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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३६

कल्याण का असाधारण साधन

संवत् १८८५ में वैशाख शुक्ला प्रतिपदा (४ मई, १८२९) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन से घोड़ी पर सवार होकर श्रीलक्ष्मीवाड़ी में पधारे थे और वाड़ी के मध्य में स्थित चबूतरे पर विराजमान हुए थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त परमहंसों तथा हरिभक्तों से प्रश्न किया कि, “इस जीव के कल्याण का असाधारण साधन क्या है कि जिसके कारण निश्चितरूप से साधक का कल्याण हो जाए और उसमें किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो? साथ-साथ यह भी बताइए कि ऐसे कल्याण के साधन में बड़ा विघ्न कौन-सा है, जिसके कारण कल्याण के मार्ग से निश्चितरूप से पतन होता है?”

प्रश्न सुनकर सभी परमहंसों तथा हरिभक्तों ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार उत्तर दिया, किन्तु इस प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “कल्याण का असाधारण साधन यह है कि, पुरुषोत्तम भगवान को ब्रह्मज्योति के मध्य में विराजमान अनादि साकारमूर्ति समझें, और सब अवतार उनके ही हैं, यह समझकर उन प्रत्यक्ष भगवान का वैसी ही भाव से आश्रय ग्रहण करना और धर्म सहित भगवान की भक्ति करनी तथा ऐसी भक्तिवाले साधु का संग करना, यही कल्याण का असाधारण साधन है। उसमें दूसरे कोई विघ्न रुकावट नहीं डालते।

“फिर भी, उस साधन में बड़ा विघ्न यही है कि, ‘शुष्क वेदान्ती का संग करना।’ जो पुरुष उस शुष्क वेदांती का संग करता है, उसे उससे स्नेह हो जाता है। वह स्नेह भी उसके गुणों से आकृष्ट होकर होता है। जैसे कि किसी ने दुर्भिक्ष की स्थिति में उसकी अन्न-जल आदि से सहायता की हो, तो उसके साथ स्नेह होता है, क्योंकि उसका उपकार नज़र आता है। उसी प्रकार, जब वह शुष्क वेदांती ऐसा गुण दिखाता है कि, ‘आत्मा को तो जन्म-मरण है ही नहीं! क्योंकि, आत्मा तो निराकार है। वह चाहे कितने ही पाप करे, तो भी उसे दोष नहीं लगता।’ ऐसी बातें बनाकर वह भगवान की मूर्ति के आकार का ही खंडन कर देता है। यही उस मुमुक्षु के लिए बहुत बड़ा विघ्न है। क्योंकि वह भगवान की मूर्ति के सुख के मार्ग से गिर गया! अतः उस शुष्क वेदांती का संग कभी भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह शुष्क वेदांती तो घोर अज्ञानी है, और भगवान की भक्ति के मार्ग में इससे बड़ा कोई भी अन्य विघ्न नहीं है।”

इतनी वार्ता कहने के पश्चात् श्रीजीमहाराज पुनः दादाखाचर के राजभवन में पधारे। वहाँ उन्होंने पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर बैठकर इस प्रकार शिक्षावचन सुनाए कि, “हमने सभी शास्त्रों का श्रवण करके यह सिद्धांत निर्धारित किया है तथा इस पृथ्वी के सभी स्थानों में भ्रमण किया है तथा अनेक सिद्धपुरुषों को देखा है।”

इतना कहकर गोपालदासजी आदि साधु की बातें बताकर कहने लगे कि, “मैं तो यही समझता हूँ कि भगवान की मूर्ति की उपासना तथा उसका ध्यान इन दोनों के बिना आत्मा तथा ब्रह्म (परब्रह्म) को देखना बिल्कुल असंभव ही है। केवल उपासना द्वारा ही आत्मा एवं ब्रह्म के दर्शन हो सकते हैं, किन्तु बिना उपासना किए तो वे दिखते ही नहीं। और, उपासना के बिना आत्मा तथा ब्रह्म के दर्शन को चाहना, वह कैसा है? तो जिस प्रकार आकाश को जीभ से सौ वर्ष तक चाटा जाए, तो भी उससे कभी भी खट्टा-खारा स्वाद आता ही नहीं, उसी तरह भगवान की मूर्ति की उपासना किए बिना अन्य चाहे जितने उपाय किए जाए परन्तु आत्मा और ब्रह्म का साक्षात्कार होता ही नहीं है। और, निर्बीज (निरीश्वर) सांख्य तथा योग द्वारा आत्मा के दर्शन की जो बात शास्त्रों में बताई गई है, वह भले ही कही हों, परन्तु हमें ऐसा किसी को भी नहीं देखा है, और स्वानुभव में भी ऐसी बात का मेलजोल नहीं दिखता; अतः वह बात मिथ्या है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३६ ॥ २५९ ॥

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