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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३४

भगवान के प्रति वासना के उपाय

संवत् १८८५ में चैत्र शुक्ला तृतीया (६ अप्रैल, १८२९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज से शुकमुनि ने पूछा कि, “भगवान के सिवा अन्य मायिक वस्तुमात्र में वासना न रहे, तथा एकमात्र भगवान में ही वासना रहे, इसके दो साधन दिखाई पड़ते हैं। जिनमें से एक तो भगवान में प्रीति, तथा दूसरा ज्ञानसहित वैराग्य। अब प्रश्न यह है कि जिसे भगवान का निश्चय और विश्वास तो सुदृढ़ होता है, परन्तु पूर्वोक्त दो साधनों की अतिशय दृढ़ता नहीं होती, ऐसे भक्त को बिना भगवान के अन्य पदार्थ की वासना रहे ही नहीं, ऐसा तीसरा कोई उपाय है या नहीं?”

प्रश्न सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “आपका प्रश्न यथार्थ है। प्रीति एवं ज्ञानसहित वैराग्य के द्वारा ही ऐसी स्थिति संभव होती है कि उसे भगवान में ही वासना रहती है, तथा अन्य पदार्थों में वासना नहीं रहती। इन दोनों साधनों के बिना अन्य पदार्थों की वासना के कारण ऐसा पुरुष जीते जी ही दुःखी रहता है। परन्तु यदि उसे भगवान के स्वरूप का निश्चय है, अतः उसके देहान्त के बाद भगवान उसका कल्याण अवश्य करते हैं। अतः भगवान के सिवा अन्य वस्तुओं की वासना को टालने के लिए उपरोक्त दो के उपरांत एक तीसरा भी साधन है, और वह है नियम पालन की दृढ़ता।

“जिन गृहस्थों अथवा त्यागियों के लिए जो भी नियम बताए गए हैं, उन नियमों का सावधानी के साथ पालन करे तो अन्य पदार्थों से आसक्ति दूर जाती है। वे नियम कौन-से हैं? तो सबसे पहले स्वधर्म सम्बंधी नियम है। जिस प्रकार आत्मनिवेदी साधु- ब्रह्मचारियों के नियम हैं, वैसे ही नियम जो आत्मनिवेदी न हो वह भी रखे तथा स्त्रियों को न देखना, उनकी बातें न सुनना आदि नियम रखे, एवं पंचविषयों के त्याग सम्बंधी नियमों का भी पालन दृढ़तापूर्वक सावधान होकर करे; तथा भगवान एवं भगवान के भक्त की देह से सेवा किया करे, और भगवान की कथा को सुने इत्यादि नवधा भक्ति सम्बंधी नियमों का पालन करता रहे, तब उसके मन में भी शुभ संकल्प प्रकट होने लगते हैं। इस तरह धर्म एवं भक्ति सम्बंधी दो प्रकार के नियमों का पालन करे, तो उसे वैराग्य और भगवान से प्रीति कदाचित् न भी हों, फिर भी उसमें दोनों गुण उदित होते हैं और उस भक्त का जीव अति बलिष्ठ हो जाता है, और उसकी पदार्थों में अशुभवासना मिट जाती है तथा एक भगवान के प्रति ही वासना दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहती है।”

फिर श्रीजीमहाराज से शुकमुनि ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! क्रोध किससे उत्पन्न होता है? तो स्वयं को जिस वस्तु की कामना हो और जिन पदार्थों में ममत्व हो, उसे यदि कोई तोड़ डाले, तो उसे क्रोध उत्पन्न होता है, और कामना जो भौतिक इच्छाएँ हैं, उनका भंग ही क्रोध में निमित्त बन जाता है। परन्तु कोई ऐसी स्थिति के रहते हुए भी क्रोध उत्पन्न न हो, ऐसा कोई उपाय है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “बड़े सन्त ने भगवान की आज्ञा से अथवा शास्त्रदृष्टि द्वारा माहात्म्य जानकर अनेक जीवों को धर्ममर्यादा में रखने के लिए तथा भगवान की प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए शुभ संकल्प किया हो और ऐसी ही प्रवृत्ति करते रहे हों, उस समय यदि कोई भी जीव धर्ममर्यादा का भंग करके अधर्म की प्रवृत्ति कर बैठे, तब सत्पुरुष को उस जीव पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है, क्योंकि उसने उनके ही शुभ संकल्प को मिट्टी में मिला दिया। इसलिए उसे धर्ममर्यादा में रखने के लिए अगर वे क्रोधपूर्वक शिक्षा की बात न करें, तो मर्यादा-भंग होता ही रहता है और अंततोगत्वा उस जीव का कुछ भी हित नहीं होता। इसलिए, इस प्रकार का क्रोध हो तो उचित ही है, इसमें कोई हानि नहीं है। क्योंकि ऐसे मार्ग में प्रवृत्त हो रहे सत्पुरुष के आश्रय में सहस्रों भक्त रहते हैं, उसे बिना कुछ क्रोध किए कैसे चल सकता है?

“और, क्रोध तो तब उत्पन्न नहीं होता, जब उस चीज़ का परित्याग कर दिया जाए कि जिससे वह उत्पन्न हुआ है। अथवा एकाकी होकर वन में चला जाए, तब किसी पर क्रोध करने की संभावना नहीं रहती; परन्तु ऐसा वे कैसे कर सकते हैं? क्योंकि सत्पुरुष का उद्देश्य अनेक जीवों को उपदेश देकर उन्हें भगवत्सम्मुख करना यही है, जिससे कि उन जीवों का कल्याण हो। शास्त्र की दृष्टि से भी वे जीव को उपदेश देना, ऐसी भगवान की आज्ञा का महत्त्व समझते हैं। अतः क्रोध करके भी कभी अपने जीव-हित के शुभ संकल्प का परित्याग करते ही नहीं!

“और, किसी साधक को किन्हीं महान साधु से स्नेह बंध गया हो, और उन्हीं की शरण में उसने अपने कल्याण का स्वार्थ माना हो और वह यह समझता हो कि, ‘इन साधु से ही मेरा कल्याण होगा,’ तो चाहे जितना वह क्रोधी क्यों न हो, परन्तु उसे कभी भी उन बड़े साधु पर क्रोध नहीं होगा। वरना वह अपने क्रोध को ही छोड़ देगा। इस तरह क्रोध नष्ट होता है।

“और, जो पदार्थों की लेनदेन और तुच्छ वस्तुओं की प्राप्ति के लिए किसी साधु से क्रोध करता है, उसे तो साधु का माहात्म्य और सन्तत्व का मार्ग समझ में ही नहीं आया है। यदि उसने यह बात समझ ली होती, तो वह तुच्छ पदार्थों के लिए क्रोध नहीं करता। यदि कोई बुद्धिमान होने पर भी तुच्छ पदार्थों के लिए साधु के प्रति क्रोध करता हो, तो उसकी बुद्धि राजा के कर्मचारी जैसी व्यवहार प्रधान बुद्धि ही समझना चाहिए। परन्तु साधुता सम्पन्न बुद्धि और विवेक तो उसमें आया ही नहीं है, ऐसा समझना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३४ ॥ २५७ ॥

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