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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३४

स्नेहरूपी माया - आज्ञापालन में सुख

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा एकादशी (११ जनवरी, १८२०) को प्रातः काल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी, श्वेत शाल ओढ़ी थी, सिर पर सफ़ेद पाग बाँधी थी, फूलों का हार पहना था और पाग में पुष्प तथा रेशम के तुर्रे लटक रहे थे और दोनों कानों के ऊपर पुष्पगुच्छ खोंसे हुए थे। उस समय उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के सत्संगी बैठे थे। मुनिगण बाजे बजाकर भजन गा रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “अब भजन समाप्त करके, प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करिए।”

ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा, “समस्त आनन्द के धाम और सबसे परे रहनेवाले परमेश्वर में जीव की वृत्ति नहीं लगती, किन्तु मायिक, नाशवान एवं तुच्छ पदार्थों में ही जीव की वृत्ति लिप्त रहती है, उसका क्या कारण है?”

मुक्तानन्द स्वामी उसका उत्तर देने लगे, परन्तु वह यथार्थ उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा, “हम इस प्रश्न का उत्तर देते हैं। सुनिये, परमेश्वर ने जबसे इस सृष्टि की रचना की है तबसे उन्होंने ऐसा यन्त्र लगाया है कि उन्हें (परमेश्वर को) फिरसे परिश्रम न करना पड़े तथा संसार की जो वृद्धि करनी है, वह अपने आप होती रहे, ऐसा चक्र चला रखा है।

“इसलिए, पुरुष को स्त्री से और स्त्री को पुरुष से सहज प्रेम हो जाता है तथा स्त्री से उत्पन्न होनेवाली सन्तान से भी सहज स्नेह हो जाता है, वस्तुतः वह भगवान की स्नेहरूपी माया ही है। उस माया के प्रवाह में जो न बहे, उसकी वृत्ति ही भगवान के स्वरूप में रहती है। इसलिए, भगवान के भक्त को मायिक पदार्थों में दोषबुद्धि रखकर वैराग्य को सिद्ध करना चाहिए और भगवान को सर्व आनन्दमय जानकर परमेश्वर में ही अपनी वृत्ति को बनाए रखना चाहिए।

“यदि वह मायिक पदार्थों में वैराग्य की भावना न रखे और भगवान के स्वरूप से बिछड़ जाए, तो वह शिव, ब्रह्मा तथा नारद आदि समर्थ मुक्त के समान होने पर भी मायिक पदार्थों की आसक्ति में लिप्त हो जाता है। अतः भगवान को छोड़कर मायिक पदार्थों का संग करना भक्त की आसक्ति बढ़ाना ही है। इसलिए परमेश्वर के भक्त को भगवान के सिवा अन्यत्र कहीं भी स्नेह नहीं रखना चाहिए।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब प्रश्न करने के लिए मुक्तानन्द स्वामी की बारी आई है, इसलिए प्रश्न पूछिए।” तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जीव के लिए भगवान की (साक्षात्) प्राप्ति अतिदुर्लभ है। और भगवान की प्राप्ति हो जाने से उससे बढ़कर और कोई दूसरा अधिक लाभ ही नहीं है, और उससे बड़ा अन्य आनन्द भी नहीं है। फिर ऐसे परम आनन्द को छोड़कर जीव तुच्छ पदार्थों के लिए क्लेश क्यों प्राप्त करता है? यह प्रश्न है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर यह है कि जब जीव परमेश्वर के वचनों का उल्लंघन करके इधर-उधर भटकता है, तब वह क्लेश को पाता है। यदि वह आज्ञा के अनुसार रहता है, तो उसे भगवान का जो आनन्द है, वही आनन्द प्राप्त होता है।

“और भगवान के वचनों का जितना जो उल्लंघन करता है, उतना ही वह क्लेश पाता है। इसलिए, त्यागियों के लिए जो-जो आज्ञा दी गयी है, उसके अनुसार ही त्यागी को रहना चाहिए तथा गृहस्थ को जो भी आज्ञा कही गई है, उसके अनुसार गृहस्थ को रहना चाहिए। इसमें जितना भी फ़रक होता है, उतना ही क्लेश होता है। अतः साधु को आठ प्रकार से स्त्री का त्याग रखना चाहिए, तभी उसके ब्रह्मचर्यव्रत को पूर्ण कहा जा सकता है। उसमें जितना फ़रक रहता है, उतना उसे क्लेश होता है।

“एवं गृहस्थ के लिए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने को कहा गया है कि परस्त्री के प्रति आसक्ति का त्याग रखना और अपनी स्त्री का भी व्रत के दिन संग नहीं करना, और ऋतुकाल में ही वे अपनी स्त्री का संग करें; इत्यादि जो-जो नियम त्यागी और गृहस्थ के लिए बताए गए हैं, उनके पालन में जितनी कमी रहती है, उतना ही उसे क्लेश रहता है।

“और जो जीव भगवान से विमुख है, उसे जो सुख-दुःख होते हैं, तो उसके अपने कर्मानुसार ही आते हैं, किन्तु जो भगवान के भक्त होते हैं, वे उनको जितना भी दुःख होता है, वह तुच्छ पदार्थों के लिए भगवान की आज्ञा का उल्लंघन किए जाने के कारण ही होता है और उसे जितना सुख होता है, वह भगवान की आज्ञा का पालन करने के कारण ही होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३४ ॥

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