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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३५

आत्मकल्याण के लिए यत्न

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा द्वादशी (१२ जनवरी, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीम के वृक्ष के नीचे पलंग पर पूर्व की ओर मुखारविंद करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविंद के समक्ष सभा में संतवृंद तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

श्रीजीमहाराज संतों से बोले कि, “आप प्रश्न पूछेंगे या हम पूछें?”

तब संतों ने कहा, “हे महाराज! आप पूछिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक पुरुष ऐसा है कि उसमें बुद्धि अल्प है, फिर भी वह अपने कल्याण के लिए प्रयत्न करने में पीछे नहीं हटता; तथा कोई दूसरा पुरुष ऐसा है कि उसमें (व्यावहारिक) बुद्धि तो अधिक है, और वह बड़े-बड़े व्यक्तियों की भी गलती निकालने की क्षमता रखता है, फिर भी वह कल्याण के मार्ग पर नहीं चलता, इसका क्या कारण है?”

मुनियों ने अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिए। किन्तु श्रीजीमहाराज ने उसमें शंकाएँ उपस्थित की, अतः वे यथार्थ उत्तर नहीं दे पाए।

फिर श्रीजीमहाराज बोले, “अच्छा, अब हम इसका उत्तर देते हैं। भले ही उस पुरुष में बुद्धि अधिक है, परन्तु वह बुद्धि दूषित५२ है, अतः वह कल्याण के मार्ग पर नहीं चल सकता। जैसे भैंस का बढ़िया दूध हो और उसमें शक्कर मिलाई गई हो, किन्तु उसमें यदि सर्प की लार गिर पड़े, तो वह शक्कर मिश्रित दूध विष ही हो जाता है। उसे अगर कोई जीव पी ले, तो उसका प्राणान्त हो जाएगा। वैसे ही इसमें बुद्धि तो अधिक है, किन्तु उसने किसी बड़े सन्त या परमेश्वर के प्रति दोषभाव रखा है, अतः, यह अवगुणरूपी दोष उसकी बुद्धि में प्रवेश कर गया है, जो सर्प की लार के सदृश है। इसलिए वह कल्याण के मार्ग पर कैसे चल सकता है? प्रत्युत यदि कोई उसके मुख से बात सुने तो सुननेवाले की बुद्धि भी सत्संग से विमुख हो जाती है। इस प्रकार ऐसी दूषित बुद्धिवाला जहाँ-जहाँ जन्म लेता है, वहाँ-वहाँ भगवान अथवा उनके भक्तों से द्रोह ही करता है, और जिसकी बुद्धि इस प्रकार दूषित न हो और वह यदि थोड़ी ही हो, तो भी वह आत्मकल्याण के लिए यत्न करने से पीछे नहीं हटता।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! वह दूषित बुद्धिवाला कभी भगवान के सम्मुख होता है या नहीं?”

श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “वह तो कभी भगवान के सम्मुख होता ही नहीं है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! किसी भी प्रकार से ऐसी आसुरी बुद्धि न हो, उसका उपाय बताइए।”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “एक क्रोध, दूसरा मान, तीसरी ईर्ष्या और चौथा कपट, इन चार दोषों को परमेश्वर तथा सन्त के प्रति नहीं रखें, तो कभी भी उसकी आसुरी बुद्धि नहीं होती। यदि इन चारों में से एक को भी रखा गया, तो जय-विजय की तरह, जो कि अधिक बुद्धिमान थे, फिर भी सनकादिक के साथ अभिमान करने के कारण, वैकुंठलोक से पतित होकर आसुरी बुद्धिवाले हो गए। इसी प्रकार उसकी भी आसुरी बुद्धि हो जाती है। जब आसुरी बुद्धि होती है, तब भगवान और भगवद्भक्त के गुण भी दोष जैसे दिखाई पड़ते हैं, और वह जहाँ-जहाँ जन्म लेता है, वहाँ-वहाँ या तो वह शिव का गण होता है अथवा दैत्यों का कोई राजा होता है और वैरभाव से परमेश्वर का भजन करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३५ ॥

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५२. भगवान अथवा भगवान के भक्त के अवगुण ग्रहण करने के कारण।

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