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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

जेतलपुर १

जेतलपुर १

संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ला तृतीया (१० अप्रैल, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीजेतलपुर गाँव-स्थित प्रासाद के चौक में अशोकवृक्ष के नीचे बिछाए गए पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में गुलदावदी के अनेक हार पहने थे। पाग में मोगरा के तुर्रे झुके हुए थे। उन्होंने दोनों कानों पर कर्णिकार के पुष्प खोंसे थे तथा करकमल में सुन्दर नीबूफल को घूमा रहे थे। उस समय चार घड़ी दिन चढ़ा था। उनके समक्ष सन्तवृंद तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने सभा में उपस्थित सभी हरिभक्तों से प्रश्न किया कि, “इस लोक में तत्त्वज्ञान के सम्बंध में वाद-विवाद करनेवालों के दो मत हैं। एक तो द्वैत मत है, तथा दूसरा अद्वैत मत है। अब यह बताइए कि मुमुक्षु भक्त को इनमें से कौन-से मत को ग्रहण करना चाहिए?”

तब पुरुषोत्तम भट्ट बोले कि, “हे महाराज! अद्वैत मतानुसार अपनी आत्मा को ही भगवान जानकर चाहे जैसा हीन आचरण किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप भक्त मोक्षमार्ग से गिर जाता है। इसलिए मुमुक्षु को तो द्वैतमत का ही ग्रहण करना चाहिए।”

इस पर श्रीजीमहाराज ने यह प्रतितर्क प्रकट किया कि, “द्वैतमत में तो जीव, ईश्वर और माया को सत्य बताया गया है, ऐसी स्थिति में जब माया सत्य ठहरेगी, तब जीव का मोक्ष कैसे होगा?”

पुरुषोत्तम भट्ट बोले कि, “शुभकर्म करने पर मोक्ष हो जाता है।”

तब श्रीजीमहाराज ने पुनः यह आशंका व्यक्त कि, “निवृत्ति तथा प्रवृत्ति ये दो प्रकार के कर्म तो सुषुप्तिरूपी माया में लीन हो जाते हैं। वह सुषुप्ति कैसी है? तो जिस प्रकार लोकालोक पर्वत को लाँघने में कोई भी समर्थ नहीं होता, वैसे ही सुषुप्ति को लाँघने में कोई भी समर्थ नहीं होता। उससे परे तो साम्यावस्थारूपी माया बहुत बड़ी है। उसे लाँघना तो हर किसी से असंभव है। अतः उस सुषुप्तिरूप माया से मुक्त होने का उपाय तो यह है कि जब समस्त कर्मों को एवं माया को नाश करनेवाले तथा माया से परे निवास करनेवाले साक्षात् श्रीपुरुषोत्तम भगवान अथवा उन भगवान से मिले हुए सन्त की जीव को प्राप्ति होती है, तब उनके आश्रय से माया का उल्लंघन किया जा सकता है।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज प्रासाद में भोजन करने के लिए पधारे।

भोजन के पश्चात् श्रीजीमहाराज पुनः अशोकवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान हुए, और समस्त सन्तों तथा हरिभक्तों को अमृतदृष्टि से देखते हुए बोले कि, “मनुष्य का जब कोई अनुयायी न हो तब उसकी मनोवृत्ति दूसरे प्रकार की रहती है, और इसके बाद जब सौ मनुष्य उसको मानने लगते हैं तब उसका अहंकार अलग तरह का हो जाता है। और, जब हज़ार, लाख और करोड़ मनुष्य उसे मानने लग जाते हैं, तब उसका अहंकार भी भिन्न रूप धारण कर लेता है। अतः विवेकशील पुरुष तो कभी ब्रह्मा, कभी शिव और कभी इन्द्र तुल्य होने पर भी यही समझता रहता है कि, कि मेरी महत्ता इस प्रकार के पद या सत्ता के कारण नहीं है। मेरी महानता तो आत्मज्ञान के कारण है, तथा सन्त की संगति के कारण ही यह महत्ता बनी हुई है। क्योंकि ब्रह्मादि जैसे बड़े बड़े भी ऐसे सन्त की चरणरज के इच्छुक रहते हैं। तब सन्त की कितनी महत्ता होगी!

“तो अब सन्त की महिमा सुनिए। सन्त को तो द्रव्य, पदार्थ अथवा राज्य प्राप्ति से कोई महत्ता नहीं होती। सन्त की महत्ता तो भगवान की उपासना तथा भक्ति द्वारा होती है। सन्त में आत्मनिष्ठा है, इसलिए भी इनकी महत्ता बनी हुई है। यदि ऐसा ज्ञान न हो पाए, तो प्रकट भगवान जिन्हें मिले हैं, ऐसे सन्त में आत्मबुद्धि करके उन्हीं को अपनी आत्मा समझना, तथा अपना स्वरूप मानना। अपनी आत्मा के सम्बंध में जो ऐसा निश्चय कर लेता है, तो किसी को यह संशय हो सकता है कि जब सन्त को अपना स्वरूप समझा गया, तब तो दोनों में समानभाव आ जाने का भय है, और ‘ये मेरे स्वामी हैं, और मैं उनका सेवक अर्थात् शिष्य हूँ’ यह भाव कैसे रहेगा? इसके उत्तर में यह दृष्टान्त मनन करने योग्य है कि गालव राजा को यज्ञ के प्रयोजन से उन्हें श्यामकर्ण घोड़े लाने थे। श्यामकर्ण घोड़े तो वरुण लोक में थे। वहाँ जाना गालव राजा के लिए सम्भव नहीं था। अतः उन्होंने गरुड़जी को बुलवाया। उस पर सवार होकर वे वरुण लोक से घोड़े ले आए। तो क्या गरुड़जी पर सवार होने से गरुड़जी के प्रति गालव राजा का दासभाव मिट गया? नहीं मिटा। इसी प्रकार ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष के साथ आत्मबुद्धि (अपनापन) रखना, वह तो इसलिए कि ऐसे सद्‌गुरु के पास अष्ट आवरण को भेदकर पार ले जाने का सामर्थ्य है।”

ऐसी बातें कहकर उन्होंने बताया कि आप सब इस बात की दृढ़ता करना क्योंकि यह बात तो मानो भक्त का जीवन ही है!

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ २७० ॥

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