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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३८

सांख्य तथा निरंतर सुख!

संवत् १८८५ में वैशाख शुक्ला चतुर्दशी (१७ मई, १८२९) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमने सांख्यादि शास्त्रों पर विचार करके ऐसा निश्चय किया है कि माया के कार्य से उत्पन्न सभी आकार मिथ्या हैं। क्योंकि, वे सब आकार तो काल के प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं। किन्तु, भगवान के अक्षरधाम में स्थित भगवान का आकार तथा उन भगवान के पार्षद मुक्तजनों के आकार तो सत्य हैं, दिव्य हैं, और अतिशय प्रकाशयुक्त हैं। तथा वे आकार पुरुष के समान द्विभुज हैं और सच्चिदानन्द रूप हैं। और, उस अक्षरधाम में निवास करनेवाले भगवान की सेवा उन मुक्तपुरुषों द्वारा नाना प्रकार के दिव्य उपचारों द्वारा की जाती है, तथा वे भगवान भी उन मुक्तपुरुषों को परम आनन्द प्रदान करते हुए वहाँ सदैव विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वोपरि पुरुषोत्तम भगवान स्वयं दया करके जीवों के कल्याण के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट हुए हैं और सभी जनों के दृष्टिगोचर हो रहे हैं। वही आप सबके इष्टदेव हैं और आप सबके द्वारा हो रही सेवा को अंगीकार करते हैं। और ऐसे जो प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान के स्वरूप में तथा अक्षरधाम में निवास करनेवाले भगवान के स्वरूप में कोई भी भेद नहीं है, वे दोनों एक ही हैं। ऐसे ये प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान तो अक्षरादि सभी के नियन्ता हैं तथा ईश्वरों के भी ईश्वर हैं और समस्त कारणों के भी कारण हैं। वे सर्वोपरि हैं और समस्त अवतारों के अवतारी हैं। ये भगवान ही आप सबके लिए एकान्तिक भाव से उपासना करने योग्य हैं। इन भगवान के इससे पहले अनेक अवतार हो चुके हैं, जो कि वंदनीय एवं अर्चनीय हैं।”

फिर श्रीजीमहाराज ने यह वार्ता भी कही कि, “जिसे द्रव्यादि का लोभ हो, स्त्रियों के बीच बैठने-उठने की वासना हो, स्वादिष्ट पदार्थों में जिह्वा की आसक्ति हो, देहाभिमान हो, कुसंगी से स्नेह रहा करता हो तथा सम्बंधियों से स्नेह-भाव हो - जीवन में ये छः बाबतें बनी रहती हैं, उसे जीते जी और मरने के बाद भी कभी सुख मिलता ही नहीं! इसलिए, जिसको सुख की इच्छा हो, वह अपने में ऐसे स्वभाव हो, तो उसका त्याग कर दें, और निवृत्ति-परायण हो जाए। उसे तो अपने समवयस्कों का संग भी नहीं रखना चाहिए। और, जो देहाभिमानरहित हैं, तथा वैराग्यवान हैं और भगवान के अल्प वचन के पालन में क्षति हो जाए, तो उसे बड़े वचन के पालन में भंग हुआ ऐसा समझता हैं, ऐसे भगवद्भक्त महान साधु के साथ अपने जीव को जड़ देना चाहिए; तथा मन, कर्म और वाणी से उन्हीं के वचन में रहना चाहिए। और, विषयों के सम्बंध से दूर ही रहना चाहिए, परन्तु अपने नियमों का त्याग करके विषयों का सम्बंध कभी नहीं होने देना चाहिए। यदि कोई विषय से सम्बंध रखने लगेगा तो उसका तो ठिकाना ही नहीं रहेगा, यह सिद्धान्त वार्ता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३८ ॥ २६१ ॥

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