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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३०

संकल्पों के घाव से निवृत्त होने का उपाय

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा प्रतिपदा (१ जनवरी, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के निकटवर्ती उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी, श्वेत चादर ओढ़ी थी, सिर पर सफ़ेद फेंटा धारण किया था तथा श्वेत पुष्पों के हार पहने थे। उनके दोनों कानों में श्वेत पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे। उन्होंने सफ़ेद फूलों के बेरवे पहने थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे तथा मुनिमंडल कीर्तन कर रहा था।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब तो प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए।”

तब श्रीजीमहाराज से दीनानाथ भट्ट ने पूछा कि, “हे महाराज! कभी-कभार तो सहस्रों संकल्प४९ उठे, किन्तु मन में उनका दंश४२ नहीं बैठता। कभी-कभार तो अल्प संकल्प होने पर भी मन में उस संकल्प का दंश लग जाता है, उसका क्या कारण है? और भगवान के भक्त के लिए मन के इन संकल्पों से निवृत्त होने का कौन-सा उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका कारण तो (माया के तीन) गुण हैं। जब तमोगुण की प्रधान अवस्था हो, उस समय मन में संकल्प हुआ, तब सुषुप्ति के समान अवस्था रहती है; अतः संकल्प का दंश चुभता नहीं है। जब सत्त्वगुण की प्रधान अवस्था होती है, तब अंतःकरण प्रकाशित-सा रहता है। अतः उस समय जो भी संकल्प होते हैं, वे ज्ञान द्वारा ही मिथ्या किए जाते हैं। अतः उस समय होनेवाले संकल्पों के भी दंश नहीं जमते! परन्तु जब रजोगुण का प्राधान्य रहता है, तब मन में जो संकल्प होते हैं, उनके दंश मन में गहराई तक उतर जाते हैं। अतः दंश बैठता है या आसक्ति उमड़ती है अथवा नहीं, इन सबका कारण तो गुणों की वृत्ति है। और कोई बुद्धिमान ही इस बात को समझकर जिस समय पर जो संकल्प हुआ, उसे देखकर अपने भीतर जिस गुण की प्रधानता हो, उसे पहचान सकता है। और घड़ी-घड़ी और पल-पल में जो सूक्ष्म संकल्प होते हैं, वे तो किसी को ज्ञात ही नहीं हो पाते! यदि आप जैसा कोई बुद्धिमान् हो तो दिनभर में दो, तीन, चार स्थूल संकल्पों को पहचान पाता है तथा जिस गुण की प्रधानता के कारण संकल्प होते हैं, उनके सामने दृष्टि रखते हुए, सत्संग में हो रही भगवान की वार्ता को हृदय में धारे और उसका चिन्तन करे, तो इस सत्संग का प्रताप ऐसा है कि उसे जिस गुण के द्वारा संकल्प होते हों उन संकल्पों की निवृत्ति हो जाती है और निरुत्थान४३ होकर परमेश्वर के स्वरूप का अखंड चिन्तन होने लगता है। बिना सत्संग के कोटि प्रकार की साधना करने पर भी संकल्प तथा रजोगुण आदि गुणों से छुटकारा नहीं मिल पाता। यदि कोई निष्कपट भाव से सत्संग करता है और परमेश्वर की बात को हृदयस्थ करके उस पर विचार करता है, तो उसके मलिन संकल्प नष्ट हो जाते हैं। अतः सत्संग का प्रताप अतिशय महान है। अन्य कोई भी साधन सत्संग के समान महिमामय नहीं होते; क्योंकि अन्य किसी भी साधना से जिस संकल्प की निवृत्ति नहीं होती, उसकी निवृत्ति सत्संग में होती है। इस कारण को दृष्टिगत रखते हुए, जिसे रजोगुण सम्बंधी मलिन संकल्प नष्ट करने हों, उसे मन, कर्म तथा वचन द्वारा निष्कपट भाव से सत्संग करना चाहिए, तभी सत्संग के प्रताप से उन संकल्पों की निवृत्ति हो जाएगी।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३० ॥

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४१. मायिक विषयभोग को जुटाने के संकल्प।

४२. वासना की तीव्रता का असर।

४३. पुनः संकल्प का उत्थान ही न हो ऐसी स्थिति।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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