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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३७

दरिद्रता में पूर्व सुखानुभूति का स्मरण

संवत् १८८५ में वैशाख शुक्ला तृतीया (६ मई, १८२९) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में गद्दी पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त साधुओं तथा हरिभक्तों से कहा कि, “जिसे भगवान के स्वरूप का यथार्थ (निश्चयात्मक) ज्ञान एक बार हो गया और बाद में यदि उसके लिए देश, काल, क्रिया और संग विषम हो जाए, परन्तु वह ज्ञान लेशमात्र भी नहीं मिट पाता। यहाँ दृष्टांत है: जैसे कोई महान राजा हो अथवा कोई बड़ा लखपति साहूकार हो और प्रारब्ध के अनुसार यदि उसकी सत्ता चली गई और वह दरिद्र हो गया तथा उसे रूखा-सूखा अन्न खाना पड़े अथवा बथुआ की भाजी, कैथ, बेर तथा पकाए हुए पाकड़ के फल आदि मामूली चीजें खाने को मिलें तो वह उन्हें खाता तो अवश्य है, परन्तु पहले खाई हुई स्वादिष्ट चीजें-मेवा और मूल्यवान खाद्य पदार्थ तो वह कभी नहीं भूल पाता और मन ही मन विचार करता रहता है कि, ‘पहले तो मैं बहुत अच्छे स्वादिष्ट पदार्थ खाया करता था, किन्तु अब रूखा-सूखा खाता हूँ।’ इस प्रकार जब जब वह ऐसी चीज़ें खाता है, तब तब उसे अपने पहले के सुखमय जीवन की यादें आ जाती हैं। और, जिसने पहले से ही रूखा-सूखा खाया हो, उसे यदि घोर दरिद्रता आ जाए, उस समय भी रूखा-सूखा ही खाता हो, तब उसे कहाँ से वैसी यादें आएँगी?

“उसी प्रकार, जिसने भगवान के स्वरूप का आनन्द एवं भगवद्भजन का सुख मन में एक बार यथार्थरूप से अनुभव कर लिया, और बाद में उसे यदि सत्संग का संपर्क न भी रहा, या सत्संग से बाहर निकल जाना पड़ा, परन्तु वह उस आनन्द का स्मरण करके प्रारब्धानुसार सुख-दुःख को भोगता है, किन्तु उस आनन्द को वह नहीं भूलता। परन्तु जिसने पहले कभी भगवान के सुख को जाना नहीं है और उसका अनुभव ही नहीं किया, उसे उसका स्मरण कैसे हो सकता है? वह तो मनुष्य होते हुए भी पशु के समान है।

“अब भगवान के स्वरूप का ज्ञान किस प्रकार से समझना चाहिए, यह बताते हैं: भगवान का जैसा स्वरूप है, वैसा प्रकृति से उत्पन्न अन्य देव-मनुष्यादि में से किसी का भी आकार नहीं है। और एक भगवान के सिवा अन्य सभी को काल नष्ट कर देता है, एक भगवान के स्वरूप के आगे काल का सामर्थ्य नहीं चलता। अतः भगवान के समान तो केवल एक भगवान ही हैं, अन्य कोई नहीं है। और, भगवान के धाम में भगवान के साधर्म्य को प्राप्त हुए जो भक्त हैं, उनका आकार भी भगवान के सदृश है, फिर भी वे पुरुष हैं (अर्थात् अक्षरमुक्त हैं) किन्तु भगवान तो पुरुषोत्तम हैं और उन सभी अक्षरमुक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे भगवान, उन पुरुषों के उपास्य हैं और सबके स्वामी हैं। उन भगवान की महिमा का कोई पार ही नहीं पा सकता। ऐसे दिव्यमूर्ति भगवान निर्गुण हैं, वे ही ध्येय हैं। जो पुरुष उनका ध्यान करता है, वह निर्गुण हो जाता है, ऐसा भगवान का स्वरूप है। और, वे भगवान स्वयं अपने धाम में एकदेशस्थ रहते हुए ही अन्वयभाव से अनेक ब्रह्मांडों में निवास करनेवाले समस्त जीवों के समूह को उनके कर्मों के अनुसार फलप्रदान करने के लिए अन्तर्यामीरूप से रह रहे हैं। वे सब जीवों के जीवन हैं। उनके बिना यह जीव कुछ भी करने और भोगने को समर्थ नहीं हो पाता। वे भगवान स्वयं सिद्धेश्वर हैं; जैसे कोई सिद्ध एक स्थान पर बैठा हुआ भी ब्रह्मलोक के पदार्थ को अपने हाथों से ग्रहण कर लेता है, वैसे ही भगवान भी एकदेशस्थ होने पर भी अपनी योगकला के सामर्थ्य से समस्त क्रियाओं को करते रहते हैं।

“और, जिस तरह काष्ठ और पाषाण में रहनेवाली अग्नि के स्वरूप का प्रकार एक तरह का होता है, तो उन दोनों का अपना स्वरूप दूसरी तरह का होता है। वैसे ही जीवों में निवास करनेवाले भगवान का स्वरूप अन्य प्रकार का है, तथा उस जीव का स्वरूप दूसरी तरह का है। ऐसे अनन्त ऐश्वर्यवाले ये भगवान ही स्वयं जीवों के कल्याण के लिए मनुष्य सदृश हो जाते हैं। जिसे उन भगवान के स्वरूप का ज्ञान इस प्रकार हुआ हो तथा उन भगवान की भक्ति जिसने की हो, फिर ऐसे ज्ञान-भक्ति के आनन्द का अनुभव एकबार अपने जीव में यथार्थरूप से हुआ हो तो उस मुमुक्षु को उस सुख की विस्मृति कभी भी नहीं होती। चाहे कितने ही सुख-दुःख भोगने पड़ें, तो भी उसे भगवान के स्वरूप के सुख का विस्मरण नहीं होता, जैसे पूर्वोक्त महान राजा अपने पूर्वसुख को दरिद्रता की स्थिति में भी नहीं भूलता।

“हम यह वार्ता किसलिए करते हैं? तो ऐसे सत्संग का योग अभी तो है, परन्तु कदाचित् देश, काल तथा प्रारब्ध की विषमता से पुनः ऐसा संपर्क उपलब्ध न रहा, तब यदि ऐसी वार्ता समझकर आत्मसात् की हो, तो उस जीव का कल्याण हो जाता है। यदि उसे ऐसा दृढ़ निश्चय हो गया हो, तो वह ऐसा कभी भी नहीं मानेगा कि, ‘मेरा कभी अकल्याण होगा।’ और ऐसा योग कायम बना रहे, वह तो बहुत दुर्लभ है और इस प्रकार देह से आचरण करना भी दुर्लभ है। क्योंकि कभी सत्संग से बाहर निकलना पड़े तो देह से ऐसा आचरण करना असंभव है। अतः इस वार्ता को जिसने समझ रखा हो तो उसके जीव का बहुत बड़ा कल्याण हो जाएगा। इसलिए, यह वार्ता कही है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३७ ॥ २६० ॥

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