share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २७

भगवान निरंतर निवास करके रहे ऐसी समझ

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला द्वादशी (२८ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज सूर्योदय के पूर्व श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में परमहंसों की जगह पर पधारे थे। उन्होंने सिर पर सफ़ेद फेंटा बाँधा था, श्वेत शाल ओढ़ी थी और धोती धारण की थी। वे पश्चिम की ओर मुखारविंद करके चबूतरे पर विराजमान थे। उनके समक्ष सभा में परमहंस बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज आधी घड़ी तक अपनी नासिका के अग्रभाग की ओर देखते रहे, फिर बोले, “परमेश्वर की भक्ति करने की सबकी इच्छा रहती है, किन्तु समझ में भेद रहता है। इसलिए, जिसकी इस प्रकार की समझ हो, तब उसके हृदय में भगवान समस्त प्रकार से निवास करते हैं। उसका विवरण यह है कि:

“जो ऐसा समझता हो कि, ‘जिनके रखने से यह पृथ्वी स्थिर रहती है और डुलाये जाने पर डोलती है; जिनके द्वारा रखे जाने पर तारामंडल ऊँचे टिका रहता है; जिनके बरसाने पर मेघ से वर्षा होती है; जिनकी आज्ञा से सूर्य और चन्द्र का उदय एवं अस्त होता है तथा चंद्र की कला घटती-बढ़ती है; तथा बिना पाल के समुद्र अपनी मर्यादा में रहता है; तथा जल के बिन्दु से मनुष्य उत्पन्न होता है और उसके हाथ, पैर, नाक, कान आदि दस इन्द्रियाँ निर्मित हो जाती हैं; अंतरिक्ष में जल यूं ही बिना आधार रख छोड़ा है तथा उसमें गड़गड़ाहट होती है और बिजली चमकती है - ऐसे अनन्त आश्चर्य हैं, वह मुझको प्राप्त हुए भगवान के द्वारा होते हैं।’ जो ऐसा समझता है, परन्तु प्रकट प्रमाण जो भगवान है उसके सिवा अन्य कोई भी इन आश्चर्यों का करनेवाला नहीं है, ऐसा मानता है तथा, ‘पूर्व काल में जो-जो आश्चर्य हुए हैं, अभी भी जो हो रहे हैं और भविष्य में भी जो होंगे, वह मुझे प्रकट मिले भगवान के द्वारा ही होते हैं,’ ऐसा समझे। और फिर उसमें ऐसी समझ हो कि, ‘चाहे कोई मुझ पर धूल डाले, चाहे कोई कितना ही अपमान करे, चाहे कोई हाथी पर बैठाये और चाहे कोई नाक-कान काटकर गधे पर बैठाये, ऐसी समस्त क्रियाओं में भी मुझे समान भाव है।’

“तथा जिसे रूपवती यौवना अथवा कुरूप स्त्री या वृद्धा तीनों में भी समभाव रहता है; और जो स्वर्ण के ढेर या पत्थरों के ढेर दोनों को एक ही समान समझता है; इस प्रकार के ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि अनेक शुभगुणों से सम्पन्न जो भक्त हो, उसके हृदय में भगवान निवास करते हैं। फिर ऐसा भक्त भगवान के प्रताप से अनन्त प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्त करता है और असंख्य जीवों का उद्धार करता है। तथा ऐसा सामर्थ्य रखने पर भी वह अन्य जीवों द्वारा किए गए मान एवं अपमान को सहन करता है। ऐसी सहनशीलता भी एक प्रकार का सामर्थ्य ही है, क्योंकि समर्थ होते हुए भी क्षमा करना, किसी से भी सम्भव नहीं हो सकता। अतः ऐसी तितिक्षा-क्षमा रखनेवाले को अति महान समझना।

“तथा वह समर्थ भी कैसा है? तो उसके नेत्रों द्वारा देखनेवाले स्वयं भगवान ही हैं। अतः ब्रह्मांड में जितने प्राणी हैं, उन सबके नेत्रों को प्रकाशवान करने में वे समर्थ होता है। उनके पैरों से चलनेवाले भगवान हैं, अतः वे ब्रह्मांड के समस्त जीवों के पैरों में चलने की शक्ति देने में समर्थ होत है। इसी प्रकार, उस सन्त की सभी इन्द्रियों में भगवान का निवास है, इसलिए वह ब्रह्मांड के समस्त जीवों की इन्द्रियों को प्रकाश देने में समर्थ होता है। अतएव, ऐसा संत संपूर्ण जगत के आधार-रूप हैं। वह तुच्छ जीवों द्वारा किए गए अपमान को सहन करते हैं, यह उनकी अतिशय महानता है।

“इस प्रकार समर्थ होने पर भी क्षमाभाव रखनेवाले ही अत्यन्त महान हैं। और जो अपने से गरीब व्यक्ति को आँखें दिखाकर डराता है और मन में समझता है कि, ‘मैं बड़ा आदमी हो गया हूँ,’ परन्तु वह बड़ा नहीं है। अथवा जगत में कोई अपनी सिद्धता दिखाकर लोगों को डराता है, ऐसे जगत में कितने ही जीव हैं, वे भगवान के भक्त नहीं, बल्कि माया के जीव हैं, और यमपुरी के अधिकारी हैं। ऐसे लोगों का जो बड़प्पन है, वह सांसारिक है। जिस प्रकार, संसार में सवारी के लिए घोड़ा नहीं रखनेवाले की अपेक्षा एक घोड़ा रखनेवाले को बड़ा माना जाता है तथा उसकी अपेक्षा पाँच घोड़े रखनेवाले को बड़ा माना जाता है, उसी तरह जिस व्यक्ति के पास ज्यों-ज्यों अधिक सम्पत्ति हो, उसे संसार-व्यवहार में लोग ‘बड़ा आदमी’ कहते हैं। परन्तु भगवान के भजन में उसकी कोई महानता नहीं है। तथा जिसकी मति ऐसी हो, कि ‘यह स्त्री तो अतिशय रूपवती है, और यह वस्त्र तो बहुत बढ़िया है, और यह महल तो बहुत सुन्दर है, यह तुम्बी तो बहुत अच्छी है और यह पात्र तो बहुत अच्छा है,’ ऐसे गृहस्थ तथा वेशधारी नकली साधु सभी तुच्छ बुद्धिवाले हैं।

“तब आप कहेंगे कि उनका कल्याण होगा या नहीं? तो वस्तुतः कल्याण तो सत्संग में रहनेवाले पामर जीव तक का होता है, परन्तु आगे कही गई ऐसी साधुता उसमें कभी नहीं आ पाती और पहले बताए गए सन्त के गुण उसमें कभी भी नहीं आते, क्योंकि वह सुपात्र नहीं हुआ है।”

इस प्रकार वार्ता करके ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर श्रीजीमहाराज दादाखाचर के राजभवन में अपने निवास स्थान पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २७ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase