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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

जेतलपुर ३

जेतलपुर ३

संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ला पंचमी (१२ अप्रैल, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीजेतलपुर ग्राम-स्थित प्रासाद में अपने निवासस्थान के पश्चिम की ओर समीपवर्ती पुष्पवाटिका में प्रातःकाल पधारे थे। वहाँ वे बड़े बोरसली वृक्ष के नीचे वेदिका पर बिछाए गए गद्दी-तकिया से युक्त पलंग पर पूर्वाभिमुख होकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कंठ में चम्पा, बोरसली और गुलदावदी के हार पहने थे। पाग में चमेली तथा मोगरा के तुर्रे लटकाए रखे थे, दोनों कानों पर हज़ारी पुष्पों के गुच्छे खोंसे थे तथा अपने दोनों करकमलों से अनार और नीबू के फलों के साथ खेल रहे थे। उनके समक्ष मुक्तानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी आदि मुनिगण और विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज थोड़ी देर विचार कर बोले कि, “सुनिये, एक वार्ता करते हैं कि, भगवान का भक्त यदि दुर्वासना रखता है, तो इससे बढ़कर दूसरी कोई बुराई नहीं हो सकती। दुर्वासनावाले भक्त हमारे समीप रहने पर भी सुखी नहीं रहते, क्योंकि उन्होंने प्रभु का भजन करते समय उनसे यह माँगा था कि, ‘हे महाराज! हमें अपने समीप रखियेगा।’ किन्तु, उन भक्तों ने अपनी दुर्वासना को नहीं मिटाया, इस कारण दुःखी बने हुए हैं।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! यह दुर्वासना किस प्रकार मिट सकती है?”

श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “दुर्वासना को मिटाने का उपाय तो यह है कि हमारे द्वारा निर्दिष्ट धर्ममर्यादा से भिन्न कोई संकल्प जब हो जाए, तथा किसी हरिभक्त और सन्त के विरुद्ध दुर्भाव का संकल्प हो जाए, तब ‘नरनारायण, स्वामिनारायण’ के नामों का बार-बार उच्च स्वर से उच्चारण करने से; तथा माहात्म्य एवं धर्मनिष्ठा के सहित भगवान की नवधा भक्ति करने से भगवान उस भक्त के हृदय में निवास करके दुर्वासना का नाश कर डालते हैं। जिस प्रकार भगवान ने ग्राह (घड़ियाल) के मुख से गज को छुड़ाया, वैसे ही दुर्वासना को मिटाने का यह उपाय बताया है।

“अपरंच आप सबके हित के लिए एक अन्य उपाय भी बताता हूँ, उसे सुनिए कि पंचव्रतों के पालन की जो धर्ममर्यादा है, उस मर्यादा को जानबूझकर कभी तोड़ना नहीं। यदि कदाचित् अनजाने में धर्ममर्यादा का उल्लंघन हो जाए तो तत्काल उसका प्रायश्चित्त कर लेना, तथा अपने स्वरूप को साक्षी (आत्मा) मानना कि मैं तो मन के संकल्पों से तथा नाना प्रकार के तर्कों से परे रहनेवाला चैतन्यरूप आत्मा ही हूँ, किन्तु मन सहित जो यह शरीर है, वह मैं नहीं हूँ। इस प्रकार का विचार करना, परन्तु भगवान किसी के सामने देखकर हँसते हों, या किसी को बुलाते हों या चाहे किसी प्रकार के अन्य चरित्र भी करते हों, परन्तु उसके सम्बंध में कभी भी दुर्भाव नहीं रखना। इस प्रकार की समझ रखना।

“अपरंच कोई भक्त तो ऐसा समझ बैठता है कि, ‘मैंने तो महाराज की बहुत साधना की, तथा बहुत सेवा की, फिर भी महाराज तो मुझे बुलाते ही नहीं, दूसरों को ही बुलाते हैं। अब तो मैं अपने घर बैठकर ही भजन करता रहूँगा।’ ऐसी दुर्भावना रखता है, तब हम यदि ऐसा सोचने लगें कि उससे हमें भी क्या लेना-देना? फिर तो ऐसे लोगों का कोई ठिकाना ही नहीं रहेगा। लेकिन हम तो किसी के भी प्रति दुर्भाव नहीं रखते। हमारा स्वभाव तो सदैव गुणग्राहक ही है।

“अब हम उस भक्त को गुण ग्रहण करने का तथा अवगुणों को मिटाने का उपाय बताते हैं। सबसे पहले तो वह भक्त ऐसा विचार करे कि, ‘मैं सत्संग करने के पहले कैसा था? उस समय तो मैं काल, कर्म से ग्रस्त था, एवं जन्म, मरण और चौरासी लाख योनियों में भटकता था। उस समय भगवान ने मुझे इन सबसे छुड़ाकर निर्भय किया तथा अच्छे गुण देकर बड़ा किया। मैं ऐसे उन भगवान के प्रति दुर्भावना क्यों रखूँ तथा प्रभु की रुचि की उपेक्षा करके अपनी ही मनमानी क्यों करूँ?’ ऐसा विचार करके जो भगवान के प्रति दुर्भाव नहीं रखता, वही सुखी हो सकता है। इस देह द्वारा भगवान की रुचि के अनुसार बरतना, इससे बढ़कर और कोई बड़ी बात हो ही नहीं सकती और भक्ति भी वही है। भगवान भी उसी साधना से ही प्राप्त होते हैं। इसलिए, मान, ईर्ष्या तथा काम, क्रोध एवं लोभ आदि कल्याण के विरोधी दोषों का परित्याग करना चाहिए। उन सभी दोषों में भी अहंकार तो सबसे बड़ी बुराई है। देखिए न, अन्य व्रतों के पालन में यदि कुछ थोड़ी-बहुत शिथिलता रह जाए, फिर भी वह सत्संग में निभ जाता है। परन्तु अहंकारी तो कभी ही टिक नहीं पाए। इसलिए, हे सन्तो! निर्मान आदि व्रतों के पालन में कभी भी विक्षेप नहीं रहने देना, अति सावधान बने रहना, और अपने स्वरूप को देह से भिन्न समझते रहना, श्रीपुरुषोत्तम जो श्रीनरनारायण उनकी भक्ति निरन्तर सावधानी के साथ करना तथा भगवान की निरंतर स्मृति सहित ही भजन करना, वह तो भगवान के प्रकट दर्शन के आनन्द के तुल्य है।

“दूसरी बात यह है कि हमारे सत्संग में यदि किसी ने शास्त्र अध्ययन में निपुणता प्राप्त की हो तो उससे वह महान नहीं है। तब कौन महान कहा जाएगा? सत्संग में महान तो वही है, जो संसार के चौदह लोकपर्यन्त समस्त पदार्थों को तृणवत् समझता हो, और अतिशय वैराग्य से युक्त हो, जिसे देह में जैसी आत्मबुद्धि की दृढ़ता है वैसी ही परमात्मा पुरुषोत्तम के स्वरूप की दृढ़ता का साक्षात्कार हो तथा सुषुप्ति-अवस्था में जिस प्रकार जगत की विस्मृति है वैसी जाग्रत अवस्था में भी जगत की विस्मृति रखता हो, ऐसी स्थिति से सम्पन्न भक्त ही हमारे सत्संग में महान है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ २७२ ॥

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