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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३

लीलाचरित्र-स्मरण

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठी (२३ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में रात्रि के समय विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस पुरुष को अपने हृदय में भगवान की मूर्ति निरन्तर रूप से दिखाई देती हो, उसे भी भगवान के जिस-जिस अवतार ने जहाँ-जहाँ पर जो-जो लीलाएँ की हों, उनको स्मरण में रखना, तथा ब्रह्मचारियों, साधुओं एवं सत्संगियों के साथ स्नेह रखना और उन सभी का स्मरण भी रखना चाहिए। वह इसलिए कि कदाचित् देह-त्याग के समय यदि भगवान की मूर्ति विस्मृत हो गई, तो भी भगवान ने जिन स्थानों में जो लीलाएँ की हैं, उनकी स्मृति हो जाए तथा सत्संगी, अथवा ब्रह्मचारी अथवा साधुओं की स्मृति हो जाए, तो उनकी स्मृति के फलस्वरूप भगवान की मूर्ति का भी स्मरण हो आता है। ऐसे मुमुक्षु की जीवात्मा उच्च पद को प्राप्त हो जाती है और उसका कल्याण हो जाता है। इसीलिए हम बड़े-बड़े विष्णुयाग तथा प्रतिवर्ष जन्माष्टमी, एकादशी आदि व्रतोत्सवों का आयोजन करते हैं और उनमें ब्रह्मचारियों, साधुओं तथा सत्संगियों को एकत्र करते हैं। क्योंकि यदि कोई पापी भी हो और उसे अपने अन्त समय पर ऐसी स्मृति हो जाए, तो उसे भगवान का धाम प्राप्त हो जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥

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