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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २६

रसिक भक्त; निर्गुणभाव

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला एकादशी (२७ दिसम्बर, १८१९) को दोपहर के समय श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कक्षों के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सिर पर सफ़ेद पाग बाँधी थी, सफ़ेद धोती धारण की थी, सफ़ेद शाल ओढ़ी थी, दोनों कानों पर गुलदावदी के बड़े-बड़े दो पुष्प खोंसे थे और पाग में पुष्पों का तुर्रा लगाया था। उनके मुखारविन्द के समक्ष स्थान-स्थान के परमहंस तथा हरिभक्त बैठे थे। कुछ परमहंस पखावज लेकर कीर्तन कर रहे थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब कीर्तन बन्द करिये और हम ज्ञान वार्तारूपी जो कीर्तन करते हैं उसे सुनिये।”

परमहंसों ने कहा, “महाराज! बहुत अच्छा, आप बात करिये।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान का रसिक कीर्तन गाते हुए यदि एकमात्र भगवान के स्वरूप में ही रस का अनुभव करें तो ठीक है। किन्तु यदि भगवान के स्वरूप को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर (स्त्री आदि विषयों में) रस का अनुभव करें तो उसमें बड़ा दोष३८ है।

“क्योंकि, ऐसे भक्त को जिस प्रकार भगवान के शब्द के प्रति प्रेम होता है और उनके ही शब्दों में रस मालूम पड़ता है, वैसा ही रस सांसारिक गीतों और वाद्यतंत्रों के स्वर में अथवा स्त्री आदि के शब्दों में मालूम होने लगता है और उन्हीं से लगाव हो जाता है। ऐसे भक्त को अविवेकी समझना। भगवान अथवा उनके सन्त के वचनों में जैसा रसानुभव होता है वैसी ही समान रसानुभूति यदि उस भक्त को अन्य सांसारिक शब्दों में होती हो, तो ऐसी मूर्खता का परित्याग कर देना चाहिए। ऐसी मूर्खता को छोड़कर एकमात्र भगवान के शब्द में ही आनन्द मानना चाहिए। और ऐसा जो रसिक भक्त है, वही सच्चा भक्त है। वह शब्द तथा स्पर्श भी एकमात्र भगवान का ही हो ऐसी इच्छा रखे और अन्य स्पर्श को काले साँप तथा जलती अग्नि के समान समझे, तभी जानना कि यह रसिक भक्त पक्का है!

“इसके अतिरिक्त भगवान के रूप को देखकर जो भक्त आनन्दित होता है, उनके अलावा अन्य सभी रूप, उसे सड़े हुए कुत्ते के समान या नरक के ढ़ेर के समान लगे, वही पक्का रसिक भक्त है। उसी प्रकार भगवान के महाप्रसाद से ही जो परम आनन्द प्राप्त करे, परन्तु संसार के नाना प्रकार के अन्य रसों से आनन्दित न हो वही रसिक भक्त सच्चा! और भगवान को समर्पित तुलसी, पुष्पहार तथा नाना प्रकार की सुगंधवाले इत्र और चन्दन आदि सुगंध को ग्रहण करके जो भक्त परम आनंदित हो, परन्तु किसी अन्य विषयी जन ने अपने शरीर पर लगाए इत्र-चन्दन तथा उसके पहने हुए पुष्पहारों की सुगन्ध से जो भक्त प्रसन्न न हो, तो समझिए कि वह रसिक भक्त सच्चा है। इस प्रकार भगवान सम्बंधी पंचविषयों में अतिशय प्रीति करनेवाला तथा जगत सम्बंधी पाँच विषयों में अत्यन्त अनासक्त रहनेवाला ही सच्चा रसिक भक्त है।

“और रसिक भक्त होकर वह जैसे भगवान सम्बंधी विषय के योग से आनंद पाता है, उसी प्रकार जगत सम्बंधी अन्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध के भोग से आनन्दित होता है, तो वह झूठा रसिक भक्त है। क्योंकि जिस प्रकार वह भगवत्सम्बंधी विषय में आनन्दित हुआ, ठीक उसी प्रकार जगत्सम्बंधी विषयों में भी वह प्रसन्न हुआ! इसलिए, ऐसी झूठी रसिकता को और ऐसी उपासना को मिथ्या कर डालना चाहिए, क्योंकि भगवान का स्वरूप तो सत्य है, किन्तु ऐसे भक्त का भाव झूठा है, वजह यह है कि उसने जिस तरह अन्य पदार्थों को समझा, उसी प्रकार भगवान को भी मान लिया, इसलिए उसकी भक्ति तथा रसिकता मिथ्या कही गई।

“इस तरह जैसे स्थूल देह तथा जाग्रत अवस्था में पंचविषयों का विवेक बताया, वैसे ही अब सूक्ष्म देह और स्वप्नावस्था में सूक्ष्म पंचविषयों का भोग रहता है। उसके विषय में बताते हैं - जिसे स्वप्न में जब भगवान की मूर्ति को देखकर भगवान सम्बंधी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध द्वारा जैसा आनन्द प्राप्त होता है, वैसा ही सुख यदि स्वप्न में अन्य पंचविषयों को देखकर मिलने लगता है, तो उस भक्त की रसिकता झूठी है। और स्वप्न में केवल भगवान के सम्बंध से ही जो भक्त आनन्द पाता हो और अन्य विषयों का तो वमन किए गए अन्न की तरह जिसे अभाव रहता हो, तो वह रसिक भक्त सच्चा है।

“यदि ऐसी समझ न हो तो समझना कि उसे जो भगवान स्वप्न में दिखायी पड़े, वे स्वरूपतः सच्चे हैं, परन्तु उस भक्त को भगवान के प्रति जैसा प्रेम हो, वैसा ही प्रेम अन्य विषयों में भी है। अतः उसकी समझ मिथ्या है। और जो भक्त एकमात्र भगवान के स्वरूप में ही लुब्ध बनकर रहे और अन्य विषयों में आसक्त न हो, ऐसी समझ सच्ची है। और जब भक्त को केवल भगवान का ही चिन्तन रहता है, तब ऐसा चिन्तन करते-करते वह शून्य-भाव (अवस्था) को प्राप्त हो जाता है, तब उस भक्त को भगवान की मूर्ति के सिवा पिंड एवं ब्रह्मांड आदि कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। फिर ऐसे शून्य में भगवान की मूर्ति को देखने के प्रयास में प्रकाश दिखाई देता है, फिर उस प्रकाश में भगवान की मूर्ति दृश्यमान होती है।

“इसलिए, जिसे केवल भगवान के स्वरूप में ही प्रीति रहती हो वही पतिव्रता की भक्ति है। जब भी आप लोग रसिक भजन-कीर्तन गाते हैं, तब हम भी आँखें मूंदकर यही चिन्तन करते हैं। चाहे भले ही हमारा विचार थोड़ा ही है, किन्तु उन विचारों की धारा में भगवान के सिवा अन्य कुछ भी टिक नहीं सकता। भगवान के स्वरूप में रही हमारी रसमय प्रीति में यदि कोई विषय रुकावट डालने के लिए उपस्थित हो जाए, तो उस विषय का विनाश निश्चित ही है, ऐसा हमारा बलवान् विचार है। जिस प्रकार आप लोग भजन की रचना करते हैं, उसी प्रकार हमने भी आज जो बात कही, उसी का वार्तारूपी कीर्तन संजोकर रखा है और उसी का वर्णन आपके सामने किया है।” इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने स्वयं को निमित्त बनाकर अपने भक्तों के लिए इस बात को विस्तार से समझाया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


३८. राधा, लक्ष्मी आदि भगवान के स्त्री भक्तों के स्वरूप का वर्णन करनेवाले कीर्तन रसिक कीर्तन हैं। ऐसे कीर्तन गानेवाले का लक्ष्य बदल जाने से उसे कल्याण मार्ग से पतन होने का दोष लग जाता है, यही भावार्थ समझना।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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