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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

जेतलपुर ४

जेतलपुर ४

संवत् १८८२ में चैत्र शुक्ला षष्ठी (१३ अप्रैल, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीजेतलपुर ग्राम-स्थित प्रासाद के दक्षिणवर्ती झरोखे में गद्दी-तकिये का सहारा लेकर विराजमान थे। उनके मस्तक पर पुष्पों की सेहरोंवाली श्वेत पाग सुशोभित हो रही थी। उन्होंने श्वेत पुष्पों की पिछौरी ओढ़ी थी, समस्त अंगों में केसरयुक्त चंदन लगाया था, श्वेत रेशमी किनारेवाली धोती धारण की थी और कंठ में गुलदावदी के हार पहने थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज सभा में उपस्थित सभी लोगों से कहने लगे कि, “इस लोक में जीव के कल्याण का साधन तो यही है कि प्रत्यक्ष भगवान के स्वरूप का निश्चय हो तथा उनके दर्शन करता हो, तथा उनकी अखंड स्मृति बनी रहे, तभी उसका कल्याण होता है। क्योंकि श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है कि कंस, शिशुपाल और दन्तवक्र आदि जो दैत्य भगवान की निन्दा किया करते थे, उनको भी भगवान की अखंड स्मृति रही, तो उनका कल्याण हो गया। अतः भगवान की निरन्तर स्मृति होने से कल्याण होता है। ऐसी स्मृति आप सबको भी है, इसलिए आप लोगों का कल्याण तो हो चुका है। फिर भी, देह की स्मृति रहने तक आप सब हमारे द्वारा निर्धारित धर्ममर्यादा का समस्त प्रकार से पालन करते रहना।

“तब आप यह कहेंगे कि, ‘भगवान तो प्राप्त हुए हैं, तथा उनकी स्मृति भी निरन्तर रहती है, ऐसी स्थिति में पंचव्रतों (निष्कामादि धर्म-नियमों) के पालन का क्या प्रयोजन हो सकता है?’ तो इसका उत्तर यह है कि, एक भक्त ऐसा है जो व्रतों के पालन की दृढ़ता रखता है, तथा दूसरा भक्त व्रतों के पालन में शिथिल रहता है, उन दोनों में कितना अन्तर है? यह बताते हैं: भगवान की स्मृति तो दोनों को है, परन्तु जो नियम-धर्मरहित है, उससे तो केवल अपना ही कल्याण होता है, किन्तु उसके द्वारा अन्य जीव का कल्याण नहीं होता तथा वह एकान्तिक भक्त भी नहीं हो सकता, और भगवान के निर्गुण धाम को भी नहीं प्राप्त होता। यद्यपि वह जन्म-मरण से रहित तो हो जाता है, किन्तु फिर भी वह सत्संग में नहीं बैठ पाता। आप सब तो उत्तम भक्त हैं। धर्म-नियमयुक्त आप जैसे साधुजनों की तो बात ही निराली है। इसलिए, आपको जो कोई सद्भावपूर्वक भोजन कराएगा, उसे कोटि यज्ञों का फल मिलेगा, और अन्त में उसका मोक्ष हो जाएगा। जो कोई आपके चरणों का स्पर्श करेगा, उसके कोटि जन्मों के पाप नष्ट हो जाएँगे। जो कोई भक्त आपको भावपूर्वक वस्त्र ओढ़ाएगा, उसका भी परम कल्याण हो जाएगा। आप जिस-जिस नदी और तालाब में चरण रखते हैं, वे सब तीर्थरूप हो जाते हैं। आप जिस-जिस वृक्ष के नीचे बैठते हों तथा जिस-जिस वृक्ष के फल खाते हों, उन सबका कल्याण हो जाता है। जो कोई भावपूर्वक आपके दर्शन करता है तथा जो कोई आपको भावपूर्वक प्रणाम करता है, उसके सभी पापों का क्षय हो जाता है। आप जिससे भगवान की बात कहते हैं, तथा जिस किसी को धर्म सम्बंधी नियमों की दीक्षा देते हैं, उसका मोक्ष हो जाता है। इस प्रकार के धर्म-नियमवाले आप जैसे सन्तों की समस्त क्रियाएँ कल्याणरूप होती हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष श्रीनरनारायण ऋषि का आपको दृढ़ आश्रय है। वे श्रीनरनारायण ऋषि आपकी सभा में निरन्तर विराजमान रहते हैं।

“अब आप कहेंगे कि भगवान का दृढ़ आश्रय रहते हुए भी मायिक गुण क्यों हावी हो जाते हैं? तो सुनिए, वही बात बताते हैं कि सबको षडूर्मि रहित तथा मायिक गुणरहित करने में कोई देर नहीं है। असंख्य जन्मों की स्मृति हो जाए तथा स्वयं अपने आप अनन्त ब्रह्मांडों की उत्पत्ति आदि क्रिया को सम्पन्न कर सके, ऐसे समर्थ बनाने में भी कोई विलंब नहीं है। परन्तु हमने अपनी इच्छा से आप सबको इस स्थिति में रखा है और आपके सामर्थ्य को भी अवरुद्ध कर दिया है। यह इसलिए किया है कि आप प्रत्यक्ष भगवान के सुख को प्राप्त कर सको। इसी कारण आज स्वयं श्रीपुरुषोत्तम श्रीनरनारायण ऋषि के रूप में प्रकट होकर आपको मिले हैं। अतः निःसंशय होकर आप आनन्द में रहकर भजन करते रहना।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज मौन हो गए।

उस समय आशजीभाई ने श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “हे महाराज! कृपया यह बताइए कि वैरभाव से जो कल्याण होता है, वह कैसे होता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “द्रुपद राजा थे, उन्हें अपनी पुत्री द्रौपदी का विवाह करना था। इसलिए उन्होंने स्वयंवर रचा। उसमें भाग लेने के लिए उन्होंने सभी राजाओं को आमंत्रित किया था। इस अवसर पर द्रोणाचार्य और पांडव भी आए थे। बाद में दूसरे सभी राजाओं ने मिलकर मत्स्यवेध करने का प्रयास किया, किन्तु कोई भी राजा मत्स्यवेध न कर सका। तब युधिष्ठिर ने कहा कि, ‘मैं मस्यवेध करूँगा।’ ऐसा कहकर युधिष्ठिर ने अपने धनुष पर बाण लगाया। तब द्रोणाचार्य ने उनसे पूछा कि, ‘क्या आपको यह सभा दिखायी पड़ती है?’ उन्होंने कहा कि, ‘यह दीखती है।’ उन्होंने फिर पूछा कि, ‘क्या आपको अपना शरीर दिखायी पड़ता है?’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि, ‘मैं इसे भी देखता हूँ।’ तब द्रोणाचार्य ने कहा कि, ‘आप मत्स्यवेध नहीं कर सकेंगे।’ इस प्रकार चारों भाई मत्स्यवेध करने में समर्थ न हो सके।

“बाद में अर्जुन आए और उन्होंने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ायी। तब द्रोणाचार्य ने पूछा कि, ‘क्या आप इस सभा को देखते हैं?’ अर्जुन ने उत्तर दिया कि, ‘न तो मैं इस सभा को देखता हूँ, और न मुझे मत्स्य ही दिखायी पड़ रहा है, किन्तु मैं मत्स्य पर के पक्षी को देखता हूँ।’ तब द्रोणाचार्य ने कहा कि, ‘पक्षी के मस्तक की ओर अपनी दृष्टि स्थिर करो।’ तब अर्जुन ने अपनी दृष्टि स्थिर करके कहा कि, ‘मैं अभी पक्षी को पूरी तरह नहीं देख सकता। मैं तो केवल उसके मस्तक को ही देख पा रहा हूँ।’ द्रोणाचार्य ने कहा कि, ‘अब मत्स्यवेध करो।’ तब अर्जुन ने मत्स्य का मस्तक बींध डाला।३०३

“ऐसे ही एकमात्र केवल भगवान के स्वरूप में ही वृत्तियों का निरोध हो जाए, तो उसे वैरभाव से मुक्ति मिल जाती है। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के स्वरूप में शिशुपाल तथा कंस आदि की वृत्तियाँ तदाकार हो गयी थीं, तभी उनका कल्याण हुआ। यदि इस प्रकार का अति तीव्र द्रोह न रहे, तो वह द्रोह करनेवाला नारकी होता है। इससे तो भगवान की भक्ति करना ही सुलभ है और, द्रोहबुद्धि रखकर भगवान का भजन करनेवाले का नाम अमर रूप से असुर ही रहता है, जो कभी भी नहीं मिट सकता तथा वह भक्त भी नहीं कहलाता। इसलिए, जिसे आसुरी रीति का परित्याग कर ध्रुव, प्रह्‌लाद, नारद और सनकादि की पंक्ति में सम्मिलित होना हो, उसके लिए तो भक्तिपूर्वक भगवान का भजन करना ही अति श्रेष्ठ कार्य रहेगा।”

इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने वार्ता कही, जिसे सुनकर सभी मुनि आदि भक्त समुदाय परम आनन्दित हुआ।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ २७३ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


३०३. इस महाभारत के प्रसंग में पाठभेद दिखाई दे रहा है। महाभारत के अनुसार द्रोणाचार्य के साथ हुई घटना में राजकुमारों की कसौटी का प्रसंग जुड़ा हुआ है, जो कि पाण्डव, कौरव जब विद्यार्थी अवस्था में हस्तिनापुर में शस्त्रविद्या की शिक्षा ले रहे थे। जबकि मत्स्यवेध के समय द्रुपद के राजभवन में मत्स्यवेध की घटना साकार हुई थी, जहाँ द्रोणाचार्य उपस्थित नहीं थे। अतः इसे पाठभेद के रूप में देखना ही उचित है।

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