share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

जेतलपुर २

जेतलपुर २

संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ला चतुर्थी (११ अप्रैल, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीजेतलपुर गाँव में सायंकाल श्रीबलदेवजी के मन्दिर के चौक में बिछाए गए पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। पाग में मोगरा पुष्पों के तुर्रे लगे हुए थे। बायें हाथ में वे रूमाल रखे हुए थे, और दायें हाथ में तुलसी की माला फेर रहे थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय ब्रह्मानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज को प्रणाम करके यह प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! यति किसको कहते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसके हृदय में ब्रह्मचर्य की दृढ़ता हो और समस्त इन्द्रियाँ जिसके वश में रहती हों, उसे यति जानना। जो पुरुष हनुमानजी तथा लक्ष्मणजी के समान हो, उसे भी यति समझना। जब हनुमानजी रामचन्द्रजी की आज्ञा से सीताजी की खोज में लंका गए, तब जानकीजी की तलाश में उन्होंने लंका की सभी स्त्रियों को देख डाला। उन्हें देखते-देखते वे स्वतः यह भी कहते रहे कि, ‘ये तो जानकीजी नहीं हैं, ये तो जानकीजी नहीं हैं!’ ऐसा विचार करते-करते हनुमानजी ने मन्दोदरी को देखा, तब उन्होंने ऐसी कल्पना की कि, ‘शायद यही ये जानकीजी होंगी!’ बाद में उन्होंने मन ही मन सोचा कि, ‘जानकीजी को तो भगवान रघुनाथजी का वियोग है, अतः उनका शरीर इतना पुष्ट नहीं हो सकता, तथा ऐसी गहरी नींद भी नहीं हो सकती।’ ऐसा सोचकर हनुमानजी वहाँ से पुनः लौट गए। बाद में उनके मन में ऐसा संकल्प हुआ कि, ‘मैं तो यति हूँ और मैंने इन सब स्त्रियों को देखा है, तो मुझे कोई विघ्न तो उपस्थित नहीं होगा?’ परन्तु उन्होंने पुनः ऐसा विचार किया कि, ‘मैं तो रघुनाथजी की आज्ञा से ही जानकीजी की खोज कर रहा हूँ। इसलिए, यदि मैंने स्त्रियों को देख भी लिया, तो मुझे कोई भी विघ्न उपस्थित नहीं होगा। तथा आगे भी सोचा कि रघुनाथजी की कृपा से मेरी वृत्तियाँ तथा इन्द्रियों में किसी भी प्रकार का मनोविकार उत्पन्न नहीं हुआ है।’ यह विचार कर वे निःसंशय होकर पुनः घूम-घूमकर सीताजी की खोज करने लगे। इस तरह शत प्रतिशत विकार का हेतु होने पर भी जिसका अन्तःकरण हनुमानजी की तरह निर्विकार बना रहता है, उसे ही यति कहा जाता है।

“और, जब जानकीजी का हरण हुआ तब रघुनाथजी और लक्ष्मणजी सीताजी को खोजते हुए उस स्फटिक शिला पर गए, जहाँ सुग्रीव उपस्थित था। उन्होंने सुग्रीव को पूरी घटना सुनाई और कहा कि, ‘यदि आपको सीताजी की कोई खबर हो तो बताइए।’ तब सुग्रीव ने बताया कि, ‘हे महाराज! आकाश में मैंने किसी को “हे राम! हे राम!” शब्द कहते हुए सुना था। आकाश से ही वस्त्र में बाँधकर कुछ आभूषण भी गिराए गए थे, जो आज भी मेरे पास रखे हैं।’ फिर सुग्रीव ने समस्त आभूषण रघुनाथजी को सुपुर्द किए। रघुनाथजी ने सभी आभूषण लक्ष्मणजी को दिखाए। पहले कान के आभूषण, बाद में हाथों के बाजूबंद, आदि सब कुछ आभूषण दिखलाये, किन्तु लक्ष्मणजी उन्हें नहीं पहचान सके। अन्त में पैरों के झाँझर देखकर लक्ष्मणजी बोले कि, ‘हे महाराज! ये तो जानकीजी के झाँझर हैं।’ तब रघुनाथजी ने पूछा कि, ‘हे लक्ष्मणजी! आपने दूसरे आभूषण तो नहीं पहचाने, किन्तु पैरों के झाँझर कैसे पहचान लिए?’ तब लक्ष्मणजी ने कहा कि, ‘हे महाराज! जानकीजी का स्वरूप तो मैंने नहीं देखा। वास्तव में मैंने तो उनके चरणारविन्दों के सिवा उनका कोई भी अन्य अंग नहीं देखा। किन्तु प्रतिदिन सायंकाल जब मैं सीताजी के श्रीचरणों में प्रणाम करने के लिए जाता था, तब मैं उनके झाँझर को देखता था। इसलिए मैंने उनके झाँझर पहचान लिया।’ इस प्रकार वे चौदह वर्षों तक सेवा में रहे, फिर भी उन्होंने जानकीजी के चरणारविन्दों के सिवा उनके रूप और किसी अन्य अंग को बिल्कुल नहीं देखा। जो ऐसा हो, उसे ही यति समझना चाहिए।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “ये ब्रह्मानन्द स्वामी भी उनके समान हैं।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने सभा में उपस्थित सभी लोगों के समक्ष ब्रह्मानन्द स्वामी के यतित्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज गाँव के बाहर पधारे। वे वहाँ यज्ञस्थल के बरामदे में बिछाये गए पलंग पर विराजमान हुए। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “कुछ प्रश्नोत्तर करिए!”

तब पटेल आशजीभाई ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! इस जीव का स्वरूप कैसा है, वह यथार्थरूप से बताइए।”

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “जीव तो अछेद्य, अभेद्य, अविनाशी, चैतन्यरूप एवं मात्र अणुसदृश है। तब आप कहेंगे कि वह जीव कहाँ रहता है? तो जीव तो हृदयावकाश में रहता है और वहाँ रहकर वह विविध क्रियाओं को करता रहता है। अतः रूप देखने के लिए वह नेत्रों का उपयोग करता है। शब्द सुनने के लिए जीव कर्ण तक आता है, नासिका द्वारा वह अच्छी-बुरी गंध सूँघता है, रसना द्वारा वह रसास्वादन करता है, त्वचा द्वारा वह स्पर्शसुख का आनन्द लेता है, मन द्वारा वह मनन करता है, चित्त द्वारा वह चिन्तन करता है तथा बुद्धि द्वारा वह निश्चय भी करता है। इस प्रकार दस इन्द्रियों और अन्तःकरणों द्वारा वह समस्त विषयों को ग्रहण करता है तथा वह नख से लेकर शिखापर्यन्त शरीर में व्याप्त होकर रहता है। वह उससे अलग भी रहता है। ऐसा है जीव का स्वरूप। उस जीव को प्रकट प्रमाण पुरुषोत्तम श्रीनरनारायण के प्रताप से भक्त यथार्थरूप से देखता है। अन्य लोग तो जीव के स्वरूप को जान भी नहीं पाते।”

इस प्रकार प्रश्न का उत्तर देकर और सबको प्रसन्न करके श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर आवास में शयन के लिए पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ २७१ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase