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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३२

घोंसले और खूंटे के दृष्टांत से भगवान के स्वरूप में विराम

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा तृतीया (३ जनवरी, १८२०) को प्रातःकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, ललाट में केसर-मिश्रित चन्दन लगाया था, सफ़ेद फूलों का हार पहना था और पाग में सफ़ेद फूलों का तुर्रा लटकाया था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधुवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे और साधुजन कीर्तन गा रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिये, एक प्रश्न करते हैं।”

तब साधुओं तथा हरिभक्तों ने कहा, “हे महाराज! पूछिये।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज बहुत देर तक विचारमग्न रहे। बाद में उन्होंने कहा कि, “इस संसार में विषयी जीव पंचविषयों के बिना नहीं रह सकते। जिस प्रकार इन विमुख जीवों के लिए पाँच विषय हैं, उसी तरह भक्तों के लिए भी पंचविषय हैं, परन्तु उनमें अन्तर है। वह अंतर क्या है? विषयी जीव बिना भगवान के लौकिक विषयों का उपभोग करते हैं, और भगवद्भक्तों के लिए तो भगवान की कथा सुनना वही श्रोत्र का विषय है, और भगवान के चरणारविन्दों का स्पर्श करना या सन्त की चरणरज का स्पर्श करना, वही त्वचा का विषय है; और भगवान अथवा सन्त का दर्शन करना, वह नेत्र का विषय है; और भगवान का प्रसाद लेना और उनका गुणगान करना, वह जिह्वा का विषय है; तथा भगवान को अर्पित पुष्पादि की सुगन्ध लेना, वह नासिका का विषय है। इस प्रकार विमुख जीवों तथा हरिभक्तों के पंचविषयों में बड़ा अन्तर है। और इस तरह के विषयों के बगैर तो हरिभक्तों से भी नहीं रहा जा सकता। और नारद-सनकादिक अनादि मुक्तों४५ से भी ऐसे पंचविषयों के बिना नहीं रहा जाता। वे समाधि में बहुत समय तक रहते हुए भी समाधि से जाग्रत होकर भगवान के कथा-कीर्तन-श्रवणादि विषयों को भोगते हैं।

“और जिस प्रकार पक्षी चारा करने के लिए अपने घोंसलों से बाहर निकलते हैं और पेट भरने के बाद रात्रि के समय वापस अपने-अपने घोंसलों में आकर आराम करते हैं, परन्तु कभी भी अपने स्थानों को भूलकर दूसरों के घोंसलों पर नहीं जाते। उसी प्रकार भगवद्भक्त, भगवान का कथा-कीर्तन-श्रवणादि रूपी चारा ग्रहण करने के बाद भगवान के स्वरूपरूपी अपने घोंसले में विराम करते हैं।

“और जैसे पशु-पक्षी सभी जीव अपना-अपना चारा करने के बाद अपने-अपने स्थानों में आकर विराम करते हैं, वैसे ही मनुष्य भी अपने कार्यों के लिए देश-विदेश जाते हैं, परन्तु जब अपने घर वापस लौटते हैं, तब सुखचैन पाते हैं। इन दृष्टान्त-सिद्धान्तों के जरिए हम आप सभी हरिभक्तों से प्रश्न पूछते हैं कि, ‘जिस प्रकार विमुख जीव लौकिक पंचविषयों के बन्धन में पड़े हुए हैं और उनके बिना उनसे पलमात्र भी नहीं रहा जाता, उसी प्रकार आप सब भगवान की कथावार्ता के श्रवणादिरूपी विषयों में दृढ़तापूर्वक निमग्न होकर उनके ‘विषयी’ हुए हो कि नहीं? तथा हम एक अन्य प्रश्न भी पूछते हैं कि, ‘जिस प्रकार पक्षी अपना चारा लेने के बाद अपने घोंसले में आ जाते हैं, उसी प्रकार क्या आप सब भगवान का कथा-कीर्तनादि रूपी चारा ग्रहण करने के पश्चात् भगवान के स्वरूपरूपी अपने घोंसले में विश्राम करते हैं या फिर किसी अन्य स्थान पर जहाँ-तहाँ विराम करते हैं?

“और, जैसे मालिकी का पशु चरागाह में चरने के बाद शाम को अपने खूँटे पर आ जाता है, किन्तु जो निरंकुश पशु होता है, वह खूँटे पर नहीं आता और जिस किसी का खेत खाकर जहाँ-तहाँ बैठा रहता है। बाद में कोई उसे लाठी मारता है या बाघ आता है तो उसे मार डालता है, वैसे ही क्या आप उस निरंकुश पशु के समान किसी का खेत खाकर और जहाँ तहाँ बैठकर विश्राम करते हैं या पालतु पशु की तरह अपने खूँटे पर आ जाते हैं? जो बड़े सन्त हों, वे अपने अन्तःकरण में विचार करके इन प्रश्नों के उत्तर दें।”

बाद में मुनि तथा हरिभक्त सभी पृथक्-पृथक् रूप से बोले, “हे महाराज! हम भगवान की कथा एवं कीर्तनादि के विषयी भी हुए हैं और भगवान की मूर्तिरूपी घोंसले तथा खूँटे को छोड़कर अन्य दूसरे ठिकाने पर रहते भी नहीं हैं।” इस बात को सुनकर श्रीजीमहाराज अत्यन्त प्रसन्न हुए।

उसी दिन दोपहर ढलने पर श्रीजीमहाराज दादाखाचर के राजभवन के बीच नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान हुए उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। श्रीजीमहाराज श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सम्मुख विराजमान थे तथा मुनि कीर्तनगान कर रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करिए।”

तब दीनानाथ भट्ट तथा ब्रह्मानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा, “कभी-कभार तो भगवान के भक्त के हृदय में भगवान का भजन-स्मरण आनन्दपूर्वक होता है और भगवान की मूर्ति का चिन्तन होता है और कभी-कभार अन्तर विचलित हो जाता है तथा भजन-स्मरण का आनन्द नहीं आता, इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उसे भगवान की मूर्ति को धारण करने की युक्ति नहीं आती।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “वह युक्ति कैसे ज्ञात हो?”

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “वह युक्ति इस प्रकार है कि अन्तःकरण में गुणों का प्रवेश होता है; सो जब सत्त्वगुण रहता है, तब अन्तःकरण निर्मल हो जाता है तथा भगवान का भजन-स्मरण आनन्दपूर्वक होता है; किन्तु रजोगुण के रहने पर अन्तःकरण विपरीत हो जाता है तथा अनेक संकल्प-विकल्प होने लगते हैं और भजन-स्मरण भी अच्छी तरह नहीं हो पाता। और जब तमोगुण रहता है, तब तो अन्तःकरण शून्य हो जाता है। इसलिए, भजन करनेवाले को गुणों का अवलोकन करके उन्हीं को पहचानना चाहिए और जिस समय सत्त्वगुण रहता हो, उस समय भगवान की मूर्ति का ध्यान करना चाहिए। तथा तमोगुण के रहने पर कोई भी संकल्प-विकल्प नहीं होता और अंतर शून्य-सा रहता है, उस समय भी भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए। और जब रजोगुण रहता है तब अनेक संकल्प-विकल्प होते रहते हैं। इसलिए, उस अवस्था में भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए तथा उस समय ऐसा समझना चाहिए कि, ‘मैं संकल्प से भिन्न हूँ और उस संकल्प को जाननेवाला हूँ तथा मुझमें अन्तर्यामी रूप से पुरुषोत्तम भगवान सदैव विराजमान हैं।’ ऐसा समझकर उच्च स्वर से भगवन्-नामस्मरण करना चाहिए। जब रजोगुण का वेग मिट जाए, तब भगवान की मूर्ति का ध्यान करना चाहिए। रजोगुण रहता है, तब अनेक संकल्प-विकल्प होते हैं। उन्हें देखकर उद्विग्न नहीं होना चाहिए, क्योंकि अन्तःकरण छोटे बालक, बन्दर, कुत्ते और बच्चे को खिलानेवालों के सदृश (नटखट) होता है। इस अंतःकरण का स्वभाव ऐसा है कि बिना प्रयोजन के ही नखरा करता रहता है। अतः जिसे भगवान का ध्यान करना हो, उसे चाहिए कि वह अन्तःकरण के संकल्पों को देखकर व्यग्र न हो जाए। और अन्तःकरण के संकल्प को माने भी नहीं और स्वयं को तथा अपने अन्तःकरण को पृथक् समझे एवं अपनी आत्मा को पृथक् समझकर भगवान का भजन करते रहे।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


४५. माया से परे केवल दो ही अनादि तत्त्व हैं: ब्रह्म एवं परब्रह्म। अतः यहाँ नारद-सनकादिक के लिए प्रयुक्त ‘अनादि मुक्त’ शब्द प्रसिद्धि परक समझना चाहिए।

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