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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २९

धर्मादि बल की वृद्धि का उपाय; प्रारब्ध, कृपा एवं पुरुष प्रयत्न

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला पूर्णिमा (३१ दिसम्बर, १८१९) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, माथे पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद पुष्पों के हार पहने थे और पाग में श्वेत पुष्पों का तुर्रा लटक रहा था। उनके मुखारविन्द के समक्ष स्थान-स्थान के साधु तथा हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “प्रश्न पूछिये।”

तब गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि, “धर्म, ज्ञान, वैराग्य सहित भक्ति के बल की वृद्धि किस प्रकार होती है?”

श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा, “उसके लिए चार उपाय हैं, जिनमें से एक तो पवित्र देश, दूसरा पवित्र काल, तीसरी शुभ क्रिया और चौथा सत्पुरुष का संग, ये चार हैं। उनमें क्रिया का सामर्थ्य थोड़ा तथा देश, काल और संग का सामर्थ्य विशेष रहता है; क्योंकि यदि पवित्र देश हो, पवित्र काल हो, और आप जैसे सन्त का संग हो, तो वहाँ क्रिया शुभ ही होती है। और यदि सिन्ध जैसा अपवित्र देश हो, तथा अशुभ काल हो और पतुरियों (वेश्याओं), भडुवों अथवा मद्यपान-मांसभक्षण करनेवालों का संग हो, तो वहाँ क्रिया भी बुरी ही होती है। अतः पवित्र देश में रहना, अशुभ काल का प्रभाव हो, तो उस समय इधर- उधर खिसक कर वहाँ से निकल जाना चाहिए; और संग भी प्रभु के भक्तों का एवं पंचव्रतयुक्त ब्रह्मवेत्ता साधु का ही करना चाहिए; तभी हरिभक्त को परमेश्वर की भक्ति के बल की अतिशय वृद्धि होती है। इस प्रश्न का यही उत्तर है।”

इसके बाद मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! कोई हरिभक्त का अन्तःकरण पहले तो मलिन-सा रहता हो, और बाद में वह अत्यन्त शुद्ध हो गया, तो क्या उसके पूर्वसंस्कार३९ के कारण ऐसा हुआ? या भगवान की कृपा के कारण ऐसा हुआ? अथवा इस हरिभक्त के पुरुषार्थ के कारण शुद्धि हुई?”

तब श्रीजीमहाराज ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया, “पूर्वजन्म के संस्कारों के अनुसार, जो अच्छा या बुरा फल मिलता है, वह तो समस्त जगत को ज्ञात हो जाता है। जैसे भरतजी को मृग में आसक्ति हुई, इस दृष्टांत में प्रारब्ध को महत्त्व देना चाहिए। जैसे कोई कंगाल हो, फिर उसे बड़ा राज्य मिले, ऐसा होने पर सब संसार उसे जान पाता है, तब ऐसी घटना को प्रारब्ध ही मानना चाहिए।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज ने अपनी बात कही कि, “हमने जो-जो साधनाएँ की थीं, उनमें किसी भी तरह जीवित रहना संभव नहीं था, फिर भी देह जीवित रह गयी, तो वह भी प्रारब्ध४० ही है। जैसे हम जब श्रीपुरुषोत्तमपुरी (जगन्नाथपुरी) में निवास करते थे, तब कई मास तक वायुभक्षण करके ही रहे थे। एक बार तो हमने तीन-चार कोस के पाटवाली नदी में अपना शरीर बहता हुआ छोड़ दिया था और शीतकाल, ग्रीष्मकाल तथा चौमासे में हम बिना छाया के मात्र एक कौपीन धारण करके रहते थे। झाड़ी में बाघों, हाथियों और जंगली भैसों के साथ घूमते-फिरते थे। हमने ऐसे-ऐसे अनेक विकट ठिकानों में भ्रमण किया, तो भी किसी तरह देह नहीं छूटी (मृत्यु नहीं हुई)। यहाँ ‘प्रारब्ध’ को ही महत्त्व देना चाहिए।

“और जैसे सान्दीपनि नामक ब्राह्मण का पुत्र नरक से मुक्त हुआ, तथा जैसे पाँच वर्ष के ध्रुवजी भगवान की स्तुति करने लगे, तब वेदादि के अर्थ उन्हें सहज में ही स्फूर्त हो गए। इस प्रकार अति शुद्धभाव से प्रसन्न हुए भगवान की इच्छा से तथा उनके वरदान से अथवा अति-शुद्धभाव से प्रसन्न हुए भगवान के एकान्तिक साधु के वरदान से यदि किसी की बुद्धि पवित्र हो जाए, तो उसे भगवान की कृपा समझना चाहिए। तथा पवित्र साधु के संग से एवं स्वयं अपने विचार के द्वारा जो पवित्र होते हैं, उसे पुरुषार्थ कहना चाहिए।”

इस प्रकार बात करके ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर श्रीजीमहाराज हँसते हुए अपने निवास पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २९ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


३९. पूर्वसंस्कार अर्थात् अगले जन्मों में संचित एवं इस शरीर की उत्पत्ति में कारणरूप प्रारब्ध कर्म।

४०. भगवान को प्रारब्ध कर्म का सम्बंध न होने पर भी उन्होंने मनुष्यरूप धारण किया है, इसलिए यहाँ ‘प्रारब्ध’ शब्द से श्रीहरि अपनी बात करते हैं।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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