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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

भूगोल-खगोल १

भूगोल-खगोल वचनामृतम्

श्रीजीमहाराज ने आषाढ़ी संवत् १८६३ में कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा से प्रबोधिनी के बीच श्रीगढ़डा के भक्तिबाग में हरमावृक्ष के नीचे बैठकर शुकानन्दमुनि द्वारा हरिभक्तों के लिए जो पत्र लिखवाया, उसका उद्देश्य यही था कि भक्तों को भूद्वीप खंड, युगपरिमाण तथा प्रलयवर्णनपूर्वक भरतखंड में मनुष्यजन्म की दुर्लभता का वर्णन प्राप्त हो, तथा जन्म प्राप्त करके अन्य लौकिक प्रवृत्ति का आग्रह न करके सब मुमुक्षु मोक्षरूपी कार्य सिद्ध कर लेने पर जोर दें। उस बात का वर्णन हरिलीलामृत के छठे कलश के विश्राम ११-१२ में किया गया है। वह पत्र उसी समय पर लिखा गया होगा या कुछ अन्य समय पर लिखा गया होगा, इस पर जांच किए बिना ही इसे उपयोगी समझकर यहाँ पृथक् रूप से मुद्रित किया गया है:

श्रीमद्भागवत आदि सद्ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि भरतखंड में मनुष्यदेह प्राप्त करना अति दुर्लभ है तथा चिन्तामणि तुल्य है। यह एक ऐसी देह है, जिसे पाने की इच्छा इन्द्रादि देवता तक किया करते हैं। यद्यपि इन देवताओं के विषय, वैभव-विलास तथा आयुष्य मनुष्यों की अपेक्षा अत्यधिक हैं, परन्तु वहाँ मोक्ष की साधना नहीं होती। मोक्ष की साधना तो भरतखंड में मनुष्यदेह प्राप्त करने से ही होती है। उसके सिवा यह साधना किसी अन्य स्थान में कोई दूसरी देह धारण करने से नहीं होती। अतः मृत्युलोक के समस्त देशों की अपेक्षा भरतखंड में मनुष्यदेह को प्राप्त करना अधिक उत्कृष्ट माना गया है। उसके तुल्य कोई अन्य स्थान चौदह लोकों तक में नहीं है।

उन चौदह लोकों के नाम इस प्रकार हैं: यह मृत्युलोक है, उसके ऊपर छः लोक हैं, जिनमें प्रथम भुवर्लोक है, उसमें मलिन देव रहते हैं। उससे ऊँचा दूसरा स्वर्गलोक है, उसमें इन्द्रादि देव निवास करते हैं। उससे ऊँचा तीसरा महर्लोक है, जिसमें अर्यमादि पितृदेव रहते हैं। उससे ऊँचा चौथा जनलोक तथा पाँचवाँ तप लोक हैं। इन दोनों लोकों में भृगु आदि ऋषि रहते हैं। उससे ऊपर छठा सत्यलोक है, उसमें ब्रह्मा रहते हैं। इस प्रकार सत्यलोक सहित सात लोक हैं।

मृत्युलोक से नीचे जो सात लोक हैं, उनमें प्रथम अतल, दूसरा वितल और तीसरा सुतल है। इन तीनों लोकों में दैत्य रहते हैं। सुतल से नीचे तलातल, दूसरा महातल और तीसरा रसातल है। इन तीनों लोकों में निशाचर रहते हैं। इन निम्न छः लोकों से नीचे सातवाँ लोक पाताल है, जिसमें सर्प रहते हैं। ये सातों लोक मृत्युलोक से नीचे हैं। इन्हें मिलाकर कुल चौदह लोक हुए। उनमें मृत्युलोक श्रेष्ठ है।

उस मृत्युलोक के सात द्वीप हैं, जो चक्राकार हैं। उनके मध्य जंबुद्वीप है। वह एक लाख योजनवाला है। उसके चारों तरफ खारे जल का समुद्र है। वह भी एक लाख योजन तक फैला हुआ है। उससे दूसरा प्लक्ष नामक द्वीप है। वह दो लाख योजन का है। उसके चारों ओर समुद्र भी दो लाख योजन का है। उसका जल गन्ने के रस के समान है। उससे तीसरा शाल्मलि द्वीप है। वह चारों ओर फैला हुआ है और चार लाख योजन का है। उसके चारों तरफ समुद्र है। उसका जल सुरा यानी मद्य के समान है। उससे चौथा कुशद्वीप है। वह चारों ओर फैला हुआ है और आठ लाख योजन का है। उतना ही बड़ा समुद्र चारों ओर है। उसका जल घी के सदृश है। उससे पाँचवाँ क्रौंचद्वीप है। वह सोलह लाख योजन का है। उतना ही बड़ा समुद्र उसके चारों ओर है, और उसका जल दूध के समान है। उससे छठा शाकद्वीप है। वह बत्तीस लाख योजन का है। उसके चारों ओर का समुद्र भी उतना ही बड़ा है। उसका जल दधिमंडोद यानी दही के घोल के समान है। उससे सातवाँ पुष्करद्वीप है। वह चौंसठ लाख योजन का है। उसका जल सुधा (अमृत) के समान मधुर है। इस प्रकार के सात द्वीप हैं। उनमें यह जम्बुद्वीप श्रेष्ठ है।

इस जम्बुद्वीप के नौ खंड हैं। वह कैसे हैं? तो उस द्वीप के मध्यभाग में सुवर्ण का मेरुपर्वत है। उस पर्वत की तराई में चारों तरफ फैला हुआ ईलावर्त नामक एक खंड है; वहाँ संकर्षण की उपासना होती है, वहाँ शिवजी मुख्य भक्त हैं। उस मेरुपर्वत से पश्चिम दिशा में एक केतुमाल नाम का खंड है। उसका दूसरा नाम ‘सुभग’ भी है। वहाँ प्रद्युम्न की उपासना होती है, और लक्ष्मीजी मुख्य भक्त हैं। उस मेरुपर्वत से उत्तर दिशा में तीन खंड हैं। उनमें प्रथम ‘रम्यक’ नामक खंड है, जिसमें मत्स्य भगवान की उपासना होती है, वहाँ सावर्णि मनु मुख्य भक्त हैं। उससे उत्तर में दूसरा ‘हिरण्यमय’ खंड है। उसमें कूर्मजी की उपासना होती है, वहाँ अर्यमा मुख्य भक्त हैं। उससे उत्तर में तीसरा ‘कुरुखंड’ है, जिसमें वराह की उपासना की जाती है, वहाँ पृथ्वी मुख्य भक्त है। इस प्रकार ये पांच खंड हुए। उस मेरुपर्वत से पूर्व दिशा में ‘भद्राश्व’ नामक खंड है, वहाँ हयग्रीव की उपासना होती है। वहाँ भद्रश्रवा मुख्य भक्त हैं। उस मेरुपर्वत से दक्षिण दिशा में तीन खंड हैं। उनमें प्रथम ‘हरिवर्ष’ खंड है। वहाँ नृसिंहजी की उपासना की जाती है और प्रह्‌लादजी मुख्य भक्त हैं। उससे दक्षिण दिशा में दूसरा ‘किंपुरुष’ नामक खंड है, जहाँ रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी की उपासना की जाती है तथा हनुमानजी मुख्य भक्त हैं। उससे दक्षिण दिशा में ‘भरतखंड’ है। वहाँ नरनारायण देव की उपासना की जाती है और नारदजी मुख्य भक्त हैं।

इस प्रकार इस जम्बुद्वीप के नौ खंड हुए। उनमें ‘भरतखंड’ अतिश्रेष्ठ है। इसका कारण क्या है? तो अन्य आठ खंडों में भोगविलास के सुख तो अत्यधिक हैं, किन्तु मोक्ष का साधन नहीं रहता। मोक्ष का साधन तो एकमात्र भरतखंड में ही रहता है। इस कारण चौदह लोकों में इस भरतखंड तुल्य कोई अन्य स्थल नहीं है। भरतखंड में भी तेरह देश हैं। वे अनार्य अर्थात् कठोर हैं। इनमें (१) बंगाल, (२) नेपाल, (३) भूतान, (४) कामाक्षी, (५) सिन्ध, (६) काबुल, (७) लाहौर, (८) मुलतान, (९) ईरान, (१०) इस्तम्बुल, (११) अरबस्तान, (१२) स्वाल तथा (१३) पिलपिलाम है। ये तेरह देश मलिन हैं। इनमें जो मनुष्य देह पाता है, उसके लिए मोक्षदाता सद्‌गुरु का योग मिलना तथा मोक्षधर्म को समझना अत्यन्त दुष्कर रहता है।

दूसरे साढ़े बारह देश भी हैं, वे आर्य अर्थात् उत्तम हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं: (१) पूर्व, (२) व्रज, (३) मालव, (४) मारु, (५) पंजाब, (६) गुजरात, (७) दक्षिण, (८) मलबार, (९) तिलंग, (१०) द्राविड़, (११) बारमलार, (१२) सोरठ तथा आधा कच्छ। ये साढ़े बारह देश उत्तम हैं। इनमें सद्‌गुरु तथा ब्रह्मवेत्ता सन्त का प्राकट्य अधिक रहता है। इन देशों में जो पुरुष मनुष्य देह पाते हैं, उन्हें धर्म, भक्ति, वैराग्य तथा ज्ञान का बोध हो जाता है और मोक्षमार्ग का भी ज्ञान मिल जाता है।

इन बातों की जानकारी कैसे होती है? सुनिये, इन उत्तम देशों में भगवान के अनेक अवतार होते हैं, इसीलिए ये देश श्रेष्ठ हैं। यदि भरतखंड के सभी मनुष्य उपाय करते हैं, तो मोक्ष हो सकता है। यदि वे ऐसा उपाय नहीं करते, तो मोक्ष नहीं हो सकता। अतः जो विवेकी हैं, वे सब हिंसादोषरहित होकर, कुसंग का परित्याग करके सद्‌गुरु एवं ब्रह्मवेत्ता सन्त का आश्रय ग्रहण करें तथा उनकी सेवा करें। उन सद्‌गुरु सन्त के लक्षण सद्‌ग्रन्थों में लिखे हुए हैं कि वे धर्म, भक्ति, वैराग्य तथा ज्ञान आदि शुभ गुणों से सम्पन्न होते हैं। उनको पहचानकर उनकी शरण ग्रहण करें और अपनी देह, इन्द्रियों और अन्तःकरण को उनकी आज्ञा के अनुसार ही रखें तथा भगवान का भजन करें। मोक्ष का यही साधन है। जिसने भूतकाल में इस मोक्षसाधन को अपनाया था, तथा वर्तमानकाल में जो यह साधन करता है और भविष्यकाल में भी कोई इसके अनुसार करेगा तो समझना कि उसने मनुष्यदेह का अमूल्य लाभ ले लिया तथा उसे ही विवेकशील और बड़ा मानना।

जो कोई ऐसा नहीं समझता, वह वस्तुतः संसार के तुच्छ सुख के लोभ में आसक्त होकर, कालकवलित मिथ्या मतवादी गुरुओं के वचनों से ऐसी अमूल्य मनुष्य-देह को खो बैठता है। भले ही ऐसे अज्ञानी जगत में ‘चतुर,’ ‘समझदार’ और ‘महान’ कहलाते हों तथा उनकी यश-कीर्ति भी भले ही अधिक फैली हुई हो, परन्तु सब स्वप्न तुल्य है। जिसे सच्चा मानकर ऐसे अज्ञानी लोग वैसे गुरुओं से मुग्ध होकर रहते हैं, उन्हें मोक्ष का उपाय नहीं सूझता, इसलिए ब्रह्मवेत्ता सन्त तथा सद्ग्रन्थ ऐसे लोगों को मूर्ख और आत्मघाती बताते हैं। ऐसे लोगों के लिए तो मोक्षक्षेत्र में पुनः मनुष्यदेह पाने में अधिकाधिक विलम्ब होता है।

यह बात सद्ग्रन्थों के अनुसार लिखी गयी है कि जब हमारे ६६६ वर्ष तथा ८ मास बीतते हैं, तब ब्रह्मा का एक ‘लव’ होता है। ऐसे ६० लवों का एक निमिष होता है। सो हमारे चालीस हज़ार वर्ष बीत जाएँ, तब ब्रह्मा का एक ‘निमिष’ होता है। ऐसे साठ निमिषों का एक ‘पल’ होता है। हमारे चौबीस लाख वर्ष बीतने पर ब्रह्मा का एक पल होता है। ऐसे ६० पलों की एक घड़ी होती है। हमारे चौदह करोड़ चालीस लाख वर्ष व्यतीत होने पर ब्रह्मा की एक घड़ी होती है। ऐसी तीस घड़ियों का एक दिन होता है। हमारे चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष होने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है। इस प्रकार चार युगों की एक चौकड़ी होती है। सतयुग के सत्रह लाख अट्ठाईस हज़ार, त्रेतायुग के बारह लाख छियानवे हज़ार, द्वापर के आठ लाख चौंसठ हज़ार तथा कलियुग के चार लाख बत्तीस हज़ार वर्षों को जोड़ने से जब तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष होते हैं, तब एक चौकड़ी पूर्ण होती है। ऐसी चारों युगों की एक हज़ार चौकडियाँ ब्रह्मा के एक दिन में बीत जाती हैं। ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनुओं और चौदह इन्द्रों का समान रूप से राज्य करने के बाद विनाश हो जाता है। एक मनु तथा एक इन्द्र हमारे तीस करोड़, पचासी लाख, इकहत्तर हज़ार, चार सौ अट्ठाईस वर्ष, छः मास, पच्चीस दिन, बयालीस घड़ी, इक्यावन पल, पच्चीस निमिष, बयालीस लव तथा इसके उपरांत बारह लव के चौदहवें भाग में एक-एक रहकर चौदह इन्द्र हो जाते हैं। वे ब्रह्मा के लव-निमिषादि समस्त दिनों में उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं। उसका नाम है नित्य प्रलय।

उस ब्रह्मा की एक रात्रि होती है, तब ब्रह्मा शयन करते हैं, तभी स्वर्गलोक, मृत्युलोक एवं पाताललोक, अर्थात् त्रिलोकी का नाश हो जाता है। जितना बड़ा दिन होता है, उतनी ही बड़ी रात्रि होती है। जब हमारे आठ अरब, चौंसठ करोड़ वर्ष बीतते हैं, तब ब्रह्मा का अहोरात्र होकर एक दिन होता है। उपरोक्त सब सृष्टि का दिन-प्रतिदिन नाश होता है, और दिवसान्तर में पुनः सृजन होता है, जो पुनः नाश होता है। उसका नाम निमित्त प्रलय कहलाता है, जो दूसरा है। इसे ब्रह्मा के एक दिन की अवधि कहा गया है।

ऐसे ब्रह्मा के तीस दिनों का एक मास होता है, ऐसे बारह मासों का एक वर्ष होता है। ऐसे एक सौ वर्षों तक ब्रह्मा देह रखते हैं। वे ब्रह्मा जब देहोत्सर्ग करते हैं, तब उन चौदह लोकों सहित ब्रह्मांड का नाश हो जाता है। तब प्रकृति से उत्पन्न सबकुछ कार्य प्रकृति में विलीन हो जाता है। यह प्राकृत प्रलय कहलाता है, जो तीसरा है।

चौथा आत्यन्तिक प्रलय होता है। इस प्रलय में तो अनन्तकोटि ब्रह्मांडों का नाश हो जाता है। उस दिन प्रधानपुरुष के कारण प्रकृतिपुरुष भी अपने में अनन्त ब्रह्मांडों को प्रतिलोम करके स्वयं अक्षरपुरुष के तेज में लीन हो जाते हैं। इसे आत्यन्तिक प्रलय कहा जाता है।

ये सभी ब्रह्मांड प्रलयकाल में जैसे प्रतिलोम होते हैं, वैसे ही उत्पत्तिकाल में अनुक्रमानुसार उनके द्वारा अनुलोम ही उत्पन्न होते हैं। ये तो चार प्रकार के प्रलय की बात कही इनमें तीसरा प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की आयुष्य अवधि तक का कहा गया है। ऐसे साढ़े तीन करोड़ प्राकृत प्रलय हो जाते हैं, तब यह जीव ऐसे मनुष्य शरीर को प्राप्त होता है। ऐसी मूल्यवान मानव-देह को वृथा, मिथ्या मायिक सुख तथा मिथ्यामतवादी गुरु के आश्रय में रहने के कारण वह गँवा बैठता है। उस जीव को यमयातना, नरककुंडों के दुःखों तथा चौरासी लाख योनिजन्य शरीरों के कष्टों को भोगना पड़ता है। उन चौरासी लाख योनियों से गुज़रते हुए जब साढ़े तीन करोड़ प्राकृत प्रलय होंगे, तब जीव को पुनः मोक्ष-क्षेत्र में ऐसा मनुष्य-शरीर प्राप्त होता है! इतना विराट विलम्ब उसे मनुष्य देह पाने में हो जाता है।

इसलिए, हे भाई! चाहे तो आज समझकर मोक्षदाता सद्‌गुरु एवं सन्त का आश्रय ग्रहण करके उनकी आज्ञा के अनुसार अपने शरीर, इन्द्रियों एवं अन्तःकरण को रखो, एवं अपनी आत्मा का कल्याण करके भगवान के धाम में पहुँचो। और, यदि यह बात आज नहीं समझोगे, तो तुम ऐसे मनुष्यशरीर को व्यर्थ ही गँवा बैठोगे, जो मोक्षसाधन का धाम है। यदि इस देह को वृथा गँवाया, तो पुनः ऐसा योग मिलना अति दुर्लभ है, तथा आगे कहा उतना विलम्ब भी है। अतः उतने लम्बे अरसे तक कष्टों को भोगकर जब उसकी समयावधि पूर्ण होगी, तभी मोक्षप्राप्ति का योग आएगा। उस समय भी मोक्ष तो तभी मिलेगा, जब विवेकपूर्वक चिन्तन करोगे! यदि आप उस दिशा नहीं सोचोगे तो उस दिन भी मोक्ष नहीं होगा; यह सिद्धान्तवार्ता है। अतः जो विवेकशील हैं, उसे इस बात पर सोचना! क्योंकि मूर्ख के सिर तो श्रुति स्मृति की कोई मान-मर्यादा नहीं होती; इसलिए, वे तो इस बात को कभी नहीं समझेगा! श्रीरस्तु।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ २६३ ॥

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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