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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३९

आत्मा-परमात्मा का चिंतनसातत्य

संवत् १८८६ में आषाढ़ कृष्णा दशमी (२५ जुलाई, १८२९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त परमहंसों और सत्संगियों के सामने यह वार्ता कही कि, “भगवान की माया क्या है? तो देह में अहंबुद्धि तथा शरीर सम्बंधी पदार्थों में ममत्वबुद्धि ही माया है। अतः इस माया से मुक्त होना चाहिए। जिसने इस माया को नष्ट किया, वह माया-पार हो चुका है। इस माया से मुक्त होकर भगवान से प्रीति करना ही समस्त शास्त्रों का सिद्धान्त है। भले ही इसे आज समझ लें या अनेक दिनों के बाद समझें।

“हनुमान, नारद तथा प्रह्‌लाद जैसे जो महान भगवद्भक्त हैं, उन्होंने भी भगवान से यही माँगा है कि, ‘हे भगवान! अहं-ममत्वरूपी माया से हमारी रक्षा करिएगा और आपसे प्रीति बनी रहे तथा उन साधु का संग बना रहे जो इस माया को तैर गए हैं और जो आपसे प्रीति रखे हुए हैं। ऐसे ही साधु से हमारा स्नेह तथा ममत्व बना रहे।’ अतएव, हमें भी उन भक्तों के समान ही करना और यही माँगना तथा ऐसे शब्दों का ही श्रवण, मनन एवं निदिध्यास करना चाहिए।

“और, भगवान के भक्त को आत्मनिष्ठा का बल तथा भगवान के माहात्म्य का बल ये दो बल चाहिए। इसमें आत्मनिष्ठा क्या है? तो अपनी आत्मा को देह से पृथक् जानना ही आत्मनिष्ठा है। यदि साधु के साथ रहते हुए उनसे परस्पर किसी निमित्त कहासुनी हो जाए, तथा कुछ अहंता-ममता होने का प्रसंग खड़ा हो जाए तथा मान, क्रोध, स्वाद, लोभ, काम, मत्सर और ईर्ष्या आदि दुर्गुणों की प्रवृत्ति हो जाए, तब यदि स्वयं को अपनी आत्मा न जानता हो, तो उसे साधु के प्रति दुर्भाव हो जाता है। जिसके फलस्वरूप उस जीव का बहुत बड़ा अनिष्ट हो जाता है। इसलिए, आत्मा को अवश्यरूप से अपनी देह से पृथक् जानना।

“वह आत्मा न तो ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है और न कुनबी ही है। वह न तो किसी का लड़का है और न किसी का पिता भी है। न उसकी कोई जाति है और न ही उसका कोई रिश्ता ही है। ऐसी आत्मा तो सूर्य एवं अग्नि के समान तेजस्वी तथा ज्ञातृत्वभाव से युक्त है। हालाँकि अग्नि की ज्वाला तथा सूर्य की किरणें तो जड़ हैं, जिन्हें उँगली से छूने पर भी खिसकती नहीं हैं। किन्तु, चींटी को यदि उँगली से छू दिया जाए, तो वह खिसक कर उलटी चल पड़ती है। इसलिए आत्मा को ज्ञातृत्वभाव से युक्त बताया गया है। उसे सूर्य और अग्नि के सदृश तेजोमय बताया गया है, क्योंकि इसका आकार ऐसा तेजस्वी है।

“यह आत्मा अनेक योनियों को प्राप्त हुई है। अतः कहा जाता है कि, ‘समुद्र में जितना पानी है उतने परिमाण में इस जीव ने अपनी माता का दूध पिया है।’ यद्यपि उन विभिन्न योनियों में उसका देहान्त तो हुआ है, फिर भी उसका - स्वयं आत्मा का नाश नहीं हुआ। ऐसी अज्ञानावस्था में भी जब वह स्वयं को देहरूप मानता रहा था, तब भी यह नहीं मरी, तो अब हमें आत्मा के स्वरूप का ज्ञान हुआ! अब यह कैसे मरेगी? ऐसी जो आत्मा है, उसे अपना स्वरूप मानना।

“अब भगवान का माहत्म्य कैसे जानना चाहिए? इस विषय पर कहते हैं कि भगवान अनेक ब्रह्मांडों के राजाधिराज हैं और जिन ब्रह्मांडों के ये अधिपति हैं, उन ब्रह्मांडों की तो उन्हें कोई गिनती तक नहीं है। इसीलिए, कहा गया है:

‘धुपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया।
त्वमपि यदन्तराऽण्डनिचया ननु सावरणाः ॥’२९६

“उस एक-एक ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सात द्वीपों, सात समुद्रों, मेरु, लोकालोकादि पर्वतयुक्त पृथ्वी, चौदह लोकों तथा अष्ट आवरण की रचना आदि सामग्री सहित जो अनेक ब्रह्मांड हैं, उनके अधिपति भगवान हैं। जैसे इस पृथ्वी के चक्रवर्ती राजा के जितने गाँव हों, उनकी गिनती की जा सकती है, फिर भी उस राजा की कितनी महत्ता जान पड़ती है! किन्तु, भगवान के अधीनस्थ जो ब्रह्मांड हैं, उनकी संख्या तो अगणित और अनन्त है! जो गिने नहीं जा सकते! अतः भगवान की कितनी अपार महिमा है! उन ब्रह्मांडों में जो जीव हैं, उनकी भगवान के समक्ष हस्ती ही क्या है? कुछ नहीं! वे अति तुच्छ है।

“और, उन भगवान ने जीवों को इन ब्रह्मांडों में पंचविषय सम्बंधी सुख दिया है, वह सुख कैसा है? तो उस सुख के कारण कितने ही अपने सिर कटवाते हैं ऐसा महादुर्लभ-सा प्रतीत होता है। तब स्वयं भगवान की मूर्ति में और उनके अक्षरधाम में जो आनन्द है, वह कितना अपरिमित होगा! प्राकृत विषयों का जो सुख है, वह तो अन्य पदार्थों पर आधारित रहता है, तथा वह पृथक्-पृथक् प्राप्त होता है; जबकि भगवान तो समस्त सुखमात्र का स्रोत हैं। वस्तुतः भगवान सम्बंधी आनन्द अविनाशी है और महा अलौकिक है। जैसे कोई बड़ा धनी गृहस्थ हो और अपने घर में अनेक प्रकार के भोजन लेता हो, भोजन के बाद यदि वह अपनी बची हुई उच्छिष्ट रोटी का कुछ टुकड़ा कुत्ते के आगे डाल दे, तो वह तो अत्यन्त तुच्छ कहलाएगा, और स्वयं जो भोजन करता हो, वह महासुखमय कहलाएगा। वैसे ही भगवान ने ब्रह्मांडों में अनेक जीवों को जो पंचविषय सम्बंधी सुख दिया है, वह कुत्ते को डाले गए रोटी के टुकड़े के समान अत्यन्त तुच्छ है, तथा भगवान सम्बंधी जो सुख है, वह तो अतिशय महान है।

“भगवान जीवों को सुषुप्ति अवस्था में भी प्रचुर सुख प्रदान करते हैं। वह किस तरह? तो उसे चाहे कितनी ही शारीरिक वेदना होती हो, वह सुषुप्ति अवस्था में शान्त हो जाती है तब वह बड़ा सुखिया हो जाता है। और, भगवान के चरणकमलों की रज को तो ब्रह्मा, शिव, लक्ष्मीजी, राधाजी, नारद, शुक एवं सनकादिक नौ योगेश्वर भी, जो इतने महान हैं, अहंशून्य होकर अपने मस्तक पर चढ़ाते हैं और अपनी मान-मर्यादा को छोड़कर इन भगवान की निरन्तर भक्ति करते रहते हैं। ऐसे भगवान ने जगत में कैसी विचित्र सृष्टि की रचना की है और उनमें किस प्रकार की कुशलता दिखाई देती है! देखो न, मनुष्य में से मनुष्य, पशु में से पशु, वृक्ष में से वृक्ष और कीड़े में से कीड़ा उत्पन्न होता है! मनुष्य के अंगों में से यदि कोई अंग भंग हो गया हो, तो कोई भी प्रवीण व्यक्ति उसे यथावत् करने में किसी भी प्रकार से समर्थ नहीं हो पाता। ऐसी अनेक कलाएँ भगवान में हैं। इस प्रकार भगवान का माहात्म्य समझकर तथा उन्हें आनन्दमय मूर्ति जानकर मनुष्य को अन्य समस्त पदार्थों से वैराग्य हो जाता है और एकमात्र भगवान से ही प्रीति होती है।

“जिस प्रकार आगे कहा गया है, ऐसी अपनी जीवात्मा का ज्ञान तथा भगवान के माहात्म्य का ज्ञान - दोनों की सिद्धि जिसे भी हो गई, वह चाहे कैसे भी पंचविषय सम्बंधी सुख के बन्धन में कभी भी फँस गया, तो वह उसमें फँसा नहीं रहेगा और उन बंधनों से निकलकर ही रहता है, तब उस पुरुष की बात ही क्या है, जो विषयों के सुख का परित्याग करके रहता है! अतएव, इन दोनों प्रकार के ज्ञान को सुनकर अपने मन में उस ज्ञान के अनुसार वेग लगा दें। जैसे कोई शूरवीर तथा कठोर प्रकृति का मनुष्य हो, उसके किसी प्रतिद्वन्द्वी ने इस शूरवीर के बाप को मार डाला तो उसे, उस प्रतिद्वन्द्वी से भीषण वैर हो जाता है। और तब वह प्रतिद्वन्द्वी उसके लड़के को मार डालता है, और उसके भाई की हत्या कर डालता है तथा स्त्री को छीन लेता है और उसकी माँ को उठाकर मुसलमान को सुपुर्द कर देता है, गाँव-गरास लूट लेता है, इस प्रकार जैसे-जैसे प्रतिद्वन्द्वी उसे पराजित करता है, वैसे-वैसे उसके मन में प्रतिशोध की ज्वाला और भी धधकने लगती है। और, जाग्रत एवं स्वप्नावस्था में उसे इसी बात का ही विचार बना रहता है। वैसे ही जिसे इन दोनों बातों (आत्मा-परमात्मा) का निरन्तर ध्यान बना रहे और उसे उस ज्ञान की सिद्धि हो जाए, तब उस पुरुष को चाहे कैसा ही आपात्काल उपस्थित हो, पर उसमें सहायता मिल जाती है।

“जैसे हनुमानजी विशल्यकारिणी (संजीवनी) औषधि को लाए और उसे लक्ष्मणजी को पिलाया तो उनकी देह में लगे बाण अपने आप बाहर निकल आए। वैसे ही जिस पुरुष के मन में ये दो बातें दृढ़ हो गयीं, तो उनके अन्तःकरण से विषयभोग की इच्छारूप सभी शल्य स्वयं ही निकल जाते हैं, अर्थात् विषयभोग में से उसकी इन्द्रियों की वृत्तियाँ निकलकर एकमात्र भगवान के स्वरूप में ही लग जाती हैं। तथा सत्संगी भी उसी को कहा जाता है; क्योंकि सत्यरूपी जो अपनी आत्मा, और सत्यरूप जो भगवान दोनों का जिसे संग हुआ, उसको ही सत्-संगी कहते हैं।

“और, इन दोनों प्रकार की वार्ता को जब दैवी जीव सुनता है, तब उसके हृदय में प्रविष्ट होकर वह रग-रग में फैल जाती है। परन्तु जो आसुरी जीव होता है, उसे तो यह बात सुनते ही बाहर ही निकल जाती है, उसके हृदय में यह नहीं उतरती। जैसे श्वान अगर खीर को खा लेगा, तो वह उसके पेट में टिक ही नहीं पाती, वह उल्टी के रूप में बाहर निकल जाती है। यद्यपि खीर को अन्य किसी भी खाद्यपदार्थ से स्वादिष्ट माना जाता है, फिर भी वह खीर श्वान के पेट में टिककर उसे पुष्टि और तुष्टि नहीं दे पाती। किन्तु, उसी खीर को यदि मनुष्य खा लेता है, तो वह उसे संतुष्टि और पुष्टि दोनों देती है। वह उसका स्वाद लेने में भी सक्षम होता है। उसी तरह श्वान के समान आसुरी जीव के हृदय में तो यह बात ही नहीं जम सकती, परन्तु दैवी जीव के हृदय में तो ऐसी बात स्थिर भी होती है, और रग-रग में व्याप्त भी हो जाती है!

“और, भगवान के सदृश तो केवल भगवान ही है। और भगवान का भजन करके अनेक भक्त उनके साधर्म्य को प्राप्त हुए हैं, फिर भी वे भगवान के समान तो हो ही नहीं सकते। यदि वे भगवान के समान ही हो जाए तब तो बहुत-से भगवान हो जाएँगे। उस दशा में तो जगत की स्थिति एक समान नहीं रह सकती। क्योंकि, एक भगवान कहेंगे कि मैं जगत की उत्पत्ति करूँगा, दूसरे भगवान बोलेंगे कि मैं जगत का प्रलय करूँगा, तीसरे भगवान कहेंगे कि मैं पानी बरसाऊँगा, चौथे भगवान बताएँगे कि मैं पानी नहीं बरसाऊँगा, पाँचवे भगवान कहेंगे कि मैं मानवधर्मों का प्रचलन पशुओं में करूँगा, जबकि इनसे भिन्न अन्य भगवान यह बोलेंगे कि मैं पशुओं के धर्मों को मनुष्यों में प्रचलित करूँगा। इस प्रकार जगत की एक समान स्थिति नहीं रह पाती। परन्तु देखिए न, संसार में किस किस प्रकार समस्त क्रियाएँ निरन्तर नियमानुसार होती रहती हैं! जगत के संचालन में तिलमात्र भी अन्तर नहीं पड़ता! अतः इन समस्त क्रियाओं के प्रवर्तक तथा सबके स्वामी एकमात्र भगवान हैं। ऐसा भी नहीं लगता कि भगवान के साथ किसी दूसरे का दाव लग जाए! वे एक और अनन्य ही हैं! दूसरा उनके सदृश हो ही नहीं सकता!

“आपसे जो बात कही वह अल्पमात्र ही है, फिर भी इसमें सब कुछ समा दिया है। इस बात का रहस्य तो केवल बुद्धिमान व्यक्ति ही समझ पाता है, अन्य मनुष्य की समझ में यह बात नहीं आ सकती। यदि उपरोक्त आत्मा-परमात्मा की बात जिसने सुदृढ़ कर ली उसके लिए तो सभी साधनाएँ मानो पूर्ण हो गईं! उसके लिए तो कुछ भी करना बाक़ी नहीं रह गया।”

इतनी बात कहकर श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “हमने जो ये बातें कही हैं, उन्हें सुनकर उन्हें अपने हृदय में दृढ़कर लिया है, ऐसे ही भक्त का संग रखना। तो इसे इस वार्ता पर दिन-प्रतिदिन दृढ़ता होती जाएगी। इस प्रकार की जो बात हम करते हैं, वह बुद्धि की कल्पना से नहीं करते और अपनी सिद्धता दिखलाने के लिए भी नहीं करते। यह तो हमारी अनुभूत बात है। हम जैसा आचरण करते हैं, वैसी ही बातें करते हैं। क्योंकि हमारे लिए स्त्री-धनादि पदार्थों तथा पंचविषयों का भारी योग है। जब कभी हम सूरत, अहमदाबाद, वड़ोदरा और वरताल जाते हैं, तब सहस्रों मनुष्य इकट्ठे होते हैं और हमारे प्रति आदर भावना प्रकट करते हैं। वे गाजेबाजे के साथ अति सम्मानपूर्वक हमारा स्वागत करते हैं। उन शहरों में भी हमने बहुत बड़े-बड़े स्थान देखे हैं और हमारे लिए अधिकाधिक वस्त्रों तथा वाहनादि का योग भी उपस्थित होता है। फिर भी हम अपनी आत्मा तथा भगवान के माहात्म्य का विचार जब करते हैं, तब ये समस्त वस्तुएँ अति तुच्छ दिखाई देती है तथा कहीं भी बन्धन नहीं होता। एवं जिस प्रकार पूर्वदेह की विस्मृति हो जाती है, उसी प्रकार इन सब वस्तुओं का भी विस्मरण हो जाता है। अतः इन दो बातों को हमने सिद्ध कर लिया है। यही कारण है कि हम इतना अनासक्त रह सकते हैं। इसी प्रकार अन्य कोई (व्यक्ति) इन दो बातों को सिद्ध कर ले, तो वह भी विषयों के सम्बंध होने पर हमारी ही तरह अनासक्त रह सकता है। इसलिए यह बात अवश्य समझनी चाहिए।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने कृपा करके दूसरों को समझाने के लिए अपने आचरण के आधार पर वार्ता कही, जबकि वे स्वयं तो साक्षात् श्रीपुरुषोत्तम नारायण हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३९ ॥ २६२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२९६. अर्थ: “ब्रह्मादि देव भी आपकी महिमा का पार नहीं पाते। क्योंकि आपकी महिमा अपार है, आप स्वयं आपकी महिमा का पार नहीं पा सकते हैं। आप ऐसे महिमावंत हैं कि जिसके एक-एक रोम के छिद्र में अष्ट आवरणों से युक्त अनेक ब्रह्मांड विद्यमान हैं।” (श्रीमद्भागवत: १०/८७/४१)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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