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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३५

भक्त के द्रोह से भगवान का द्रोह

संवत् १८८५ में चैत्र शुक्ला नवमी (१२ अप्रैल, १८२९) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष साधुगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज से शुकमुनि ने पूछा कि, “हे महाराज! जिसके हृदय में भगवान और भगवान के भक्त का ऐसा दृढ़ आश्रय हो, जो कभी न मिटे, चाहे उसे कैसा भी आपात्काल आ जाए और देह को चाहे जितना सुख-दुःख हो, या मान-अपमान हो, एवं देश-काल की चाहे जितनी विषमता आ जाए, फिर भी न मिटे ऐसे दृढ़ भगवदाश्रय को कैसे विदित किया जा सकता है कि उस भक्त को ऐसा ही दृढ़ आश्रय है? तथा ऐसे अनन्य शरणागत के मन का अभिप्राय एवं देह का आचार कैसा होता है? यह भी बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिस भक्त के हृदय में एकमात्र भगवान की ही महानता बसी हो, और वह भगवान से विशेष अन्य किसी भी चीज़ को न गिनता हो, भगवान के सिवा अन्य वस्तुओं को तुच्छ मानता हो तथा भगवान और साधु उस भक्त को उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार न चलने दें और प्रकृति के विपरीत आचरण कराए फिर भी वह उद्विग्न न हो, तथा चाहे जितनी जड प्रकृति हो, उसे छोड़कर जो भगवान और सन्त के कहने के अनुसार सरल होकर रहे, ये दो प्रकार की जिसे समझ हो, उसके सिर चाहे कितना ही बुरा आपात्काल आ गिरे, वह किसी हालत में भगवान का आश्रय नहीं छोड़ता।”

तब शुकमुनि ने पुनः पूछा कि, “प्रकृति के प्रतिकूल आचरण कराए जाने पर जीव को व्यग्रता तो होती है, परन्तु उस व्यग्रता के प्रकार में कोई अन्तर होता है या नहीं?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “स्वाभाविक प्रकृति को छेड़े जाने से उसकी व्यग्रता तो होती ही है, पर ऐसे समय वह अपने ही अवगुणों को देखे, परन्तु भगवान और सन्त पर दोष न मढ़े वही भक्त अच्छा भक्त है। परन्तु यदि वह अपने अवगुणों को न मानकर भगवान और सन्त का दोष देखता है, तो हमें उस पर विश्वास नहीं आता। तथा ऐसे अवगुणग्राही भक्त की शरणागति का भी कोई ठिकाना नहीं रहता!”

शुकमुनि ने पुनः पूछा कि, “जिसकी जो प्रकृति है, उसे यदि भगवान तथा सन्त ने कभी भी छेड़ा न हो, तब वह अपने मन में यह कैसे समझ सकता है कि, ‘यदि मेरी प्रकृति को छेड़ा गया, तो मेरा ठिकाना नहीं रहेगा!’ क्योंकि जिस बात का स्वयं को अनुभव ही न हो, उस पर उसका विश्वास कैसे हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उस पुरुष को अपने मन के संकल्पों पर गहरी दृष्टि रखनी चाहिए कि, ‘मेरे मन में भगवान के सिवा अन्य पंचविषयों के भोगों में कौन-से विषय की वासना प्रबल है, और किस विषय का बलवत्तर संकल्प होता है?’ ऐसी गहरी दृष्टि रखने पर उसे मालूम हो जाता है कि मैं कैसा हूँ। इसके सिवा स्वयं की पहचान नहीं हो पाती। उसे विचार इस प्रकार करना होता है कि, ‘इस पदार्थ की मुझे तीव्र वासना है, अतः सन्त यदि मेरी इस प्रकृति को छेड़ेंगे, तब मेरा ठिकाना कैसे रहेगा?’ इस प्रकार वह अपने आपको पहचानेगा, ऐसी स्थिति में ऐसा भी हो सकता है कि भगवान या साधु कभी जीवनभर उसकी प्रकृति को छेड़ते ही नहीं! तब तो सत्संग में उसकी नैया पार लग जाती है, परन्तु यदि उसकी प्रकृति को बदलने के लिए रुकावट डाली, तो अन्त में उसको भारी विघ्न उपस्थित हो जाता है, तथा वह अत्यंत उद्विग्न होकर सत्संग से विमुख हो जाता है।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “साधु के द्रोह का पाप शास्त्रों में अन्य पापों की अपेक्षा घोर पाप बताया है। क्योंकि साधु के हृदय में साक्षात् श्रीकृष्ण भगवान रहते हैं। इसलिए, साधु का द्रोह हुआ, तो भगवान का ही द्रोह हो जाता है। उस साधु के द्रोह से उनके हृदय में निवास करनेवाले भगवान दुःखित होते हैं। इस प्रकार, भगवान का द्रोह करना अधिक पाप है, और वह अन्य पापों की अपेक्षा घोर पाप बताया गया है।

“और, यद्यपि कंस, शिशुपाल तथा पूतना आदि दैत्यों ने स्वयं भगवान का द्रोह किया था, फिर भी भगवान ने उनका कल्याण भक्तों के समान ही किया, इसका क्या अभिप्राय है? तो इन दैत्यों ने वैरबुद्धि से भी भगवान का चिन्तन किया, तब भगवान ने यह समझा कि, ‘इन दैत्यों ने वैरबुद्धि से भी मेरा चिन्तन किया है, और ये मेरे सम्बंध में आ गये हैं, अतएव मुझे इनका भी कल्याण करना चाहिए।’ यहाँ तो इन असुरों पर भगवान की दया का आधिक्य समझना चाहिए।

“इस बात पर भी ध्यान देना कि इन दैत्यों ने वैरबुद्धि द्वारा भी जब भगवान से लगाव किया, तब भगवान ने उनका भी कल्याण कर दिया, तब जो भक्त भक्तिभाव से उनका आश्रय ग्रहण करेगा और उन्हें प्रसन्न करेगा, तो भगवान उसका कल्याण क्यों नहीं करेंगे? अवश्य करेंगे। इस प्रकार भगवान की अति दयालुता का परिचय देते हुए शास्त्रकारों का यही अभिप्राय है कि सभी मनुष्य भगवान की भक्ति में लग जाए। परन्तु, वैरबुद्धि द्वारा भी कल्याण हो, इस कथन का यह अर्थ कभी नहीं करना कि, ‘दैत्यों के समान भगवान का अप्रिय ही करते रहना!’ इस दृष्टि से जो भी भगवान के प्रति वैरभाव रखकर उनसे द्रोह करते हैं और भगवान के अप्रिय अवांछनीय कर्म करते हैं, उन्हें तो ‘दैत्य’ ही समझना। क्योंकि यह पक्ष तो दैत्यों का है। अतः हमें तो भगवान की इच्छा के अनुसार ही सदाचरण पूर्वक भक्ति करते रहना चाहिए। भगवान एवं उनके भक्तों को प्रसन्न करना, यही भगवान के भक्तों का अभिप्राय है।”

पुनः शुकमुनि ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “हे महाराज! साधु के हृदय में भगवान निवास करते हैं तथा उनके द्रोह करने से भगवान का द्रोह हो जाता है और उनकी सेवा करने से भगवान की सेवा होती है, ऐसे साधु के क्या लक्षण हैं? यह बताइए।”

यह प्रश्न सुनकर श्रीजीमहाराज कुछ समय तक विचारमग्न रहे, तत्पश्चात् कृपा करके बोले कि, “ऐसे साधु का मुख्य लक्षण यह है कि वह भगवान को कभी निराकार नहीं समझते, बल्कि वे भगवान को सदैव दिव्य साकारमूर्ति मानते हैं। वह साधु चाहे कितने ही पुराण, उपनिषद तथा वेद आदि ग्रन्थों का श्रवण करे, और उन ग्रन्थों के द्वारा यदि भगवान के निराकार स्वरूप की कुछ बातें उनके सुनने में आएँ तो भी वह यही समझते हैं कि, ‘या तो हमें इन शास्त्रों का अर्थ समझ में नहीं आता, अथवा इनमें कुछ अलग रीति से यह कैसा भी कहा होगा! फिर भी, भगवान तो सदैव साकार ही है।’ यदि वह भगवान को साकार नहीं समझते तो उनकी उपासना की दृढ़ता नहीं कही जा सकती। यदि भगवान का स्वरूप साकार न हो तो उनको ‘कर्ता’ नहीं कह सकते। जिस प्रकार आकाश को अरूप होने के कारण उसमें कर्तृत्वभाव नहीं कहा जाएगा, उसी प्रकार भगवान में भी कर्ताभाव तथा एकदेशस्थभाव नहीं कह सकते। इसलिए, ऐसे सन्त समझते हैं कि भगवान सदैव साकार ही हैं तथा अनेक ब्रह्मांडों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं। वे सर्वदा अपने अक्षरधाम में विराजमान रहते हैं तथा राजाधिराज हैं। वे ही प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार की समझ को जो सुदृढ़ रखता है, तथा उस समझ से कभी विचलित नहीं होता, यह सन्त का प्रथम लक्षण है।

“दूसरा लक्षण यह है कि ऐसे परात्पर भगवान की एकान्तिक भक्ति करते हैं, तथा और कोई भी उन भगवान का नामस्मरण तथा कीर्तनादि कर रहा हो, तो वे सन्त उसे देखकर मन में अति प्रसन्न होते हैं।

“तीसरा लक्षण तो यह है कि भगवान के भक्तों के मध्य रहना हो, तो उसके लिए अपने स्वभाव को बाधक नहीं बनने देते। यदि ऐसा स्वभाव हो, तो उस स्वभाव का परित्याग कर दे, परन्तु भगवद्भक्त के संग का परित्याग न करे। यदि बड़े सन्त अपने स्वभाव की आलोचना करे, तो उनके प्रति दुर्भावना न हो बल्कि अपने ही स्वभाव को उत्तरदायी समझे, परन्तु उद्विग्न होकर भक्त-समूह से दूर रहने का संकल्प भी मन में न करे और भक्तों के समुदाय में ही अपना आनन्द माने, ये पूर्वोक्त सन्त का तीसरा लक्षण है।

“चौथा लक्षण यह है कि यदि उन्हें अच्छा वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन, निर्मल जल अथवा जो भी अन्य अच्छे-अच्छे पदार्थ प्राप्त हों, तो वह मन में ऐसा संकल्प करें कि, ‘इन पदार्थों को यदि मैं भगवान के भक्त को अर्पित कर दूँ तो ठीक रहेगा।’ इस प्रकार उन पदार्थों को भगवद्भक्त की सेवा में देकर प्रसन्न रहते हों, ये सन्त का चतुर्थ लक्षण है।

“पाँचवा लक्षण यह कि वह इस तरह भक्तों के समुदाय में रहता हो, फिर भी किसी को उसके प्रति ऐसा विचार न आए कि, ‘यह तो कितने ही वर्षों तक साथ में रहा, फिर भी इसके हृदय की कुछ भी थाह नहीं लग पाई! कौन जाने यह कैसा होगा? इसका तो कोई भेद भी मालूम नहीं पड़ता!’ ऐसी धारणा उसके प्रति कभी किसी को नहीं पैदा होती। इस प्रकार वह सरल स्वभाव का हो, और आन्तरिक एवं बाह्यरूप से वह जैसा हो, उसे सब लोग जानते हों कि, ‘यह तो ऐसा है!’ इस प्रकार का सरल स्वभाव वाला हो।

“छठा लक्षण यह है कि वह शान्त स्वभाववाले हों, फिर भी कुसंगी का संग उन्हें तनिक भी पसन्द न हो। यदि भगवान से विमुख का संग हो भी गया, तो वह तुरन्त क्रुद्ध होकर उससे दूर रहेगा। इस प्रकार विमुख के संग से उनकी स्वाभाविक अरुचि रहती हो। इन छः लक्षणों से युक्त साधु के हृदय में भगवान बिराजमान रहते हैं। ऐसा समझना चाहिए। यदि कोई ऐसे साधु का द्रोह करता है, तो उसे भगवान के द्रोह करने के सदृश पाप लगता है। यदि कोई इन साधु की सेवा करता है, तो उसका फल भगवान की सेवा करने तुल्य प्राप्त होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३५ ॥ २५८ ॥

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