share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद ८

अहमदावाद ८

संवत् १८८२ में फाल्गुन कृष्णा अष्टमी (३१ मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्री अहमदाबाद-स्थित श्रीनरनारायण के मन्दिर से उत्तर दिशावर्ती धर्मशाला में साधुओं को भोजन करा रहे थे। उन्होंने सुन्दर श्वेत रुमाल मस्तक पर बाँधा था, सफ़ेद धोती पहनी थी और बायें कन्धे पर दुपट्टा डालकर कमर बाँधी थी। उनके कंठ में गुलाब का बड़ा हार सुशोभित हो रहा था।

उस समय श्रीजीमहाराज ने पंक्ति में बैठे हुए साधुओं को लड्डू परोसते हुए यह वार्ता कही कि, “साधुओं को सर्व प्रकार से क्रोध को जीत लेना चाहिए। वह क्रोध तो जप, तप, ज्ञान आदि समस्त शुभ गुणों का नाश कर डाले ऐसा ही होता है। अतः जिस निमित्त क्रोध उत्पन्न होता है, उन निमित्तों को बताते हैं - एक तो साधुओं में परस्पर प्रश्नोत्तर के समय, वादविवाद के अवसर पर कोई पदार्थ लेन-देन में, किसी को दंड देते समय, अपनी शुश्रूषा में रहनेवाले साधु के प्रति पक्षपातवश, अपमान हो जाने से, ईर्ष्या उत्पन्न होने पर, आसन-स्थान पसन्द करते समय तथा भगवान का प्रसाद बाँटने में न्यूनाधिकता रहने पर आदि कारणों से क्रोध उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार क्रोध उत्पन्न होने के निमित्त तो अनेक होते हैं। यदि बड़े सन्त को क्रोध उत्पन्न हो, या किसी छोटे साधु को किसी कारण क्रोध उत्पन्न हो, तो जिस पर क्रोध हुआ है, उस व्यक्ति को उठकर साष्टांग दंडवत् प्रणाम करना। गद्‌गद-चित्त एवं दीनतायुक्त निष्कपटभाव से मधुर वचन द्वारा उसे प्रसन्न करना, यह हमारी आज्ञा है।

“यदि किसी साधु के सम्बंध में अपनी द्रोहबुद्धि के कारण कोई कुसंकल्प हो जाए, तो उसे उस साधु के सामने निष्कपट होकर अपने मुख से यह स्वीकार कर लेना कि, ‘हे महाराज! इस तरह का बुरा संकल्प आपके सम्बंध में हुआ है।’ फिर उस कुसंकल्प के दोष के निवारण के लिए उसे हाथ जोड़कर उससे क्षमा प्रार्थना करना। यदि कोई साधु को कोई हरिभक्त के उपर क्रोध हो गया, तो उस साधु को वचन द्वारा उस गृहस्थ से क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिए, और बैठकर नमस्कार करना। परन्तु साष्टांग दंडवत् प्रणाम मत करना। यदि सांख्ययोगी स्त्रियों में भी परस्पर क्रोध हो गया अथवा कर्मयोगी (गृहस्थ) स्त्रियों के प्रति क्रोध हो गया, तो उनकी वचन द्वारा क्षमा प्रार्थना करना और बैठकर नमस्कार करना। सांख्ययोगी पुरुष तथा साधु की तो एक ही रीति है, कि जिस पर क्रोध उत्पन्न हो जाए, उसे अपने स्वामी श्रीनरनारायण का भक्त जानकर, तत्काल अहंकार का त्याग कर नमस्कार करना, क्षमा प्रार्थना करना, परन्तु देहदृष्टि नहीं रखना कि, ‘मैं बड़ा हूँ तथा उत्तम हूँ। यह तो बड़ा नहीं है, छोटा है।’ ऐसा देहभाव नहीं रखना। अपने इष्टदेव श्रीनरनारायण भी क्रोध नहीं करते तथा अहंभाव नहीं रखते हैं। इसलिए, श्रीनरनारायण के आश्रित उद्धव-सम्प्रदाय के मतानुयायी हम सब लोगों को क्रोध तथा मान का समस्त प्रकार से त्याग कर देना तथा क्रोध के लिए हमने जो प्रायश्चित्त बताया है, उसे स्नेहपूर्वक करना। तब उस पर श्रीनरनारायण प्रसन्न होंगे और उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाएगा तथा उसके काम, क्रोध, मान, लोभ, मद, मत्सर आदि सभी दोष नष्ट हो जाएँगे। तथा क्रोध उत्पन्न होने पर भी यदि कोई इस प्रकार प्रायश्चित्त नहीं करेगा, तो उसे सर्पतुल्य ही (विषैला) जानना। उसे भगवान का भक्त नहीं मानना।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज की वार्ता को सुनकर साधु समस्त हरिभक्त पुरुष एवं स्त्रियाँ परम आनन्द को प्राप्त हुए।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ २६८ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase