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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद ४

अहमदावाद ४

संवत् १८८२ में फाल्गुन कृष्णा तृतीया (२६ मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीअहमदाबाद-स्थित श्रीनरनारायण मन्दिर के समक्ष वेदिका पर गद्दी-तकियायुक्त पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। मस्तक पर गुलाबी रंग की पाग सुशोभित थी। उस पाग में गुलाब के तुर्रे झुके हुए थे। कानों पर गुलाब के गुच्छे खोंसे हुए थे। गुलाब के अनेक हार कंठ में शोभायमान हो रहे थे। दोनों बांहों में गुलाब के बाजूबन्द थे। श्रीजीमहाराज के समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज मुनिमंडल तथा हरिभक्तों से बोले कि, “आप सब सुनिये, एक वार्ता करते हैं। सर्वप्रथम भगवान के स्वरूप का दृढ़ निश्चय करना। वे भगवान कैसे हैं? तो वे अपनी इच्छा से ही जीवों के कल्याण के लिए जन्म धारण करते हैं। वे जन्म धारण करते हुए भी अजन्मा हैं, तथा देहत्याग करते हुए भी अजर-अमर हैं, निरंजन हैं, अर्थात् माया के अंजन से रहित हैं, और मूर्तिमान हैं। तथा स्वयंप्रकाश हैं, परब्रह्म हैं, अक्षरातीत हैं, अन्तर्यामी हैं और अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के आधार हैं। और मनुष्य-शरीर धारण करने और उसे त्याग देने की उनकी लीला तो एक नट के इन्द्रजाल जैसी है। वे अनन्तकोटि अक्षरादिक मुक्तों के नियन्ता तथा सबके स्वामी हैं। ऐसे श्रीपुरुषोत्तम नारायण पहले धर्मदेव और मूर्ति द्वारा श्रीनरनारायण२९७ के रूप में प्रकट होकर बदरिकाश्रम में तप करते हैं।

“वे ही श्रीनरनारायण पृथ्वी पर किसी प्रकार के विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए मत्स्य, कच्छप, वराह, वामन, राम एवं कृष्ण आदि देहों को ग्रहण करके तथा अपनी उन देहों द्वारा अन्य जीवों के देहाभिमान का त्याग कराकर और ब्रह्म-अभिमान को ग्रहण करवाकर अपनी देह तथा अन्य जीवों की देहों में सादृश्य दिखलाते हैं। जिस तरह काँटे द्वारा काँटे को निकाल कर उस काँटे का भी त्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार भगवान भी अन्य जीवों की देहों के समान अपनी देह का परित्याग कर डालते हैं।

“यही आख्यान महाभारत में है कि जब नृसिंहजी को देहत्याग करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने अन्तर्यामीरूप द्वारा शिव के हृदय में प्रेरणा करके शिव को शरभ की देह धारण करायी। इसके बाद उस शरभ तथा नृसिंहजी के बीच युद्ध हुआ। उस समय नसिंहजी ने अपनी देह का परित्याग कर दिया। इस प्रकार भगवान स्वतन्त्र रूप से अपनी इच्छा के अनुसार कोई भी देह ग्रहण करते हैं, और उसका परित्याग भी कर देते हैं। जैसे कि ऋषभदेव की देह दावानल में जल गई, तथा श्रीकृष्ण भगवान ने अपने पैर में तीर लगने पर अपना देहोत्सर्ग कर दिया। उस चरित्र को देखकर नास्तिक बुद्धिवाले अभक्तों की मति भ्रमित हो जाती है, और वे अपनी तरह भगवान में भी जन्म-मृत्यु के भावों का आरोपण करते हैं। वे सोचते हैं कि भगवान भी अपने कर्मानुसार देह धारण करते और छोड़ते हैं तथा वे भी नैष्कर्म्य कर्म करेंगे, तब कर्मों के बंधन दूर होंगे, और वे मुक्त हो जाएँगे।

“परन्तु इसके विपरीत जो आस्तिक बुद्धिवाले हैं तथा जो हरिभक्त हैं वे तो मानते हैं कि नास्तिक की समझ मिथ्या है। भगवान की देह तो नित्य है, तथा भगवान के स्वरूप में जन्म, शैशव, यौवन, वृद्धावस्था एवं मृत्यु आदि विभिन्न देहभाव दिखाई दे रहे हैं, वे तो भगवान की लीला है। इसीलिए, काल तथा माया अपनी चेष्टाओं से भगवान को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो सकते। और, भगवान की देह में जो परिणामभाव (जन्म, मरण आदि) दिखाई पड़ते हैं, वे भगवान की योगमाया के कारण हैं। अतः जो भगवान के भक्त होते हैं, उन्हें भगवान की ऐसी लीला में मोह नहीं होता, जबकि अभक्तों की मति भ्रमित हो जाती है।

“जैसे नट के चरित्र को देखकर जगत के जीवों की मति भ्रमित हो जाती है, किन्तु जो नटविद्या को जानता है, उनका मतिभ्रम नहीं होता। वैसे ही पुरुषोत्तम श्रीनरनारायण अनेक देहों को धारण करने के पश्चात् उन देहों को नट की भाँति छोड़ देते हैं। वे श्रीनरनारायण समस्त अवतारों के कारण हैं। और श्रीनरनारायण में जो मरणभाव आदि की कल्पना करते हैं, उन्हें अनेक शरीर धारण करने पड़ते हैं, तथा उन्हें चौरासी लाख योनियों एवं यमपुरी के दुःखों के जाल में फँसना पड़ता है; उनके लिए दुःखों का पार नहीं रहता। परन्तु जो भक्त श्रीनरनारायण में अजर-अमरभाव समझते हैं, वे अपने कर्मों एवं चौरासी लाख योनियों से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए, अपने उद्धव सम्प्रदाय के समस्त सत्संगी साधुओं को भगवान के अवतारों में, जो हो चुके हैं, अभी विद्यमान हैं और भविष्य में होंगे, कभी भी मरणभाव आदि की कोई कल्पना नहीं करना। इस वार्ता को आप सब लोग लिख लेना।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज ने अपना प्राकट्यभाव दिखलाया। इस वार्ता को सुनकर सबने उसी प्रकार श्रीजीमहाराज के स्वरूप के सम्बंध में निश्चय किया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ २६४ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२९७. परब्रह्म पुरुषोत्तम नारायण के अनुप्रवेश से नरनारायण आदि ईश्वर ऐश्वर्य को प्राप्त करके अवतरित होते हैं। अतः पुरुषोत्तम नारायण और नरनारायण दोनों अत्यन्त भिन्न हैं। फिर भी सभा में उपस्थित भक्तों के जीव नरनारायण की प्रधानता होने से यहाँ दोनों की एकता कहते हैं।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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