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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३३

मूढ़ विश्वास, प्रीति और ज्ञान से भगवान का दृढ़ आश्रय

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा पंचमी (५ जनवरी, १८२०) को, दिवस का अंतिम पहर था। उस समय श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के निकटवर्ती कमरे के बरामदे में पूर्व की ओर मुखारविन्द करके पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी, श्वेत चादर ओढ़ी थी, सिर पर कुसुंभी रंग के पल्लेवाला फेंटा बाँधा था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “भगवान को प्रसन्न करने के लिए अनंत प्रकार के साधन शास्त्रों में बताए गए हैं, परन्तु उनमें ऐसा कौन-सा एक बलवान साधन है; जो सिद्ध करने से समग्र साधनों की अपेक्षा, वे केवल उस एक ही साधन से प्रसन्न हो जाएँ? कृपया ऐसा कोई साधन हो तो बताइए।”

उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान जिस एक ही साधन से प्रसन्न होते हैं, उसके विषय में सुनिये - भगवान का दृढ़ आश्रय ही समस्त साधनों में महान साधन है, जिससे भगवान प्रसन्न होते हैं। उस आश्रय की अतिशय दृढ़ता होनी चाहिए और उसमें किसी भी प्रकार का खोखलापन नहीं होना चाहिए। आश्रय के भी तीन प्रकार हैं। उनमें से एक मूढ़तापूर्वक४६ भगवान का आश्रय होता है। अतिमूढ़ को ब्रह्मा के सदृश समर्थ पुरुष भी भगवान के आश्रय से विचलित करने का प्रयत्न करे, फिर भी वह नहीं डगमगाता। दूसरा प्रकार है, भगवान में प्रीति।४७ ऐसी प्रीति रहने से भगवान का आश्रय दृढ़ हो जाता है। जिसे ऐसी दृढ़ प्रीति होती है उसको परमेश्वर के सिवा अन्य किसी पदार्थ में जबरन भी प्रीति नहीं हो पाती। ऐसी सुदृढ़ प्रीति को ही भगवान का दृढ़ आश्रय कहा जाता है।

“और आश्रय का तीसरा प्रकार यह है कि जिसकी बुद्धि विशाल हो,४८ कि जो भगवान के सगुण-निर्गुणभाव४९ को समझता हो तथा अन्वय-व्यतिरेक-भाव को जानता हो। और भगवान की माया से जो भी सृष्टि हुई है, उसे समझता हो, और पृथ्वी पर भगवान के जो अवतार होते हैं, उनकी रीति को जानता हो। तथा जगत की उत्पत्ति के समय भगवान जिस प्रकार अक्षररूप में रहते हैं, फिर पुरुषप्रकृति के रूप में रहते हैं, विराट पुरुष के रूप में, ब्रह्मादि प्रजापतिरूप में रहते हैं; एवं जीवों के कल्याण के लिए नारद-सनकादिक के रूप में वे भगवान विद्यमान रहते हैं, उन सभी रीतियों को समझ लेता हो। और पुरुषोत्तम भगवान को सबसे परे५० और निर्विकार समझता हो। - इस तरह जिसकी दृष्टि पहुँचती हो, उसको बुद्धि द्वारा भगवान का दृढ़ आश्रय कहा जाएगा है। वह आश्रय अन्यों के द्वारा५१ विचलित किए जाने पर भी बिल्कुल विचलित नहीं होता। और अपने आप भी उस आश्रय को टालने का यत्न करेगा, तो भी वह नहीं टलेगा! इसके उपरांत यदि भगवान मनुष्य देह को ग्रहण करके समर्थ अथवा असमर्थभाव दिखाते हों, तो उन्हें देखकर भी उसकी बुद्धि में भ्रान्ति नहीं होती।”

इतना कहने के बाद श्रीजीमहाराज पुनः बोले, “यदि आप कहें तो एक प्रश्न पूछूँ।”

तब मुक्तानन्द स्वामी बोले कि, “पूछिये, महाराज!”

श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “हमने जो आश्रय के तीन प्रकार बताए हैं, उनमें से आपका अंग कैसा है? (यानी तीन प्रकार में से आप किस ‘प्रकार’ में दृढ़ता रखते हो?) और भगवान के भक्त को तो तीनों प्रकार मिश्रित रहते हैं, परन्तु उनमें भी जो प्रकार प्रधान होता है, वही उसका ‘अंग’ कहलाता है। इस तरह मूढ़ता, प्रीति तथा ज्ञान-समझ, इन तीनों अंगों में से आपका अंग कौन-सा है?”

मुक्तानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी बोले कि, “हमारा तो समझ (ज्ञान) का अंग है।”

इसी प्रकार अन्य सन्तों ने भी अपने-अपने अंग बताए।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३३ ॥

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४६. अति दृढ़ विश्वासपूर्वक।

४७. व्रजवासियों की भाँति।

४८. नारद-सनकादि की तरह।

४९. सगुणभाव अर्थात् ज्ञान, आनंद आदि गुण. निर्गुण भाव अर्थात् मायिक गुणों से रहित होने का भाव।

५०. स्वरूप, स्वभाव, गुण, विभूति एवं अवतारों से श्रेष्ठ।

५१. शुष्कवेदान्ती आदि लोगों के द्वारा।

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