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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

असलाली १

श्री असलाली-वचनामृतम्

संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ला द्वितीया (९ अप्रैल, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज ने श्रीअहमदाबाद नगर से गाजेबाजे के साथ प्रस्थान किया और सायंकाल वे श्रीअसलाली गाँव में पधारे। वहाँ गाँव की उत्तर दिशा में एक आम्रकुंज में उतरे यहाँ मंच पर विराजमान हुए। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में सुन्दर पुष्पों के हार पहने थे और पाग में फूलों के तुर्रे लटक रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज मुक्तानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी आदि समस्त साधुओं को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार बोले कि, “आप सब सुनिये, एक बात कहते हैं कि जिस भक्त को भगवान का स्वरूप जानने में कोई भी न्यूनता रह जाती है, तो उससे उसमें बड़ा दोष रह जाता है। इतना ही नहीं, जिन्हें भगवान पुरुषोत्तम, श्रीकृष्ण, श्रीवासुदेव, श्रीनरनारायण, परब्रह्म तथा श्रीनारायण कहते हैं, उनके स्वरूप का यथार्थ सुख भी नहीं मिल पाता और वह एकान्तिक भक्त भी नहीं हो पाता। अतएव, भगवान के एकान्तिक ज्ञानी भक्त की संगति से ज्ञान की दृढ़ता कर लेना, क्योंकि बिना भगवान के स्वरूप के ज्ञान को प्रजापति आदि जगत के स्रष्टा से लेकर हर किसी को बार-बार सृष्टि के साथ जन्म लेना पड़ता है तथा अन्त में पुनः माया में लीन हो जाते हैं। परन्तु, श्रीपुरुषोत्तम भगवान के अक्षरधाम को तो वे प्राप्त होते ही नहीं! क्योंकि उनकी समझ में ही दोष है।”

तब सभी मुनि बोले कि, “हे महाराज! कृपया बताइए कि समझ में उनका किस प्रकार का दोष है?”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिए! पहली बात तो यह है कि अपनी मुक्ति के लिए वे अपनी ही क्रिया का बल अधिक समझते हैं, परन्तु भगवान के आश्रय को ग्रहण नहीं करते। दूसरा दोष यह है कि वे ऐसा नहीं मानते हैं कि अक्षररूप होकर श्रीपुरुषोत्तम नारायण की सेवा करना ही मुक्ति है। तीसरा दोष यह है कि भगवान के राम, कृष्ण आदि अनेक अवतारों को तो वे अंशरूप जानते हैं, यही उनका बड़ा दोष है। चौथा दोष यह है कि पूर्वजन्म में उनकी मृत्यु के समय उनके मन में ऐसा संकल्प रहा था कि, ‘इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति किस प्रकार होती होगी, यह एक बार देखें तो सही!’ उनके उस संकल्प को देखकर ही भगवान ने उन्हें ब्रह्मांड की उत्पत्ति आदि कर्मों में नियुक्त किया है। इसलिए, जब वे भगवान के एकान्तिक भक्त के सत्संग द्वारा सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, तभी ब्रह्मरूप होकर भगवान के धाम को पा जाएँगे और महासुखी होंगे।

“अतः भगवान के भक्तों को भगवान की सेवा के सिवा दूसरी कोई इच्छा ही नहीं रखना। भगवान के भक्त भी तीन प्रकार के हैं, जिन्हें उनके विशेष लक्षणों के द्वारा पहचानना। पहला है ऐश्वर्यार्थी, जो भक्त भगवान का भजन कर विश्व की उत्पत्ति आदि सामर्थ्य को प्राप्त करने की इच्छा करता है। ऐसा ऐश्वर्यार्थी भक्त कनिष्ठ है। दूसरा है केवल्यार्थी, जो भक्त केवल आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए ही भगवान के भजन में तन्मय रहता है, ऐसा कैवल्यार्थी मध्यम कोटि के हैं। और तीसरा भक्त है भगवन्-निष्ठार्थी, जो निरन्तर अनन्यभाव से प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान की सेवा में निष्ठा रखता है। इसे सर्वोत्तम भक्त समझना। अतः हम सब तो प्रकट प्रमाण श्रीनरनारायण के प्रति निष्ठा रखते हैं, इसलिए उत्तम ही हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज के वचनों को सुनकर सभी परम आनन्द को प्राप्त हुए।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ २६९ ॥

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