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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद ६

अहमदावाद ६

संवत् १८८२ में फाल्गुन कृष्णा षष्ठी (२९ मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीअहमदाबाद-स्थित श्रीनरनारायण मन्दिर के समक्ष वेदिका पर बिछाए गए पलंग एवं गद्दी-तकिया पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे और कंठ में गुलाब के हार पहने थे। दोनों कानों पर गुलाब के गुच्छे लगे हुए थे, और वे गुलाब का बड़ा गुच्छ करकमल में लेकर अपने मुखारविन्द पर घुमा रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

संध्या-आरती के बाद कुबेरसिंहजी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! कोई ऐसा उपाय बतलाइये कि भगवान के स्वरूप का यथार्थ निश्चय हो चुका हो, वह निश्चय कभी भी न डिगने पाये।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह बात तो सबके लिए सुनने योग्य है। इसलिए, सब सावधान होकर सुनिए। यदि प्रत्यक्ष भगवान का इस रीति से माहात्म्य ज्ञान हो जाए, तो निश्चय विचलित नहीं होगा। वह माहात्म्य कहते हैं कि - जो भगवान इस सत्संग में विराजमान हैं, उन्हीं भगवान से समस्त अवतार हुए हैं। वे स्वयं तो अवतारी हैं और वे ही सबके अन्तर्यामी भी हैं। वे ही अक्षरधाम में तेजोमय एवं सदैव साकार रूप विराजमान हैं तथा अनन्त ऐश्वर्यों से युक्त हैं। वे ही अनन्त ब्रह्मांडों के राजाधिराज हैं तथा अक्षरब्रह्म के भी कारण हैं।

“वे भगवान जब प्रकट होकर ऋषभदेव-सी क्रियाएँ करने लगे, तब यह जान लेना कि वे ऋषभदेव हैं; जब वे रामावतार का चरित्र करें, तब जानना कि वे रामचन्द्रजी हैं; जब भगवान श्रीकृष्णावतार की लीला करें, तब समझ लेना कि वे श्रीकृष्ण हैं। इसी प्रकार, जिस-जिस अवतार की लीला का दर्शन हों, उसे देखकर यही समझना कि पूर्वकाल में भगवान के जितने अवतार हुए हैं, वे सब इनमें से ही हुए हैं और ये ही भगवान सभी अवतारों के कारण हैं। ऐसी समझ रखने से उसका निश्चय विचलित नहीं होता। ऐसी समझ के बिना तो उसे कुछ डगमगाहट जरूर हो जाती है। यह इस प्रश्न का उत्तर हैं।

और,२९८ वे ही श्रीकृष्ण भगवान स्वयं श्रीनरनारायण रूप से धर्म एवं भक्ति द्वारा प्रकट हुए हैं। इसलिए, इन श्रीनरनारायण को हमने अपना स्वरूप जानकर अति आग्रहपूर्वक सर्व प्रथम इस श्रीनगर (अहमदाबाद) में प्रतिष्ठापित किया है। अतः इन श्रीनरनारायण और हमारे में तनिक भी भेदभाव मत रखना और ब्रह्मधाम के निवासी भी वे ही हैं।”

श्रीजीमहाराज के इस प्रकार के वचनों को सुनकर कुबेरसिंहजी ने पूछा कि, “हे महाराज! कृपया यह बताइए कि यह ब्रह्मपुर कैसा है? तथा ब्रह्मपुर में भगवान के जो भक्त हैं, उनका स्वरूप कैसा है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अक्षररूप जो ब्रह्म हैं, वे ही श्रीपुरुषोत्तम नारायण के निवास के लिए धामरूप हुए हैं। सर्व अक्षरब्रह्म (अक्षरमुक्तों) की अपेक्षा भगवान के धामरूप जो अक्षरब्रह्म हैं, वे अनादि हैं।२९९ उस अक्षरधाम में अनेक प्रकार के प्रासाद हैं। उन प्रसादों में कई प्रकार के झरोखे हैं। कितनी ही तरह की अटारियाँ हैं। उनमें भी अधिक से अधिक चित्र-विचित्रताएँ हैं। वहाँ कई प्रकार के फव्वारे हैं। तरह-तरह के बाग-बगीचे हैं। उनमें अनेक तरह के फूल भी हैं।३०० वह धाम तेजोमय तथा अनन्त है। उसका स्वरूप इतना दिव्य है कि उसकी उपमा किसी अन्य धाम के साथ नहीं दी जा सकती। उसे गोलोक भी कहते हैं।३०१ अन्य धामों की अनन्त विभूतियों की अपेक्षा, वहाँ असंख्य कोटि प्रकारों की अधिक शोभा बनी हुई है, जो अपार है।

“जैसे आकाश अपार है, और उसके चारों ओर देखने पर भी उसका किसी भी दिशा में अन्त नहीं दीखता, वैसे ही उन भगवान के धाम के नीचे अथवा ऊपर अथवा चारों तरफ कहीं भी अन्त नहीं है। क्योंकि, वह अपार है। उसकी थाह लगाने का प्रयास किया भी जाए, तो भी उसकी थाह नहीं मिल सकती। ऐसा महान है वह ब्रह्मपुर। उस ब्रह्मपुर में जो पदार्थ हैं, वे सब दिव्य चैतन्यमय हैं। उस धाम में असंख्य पार्षद रहे हैं। वे दिव्य आकारसहित तेजोमय हैं तथा समस्त भूतप्राणीमात्र के अन्तर्यामी हैं। वे सब भगवान की सेवा में निरन्तर तत्पर रहे हैं। उसी धाम के पति तथा अक्षरादि मुक्तों के स्वामी परब्रह्म पुरुषोत्तम ही इस सत्संग में विराजमान हैं। जिनको ऐसा निश्चय हो चुका है, वे ही ब्रह्मधाम को प्राप्त करते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ २६६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२९८. सर्वावतारी रूप से अपनी महिमा का निरूपण करके, श्रोताओं को पथ्य हो ऐसी हल्की सी बात करते हुए आगे कहते हैं।

२९९. सर्व अक्षरब्रह्म यानी ब्रह्म संज्ञा को प्राप्त हुए अनंत मुक्त, उन मुक्तों से भी श्रेष्ठ भगवान के धामरूप जो अक्षरब्रह्म हैं, यानी कि मूर्तिमान अक्षर हैं, वह अनादि हैं।

३००. अक्षरधाम में बाग-बगीचा आदि का वर्णन भगवान के विशेष सामर्थ्य के रूप में समझना। वस्तुतः मुक्त को भगवान की मूर्ति के सिवाय ऐसे किसी पदार्थ या भोग की अपेक्षा या इच्छा नहीं है।

३०१. ‘गो’ यानी किरणें, ‘लोक’ यानी स्थान, गो + लोक = तेजोमय अक्षरधाम।

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