा (१९ जनवरी, १८२९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिजन तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमें दो वार्ताएँ रुचिकर लगती हैं और मन भी उन्हीं में लगता है। इनमें से एक तो यह है कि जिसे ऐसा लगता हो कि चैतन्य के तेजपुंज के मध्य श्रीपुरुषोत्तम भगवान की मूर्ति सदा विराजमान रहती है, ऐसा दृढ़ निश्चय हो और उन्हीं भगवान की उपासना-भक्ति करता हो, तो यह बात हमें पसन्द हैं; परन्तु जो केवल चैतन्य तेज को मानता हो, तथा उसी तेज की उपासना करता हो एवं भगवान को सदा साकार न मानता हो तथा उनकी उपासना न करता हो, तो हमें वह बात पसन्द नहीं है।

“दूसरी वार्ता यह है कि उन भगवान की प्रसन्नता के लिए जो भक्त तप तथा योगसाधना करता हो, पंचविषयों से उदासीन रहता हो तथा वैराग्यवान हो, आदि जो-जो साधन भगवान की प्रसन्नता के लिए निर्दम्भ होकर करता हो, तो वह हमें पसन्द है। तथा उसे देखकर हमारा मन प्रसन्नता से भर जाता है कि इसे धन्यवाद है, कि यह इस प्रकार आचरण करता है।

“इसके उपरांत इन पाँच वार्ताओं का हमें नित्य निरन्तर अनुस्मरण रहता है। उनमें से एक तो यह है कि हमें इस देह का त्याग करके अवश्य मर जाना है और उसमें घड़ीभर का विलम्ब मालूम नहीं होता। यह तो निश्चित ही प्रतीत होता है कि, ‘इसी घड़ी, इसी क्षण में हमें मरना है।’ और सुख-दुःख, प्रसन्नता तथा अप्रसन्नता आदि समस्त क्रियाओं में वैसा ही स्मरण रहता है, ऐसा वैराग्य मन में बना रहता है।

“दूसरा स्मरण यह रहा करता है कि हमें मरना तो अवश्य है, किन्तु इतना काम हो चुका है, तथा इतना बाक़ी है, उसे निपटाना है।

“तीसरा सदा स्मरण हमें यह रहता कि हम सोचते रहते हैं कि हमारे मन से पंचविषयों की वासना मिट चुकी है या नहीं? और, ऐसा प्रतीत है कि वह तो मिट चुकी है, तब यह विचार आता है कि पंचविषयों की जो क्रियाएँ हैं, वे क्यों हो रही हैं? अतः कदाचित् वह वासना न टली हो? ऐसा अविश्वास सदैव बना रहता है।

“चौथी बात यह है कि, ‘मुक्तानन्द स्वामी आदि बड़े बड़े साधुओं तथा अन्य बड़े बड़े हरिभक्तों के हृदय से पंचविषयों की वासना मिट गई या नहीं?’ तथा ऐसा देखता हूँ कि, ‘इसकी वासना मिट चुकी है,’ और ‘इसको इसकी वासना नहीं मिटी।’ इस प्रकार सबके हृदय के सामने देखते रहना यह ध्यान हमेशा बना रहता है।

“पाँचवाँ उस बात का स्मरण हमें निरंतर रहता है कि यदि मैं अपना मन उदासीन रखने लगूँ, तो न जाने कहाँ चला जाऊँ और यह देह भी छूट जाए। इसलिए ऐसा मानता हूँ कि, ‘मन में उदासीनता नहीं रखनी है।’ क्योंकि, हमारे योग से ये सब स्त्री-पुरुष, परमहंस प्रसन्न मन से भगवद्भक्ति करते रहते हैं, यह बहुत अच्छा है। इन्हें भगवद्भक्ति करते देखकर मन में बड़ी प्रसन्नता होती है कि मरना तो सबको है, परन्तु इस प्रकार भक्ति करना यही जीवन का सबसे बड़ा लाभ है। ऐसा स्मरण निरन्तर बना रहता है।”

इस प्रकार, श्रीजीमहाराज ने अपने भक्तों की शिक्षा के लिए अपना आचरण प्रस्तुत करके यह वार्ता कही। वास्तव में वे साक्षात् श्रीपुरुषोत्तम नारायण हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३० ॥ २५३ ॥

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