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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा अंत्य ३२
माहात्म्य की आड़ में पाप
संवत् १८८५ में माघ शुक्ला पंचमी (८ फरवरी, १८२९) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। उस समय परमहंस वसंतऋतु सम्बंधी कीर्तन कर रहे थे।
उस समय श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी आदि साधुओं से कहा कि, “‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।’२९३ इस श्लोक का अर्थ बताइए।”
तब उन्होंने रामानुजभाष्य-सहित उसका अर्थ बताया।
इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसके सम्बंध में हमने ऐसा निश्चय किया है कि युवा अवस्थावाले को आहार कम करना, और युक्ताहार-विहारपूर्वक रहना चाहिए। आहार के कम होने से ही देह का बल क्षीण होता है और तभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है, उसके बिना इन्द्रियों को नहीं जीता जा सकता। अतः इन्द्रियों को जीतकर ही अपने मन को भगवान की नवधा भक्ति में रुचिपूर्वक लगा रखें और भक्ति में प्रीति रखें, इन दो साधनों से सत्संग पार लग जाता है। यदि ऐसा न हुआ तो वह कभी न कभी निश्चित रूप से इन्द्रियों के वश में होकर कर्तव्यविमुख हो जाता है। इसमें गोवर्धन (एक भक्त) जैसे समाधिनिष्ठ को भी भय रहता है, तब दूसरों की तो बात ही क्या है? और, अति आहार की वृत्ति को नियम में लाने के लिए लगातार उपवास करना प्रारंभ कर दे, यह भी कोई ठीक उपाय नहीं है। उस प्रकार तो आहार की तृष्णा बढ़ जाती है, तथा आहार में वृद्धि हो जाती है और पारणा के दिन दूना आहार करने लगता है। इसलिए, जैसे बादल धीरे धीरे झीनी झीनी बूँदों से बरसते हैं, परन्तु पानी विपुल मात्रा में होता है। उसी प्रकार धीरे धीरे आहार का नियमन करते रहने से इन्द्रियाँ नियमबद्ध होती हैं और भक्ति में प्रीति होने पर सत्संग पार लग जाता है। यही वार्ता सत्य है।”
इतने उपदेशवचनों के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान के सच्चे भक्त को भगवान का माहात्म्य कैसे समझना चाहिए? तो उसे इस प्रकार समझना चाहिए कि भगवान अपने तेजोमय अक्षरधाम में साकार मूर्तिमान विराजमान रहते हैं। वे सबके कारण, सबके नियन्ता तथा सबके अन्तर्यामी हैं। वे अनेक कोटि ब्रह्मांडों के राजाधिराज हैं, अलौकिक, दिव्य आनन्दमूर्ति हैं तथा माया के गुणों से रहित हैं। इस प्रकार सच्चा भक्त प्रत्यक्ष भगवान को जानकर बिना भगवान के अन्य समस्त मायिक वस्तुमात्र को अतिशय तुच्छ तथा नाशवंत समझता है और एकमात्र भगवान में ही प्रीति रखता है तथा भगवान की नवधा भक्ति करता है। वह यह समझता है कि, ‘ऐसे भगवान की मर्यादा का पालन तो काल, माया, ब्रह्मा, शिव, सूर्य तथा चन्द्रमा आदि समर्थ होने पर भी निरन्तर करते रहते हैं।’ ऐसा समझकर भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्ममर्यादा में वह भक्त भगवान की प्रसन्नता के लिए स्वयं निरन्तर आचरण करता रहता है, किन्तु धर्म-मर्यादा का लोप वह कभी नहीं करता। परंतु जिसकी कुबुद्धि हो, वह ऐसा समझता है कि, ‘ऐसे महान भगवान तो पतितपावन हैं और अधमों के उद्धारक हैं। अतः यदि कोई धर्म के विरुद्ध अनुचित आचरण हो जाएगा, तो उसकी क्या चिन्ता है? भगवान तो समर्थ हैं।’ इस प्रकार माहात्म्य की आड़ लेकर जो पुरुष पाप करने से बिल्कुल नहीं हिचकते, ऐसे मनुष्य तो दुष्ट और पापी हैं। जो ऐसी समझवाला हो और बाह्यरूप से भक्त-जैसा दिखाई पड़ता हो, तो भी उसे भक्त नहीं समझना तथा उसका संग कभी नहीं करना। भक्त तो उसे ही समझना, जिसके सम्बंध में पहले बताया गया है, और संग भी उसी का करना।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ३२ ॥ २५५ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२९३. अर्थ के लिए देखें: वचनामृत लोया १० की पादटीप।