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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद ७

अहमदावाद ७

संवत् १८८२ में फाल्गुन कृष्णा सप्तमी (३० मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्री अहमदाबाद-स्थित श्रीनरनारायण के मन्दिर में द्वार की मंजिल पर वासुदेवमाहात्म्य ग्रन्थ का वाचन करा रहे थे। इसके पश्चात् वे उठे और द्वार के निकटवर्ती नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान हो गए। उस समय सायंकाल हो चुका था। उन्होंने मस्तक पर गुलाबी रंग की पाग बाँधी थी, उसमें गुलाब के तुर्रे खोंसे थे। उनके कंठ में गुलाब के अनेक हार पड़े हुए थे। उन्होंने श्वेत पिछौरी ओढ़ रखी थी और सफ़ेद चूड़ीदार पायजामा पहना था। वे पूर्व की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय प्रागजी दवे ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! कृपया यह बताइए कि आपके स्वरूप में मन किस प्रकार स्थिर हो सकता है, जिससे वह कभी भी अन्यत्र आसक्त होकर व्यभिचारिता की ओर गिर न जाए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस प्रश्न के उत्तर को सुनिए। मन तो भगवान के माहात्म्य ज्ञान से ही भगवत्स्वरूप में स्थिर हो जाता है। उस माहात्म्य को किस प्रकार जानना चाहिए? तो सुनिए, पहले हमने पीपलाणा गाँव में लाधा विप्र के घर रामानन्द स्वामी से पूछा था कि, ‘आप सनातन ईश्वर हैं या आधुनिक ईश्वर?’ तब रामानन्द स्वामी मौन रह गए। जब हम आ. संवत् १८६९ के दुर्भिक्ष के समय बीमार पड़े थे, तब हम (समाधि में) क्षीरसागर में शेष-शय्या पर शयन करनेवाले शेषशायी नारायण के पास गए। वहाँ हमने रामानन्द स्वामी को देखा। उस समय उन्होंने सफ़ेद धोती पहनी थी और पिछौरी ओढ़ी थी। ऐसे ही अन्य अनेक भक्तों को भी हमने शेषशायी नारायण के चरणारविन्दों के समीप बैठे हुए देखा। तब हमने नारायण से पूछा कि, ‘ये रामानन्द स्वामी कौन हैं?’ नारायण ने बताया कि, ‘ये तो ब्रह्मवेत्ता हैं।’ नारायण के ऐसे बोलते-बोलते ही रामानन्द स्वामी नारायण के शरीर में लीन हो गए।

“इसके पश्चात् हम देह में वापस लौटे। तत्पश्चात् जब हमने अन्तर्दृष्टि की, तब प्रणवनाद को देखा। उसे देखते ही देखते भगवान शंकर का वाहन नन्दीश्वर आ गया। उस पर सवार होकर हम कैलास पर्वत पर शिवजी के पास गए। वहाँ गरुड़ आ गया। उस पर बैठकर हम वैकुंठ तथा ब्रह्मधाम में गए। वहाँ गरुड़ भी नहीं उड़ सका, अतः हम अकेले ही उन सबसे परे श्रीपुरुषोत्तम के धाम में पहुँचे। वहाँ भी मैं ही पुरुषोत्तम हूँ। मैंने अपने सिवा दूसरा कोई बड़ा नहीं देखा। इतने स्थानों पर घूमने के बाद हम देह में वापस लौटे, और पुनः अन्तर्दृष्टि करने पर हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि समस्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता भी मैं ही हूँ, तथा असंख्य ब्रह्मांडों के असंख्य शिव, असंख्य ब्रह्मा, असंख्य कैलास, असंख्य वैकुंठ और गोलोक, ब्रह्मपुर एवं असंख्य करोड़ अन्य स्थल मेरे ही तेज से तेजोद्दीप्त हैं।

“मैं कैसा हूँ? यदि मैं अपने पैर के अँगूठे से पृथ्वी को हिला दूँ, तो असंख्य ब्रह्मांडों की पृथ्वी डिगने लग जाएगीं। मेरे तेज द्वारा ही सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागण आदि तेजोमय बने हुए हैं। ऐसा जो मैं हूँ, वैसा मेरे सम्बंध में समझकर यदि निश्चय किया जाए, तो भगवान ऐसे मुझमें मन की वृत्ति स्थिर हो जाएगी और वह कभी भी व्यभिचरित नहीं होगी। और, जो-जो जीव मेरी शरण में आए हैं, वे यदि ऐसा समझ लेंगे, तो मैं उन सबको मेरा सर्वोपरि धाम प्राप्त करा दूँगा तथा उन्हें अन्तर्यामी जैसा कर दूँगा, और उन्हें इतना सामर्थ्यवान बना दूँगा कि वे ब्रह्मांडों की उत्पत्ति आदि करने में समर्थ हो जाए। परन्तु, सामर्थ्य प्राप्त करने के पश्चात् कोई स्वयं को इतना बड़ा जानने लगे कि, ‘मैं ही बड़ा हूँ,’ और ऐसा जानते हुए ऋषिरूप प्रत्यक्ष श्रीनरनारायण३०२ की गणना ही न करे, ऐसा अहंकार नहीं आने देना चाहिए और समझ लेना चाहिए कि, ‘श्रीनरनारायण की करुणा द्वारा ही मैं इस महत्ता को प्राप्त हुआ हूँ।’”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने इस प्रश्न का यह उत्तर दिया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ २६७ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


३०२. यहाँ नरनारायण के मिष अपनी ही सर्वोपरिपन की महिमा दिखाते हैं, वह इस वाक्य में प्रयुक्त ‘प्रत्यक्ष श्रीनरनारायण’ शब्द से स्पष्ट रूप से मालूम होता है।

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