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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३१

निश्चय द्वारा महत्ता

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा द्वितीया (२ जनवरी, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में अपने निवासस्थान के पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में गादी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे।

उस समय योगानन्द मुनि ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! भगवान के भक्त दो प्रकार के होते हैं। उनमें से एक तो निवृत्ति मार्ग४४ को अपनाता है और किसी को भी अपनी वाणी से दुःख नहीं पहुँचाता, तथा दूसरा भक्त परमेश्वर और उनके भक्तों की अन्न, वस्त्र एवं पुष्पादि से सेवा करता रहता है, किन्तु वचन से किसी को (भगवत् सेवा के निमित्त) कुछ दुःख पहुँचाता है, इन दोनों भक्तों में कौन-सा भक्त श्रेष्ठ है?”

तब श्रीजीमहाराज ने इसका उत्तर नहीं दिया और मुक्तानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी को बुलवाकर उन्हें यह प्रश्न सुनवाया। फिर उनसे कहा कि, “इसका उत्तर आप दीजिए।”

तब इन दोनों ने उत्तर दिया कि, “अपने वचन द्वारा किसी को कुछ दुःख भले ही पहुँचाता हो, किन्तु भगवान अथवा सन्त की जो सेवा करता है, वह श्रेष्ठ है, परन्तु निवृत्तिमार्ग पर चलनेवाला भक्त यद्यपि किसी को दुःख नहीं देता, फिर भी उससे भगवान तथा सन्त की कोई सेवा नहीं हो सकती, तो उसे असमर्थ-सा जानना और सेवा-चाकरी करनेवाला तो भक्तिमान कहा जाता है, वह भक्तिवाला ही श्रेष्ठ है।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह उत्तर ठीक है। और जो ऐसी भक्तिवाला हो, तथा भगवान के वचन में दृढ़ रहता हो, फिर उसमें अल्प मात्रा में भी (कठोर वाणीरूप) दोष दिखायी पड़े और उसे देखकर उसका अवगुण ग्रहण किया जाए, तो यह एक बड़ी कमी है। अगर इस प्रकार दोष देखे, तब जीवों के कल्याण के लिए परमेश्वर ने देह धारण की है, उनके स्वरूप में भी दोष देखनेवाले को भी कमी अवश्य दिखेगी! और वैसे ही भगवान के अति बड़े भक्त में भी उसे अवश्यरूप से दोष दिखाई देगा। परन्तु दोष देखनेवाले ने कमी ढूँढ निकाली, उससे क्या परमेश्वर के अवतार अथवा सन्त कल्याणकारी नहीं रहे? वस्तुतः वे तो कल्याणकारी ही हैं, किन्तु जिसकी दुर्बुद्धि है, उसे सब कुछ उल्टा ही दिखाई पड़ता है। जैसे शिशुपाल कहता था कि, ‘पांडव तो वर्णसंकर हैं, और पाँच पुरुषों की केवल एक ही स्त्री है, इसलिए वे धार्मिक भी नहीं हैं। तथा कृष्ण भी पाखंडी है, क्योंकि उसने जन्मकाल से ही, पहले तो एक स्त्री को उसने मार डाला, इसके बाद बगुले और बछड़े का भी वध कर डाला और मधु (शहद) का छत्ता उखाड़ने के कारण उसे मधुसूदन कहते हैं, परन्तु उसने कोई मधु नामक दैत्य को नहीं मारा! फिर भी वर्णसंकर पांडवों ने उसकी पूजा की, तो क्या वह इससे भगवान हो गया?’ इस प्रकार आसुरी बुद्धिवाले शिशुपाल ने भगवान और उनके भक्तों पर दोषारोपण किया, परन्तु भगवान के भक्तों ने ऐसा कोई भी दोष ग्रहण नहीं किया। इसलिए, जो अवगुण देखता है, उसे आसुरी बुद्धिवाला ही समझना चाहिए।”

तब मुनियों ने पुनः प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! जो महान भक्त होते हैं, उनमें तो कोई अवगुण दिखाई नहीं देता, परन्तु कोई साधारण से हरिभक्त के कुछ दोष तो दिखेंगे कि नहीं?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “आप सब जैसा समझते हैं, उस प्रकार किसी की लघुता और महानता नहीं होती है। महत्ता तो प्रत्यक्ष भगवान के निश्चय से तथा उन भगवान की आज्ञा का पालन करने में है। जो पुरुष इन दोनों बातों पर ध्यान नहीं देता, वह व्यावहारिक दृष्टि से चाहे कितना ही बड़ा हो, वह छोटा ही रहता है। और पहले बताई गयी महत्ता तो आजकल अपने सत्संग में सब हरिभक्तों में है। क्योंकि आज जो हरिभक्त हैं, वे सब ऐसा समझते हैं कि, ‘अक्षरातीत भगवान पुरुषोत्तम हमें प्रत्यक्षरूप से मिले हैं, और हम कृतार्थ हुए हैं।’ ऐसा समझकर वे प्रत्यक्ष भगवान की आज्ञा में रहते हुए भगवान की भक्ति करते हैं, ऐसे हरिभक्तों का कोई सामान्य सा देह-स्वभाव देखकर उनका अवगुण-ग्रहण नहीं करना चाहिए। अवगुण देखने का स्वभाव जिसका भी होता है, उसकी तो आसुरी बुद्धि हो जाती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


४४. अपनी वाणी, क्रिया आदि से किसी को भी दुःख न पहुँचे उस प्रकार एकांत में अंतर्वृत्ति करके रहना।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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