share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २८

अर्धदग्ध काष्ठ; साधना में उत्थान-पतन

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला चतुर्दशी (३० दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष भोजन के लिए साधुओं की पंक्ति बैठी थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिस सत्संगी का सत्संग से पतन होनेवाला हो, उसमें असद् वासना की वृद्धि होती है तथा उसे सबसे पहले तो दिन-प्रतिदिन सत्संगीमात्र के प्रति दोष-भावना हो जाती है और वह अपने हृदय में ऐसा समझता है कि, ‘सभी सत्संगी नासमझ हैं, और केवल मैं ही हूँ, जो समझदार हूँ।’ इस प्रकार वह सबसे अधिक अपने आपको ही महत्त्वपूर्ण समझता है। ऐसा व्यक्ति रात-दिन अपने हृदय में स्वयं को हताश महसूस करता है और दिन में किसी भी जगह चैन से नहीं बैठ पाता। यदि वह रात में सोये, तो उसे नींद तक नहीं आती तथा उसका क्रोध कभी मिटता ही नहीं और आधे जले हुए काष्ठ की भांति उसका हृदय अर्धदग्ध रहा करता है। जिसकी दशा इस प्रकार की हो जाए, उसे देखकर समझना चाहिए कि, ‘सत्संग से इसका पतन होनेवाला है।’ ऐसी दशा में वह चाहे जितने भी दिन सत्संग में रहे, परन्तु उसे कभी भी आनन्द नहीं मिलता और अन्त में उसका पतन निश्चित ही हो जाता है।

“इसके अलावा सत्संग में जिसकी प्रगति होनेवाली हो, उसकी शुभ-वासना में वृद्धि होती है। उसके हृदय में दिन-प्रतिदिन सत्संगीमात्र के प्रति गुणदृष्टि ही रहा करती है और वह सभी हरिभक्तों को महान समझता है, तथा स्वयं को न्यून समझता है। उसके हृदय में आठों प्रहर सत्संग का आनन्द छाया रहता है। जब ऐसे लक्षण हों, तब समझना चाहिए कि, ‘उसकी शुभ-वासना में वृद्धि हो चुकी है।’ वह जितना ही अधिक सत्संग करता है, उतनी ही अधिक उसकी उन्नति होती जाती है और अतिशय महत्ता को वह प्राप्त करता है।”

इस प्रकार बात करके श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २८ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase