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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३६

सच्चा त्यागी

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा त्रयोदशी (१३ जनवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे, कंठ में श्वेत तथा पीले पुष्पों का हार धारण किया था, दोनों कानों पर श्वेत पुष्पों के गुच्छे खोंसे थे और पाग में पीले पुष्पों का तुर्रा लटक रहा था। उन्होंने कर्णिकार के लाल पुष्पों का तुर्रा लगा रखा था और वे दाहिने हाथ में सफ़ेद फूलों का गोला घुमा रहे थे। इस प्रकार शोभायमान होते हुए वे अपने भक्तजनों को आनन्दित करते हुए विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में संतवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसने संसार छोड़ दिया है और साधु का वेश धारण किया है, फिर भी उसकी परमेश्वर के स्वरूप को छोड़कर असत्पदार्थों में प्रीति नहीं मिटती है, उस त्यागी को कैसा समझना चाहिए? तो उसे ‘साहूकार के सामने कंगाल आदमी’ जैसा समझना। जैसे कंगाल मनुष्य को पहनने के लिए वस्त्र न मिलते हों, और वह कूड़े के ढेर में से दाने बिनकर खाता हो, तो वह स्वयं को पापी समझता है, और अन्य साहूकार मनुष्य भी उसे पापी समझते हैं कि, ‘इसने पाप किए होंगे, अतः इसे अन्न-वस्त्र नहीं मिलते हैं।’ वैसे ही साधु होकर जो पुरुष अच्छे-अच्छे वस्त्रादि पदार्थों को एकत्र करके रखता है और ऐसे पदार्थों की तृष्णा भी अधिक रखता है, तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति में प्रीति नहीं रखता, ऐसे साधु को बड़े एकान्तिक साधु कंगाल मनुष्य के समान पापी ही समझते हैं। क्योंकि वह पापी है, इसी कारण उसे धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति में प्रीति नहीं होती और परमेश्वर को छोड़कर अन्य पदार्थों से प्रीति हो जाती है। और, जो त्यागी होता है, उसे कचरा और कंचन दोनों में समान भाव ही रहता है। उसमें तो, ‘यह पदार्थ अच्छा है और वह पदार्थ बुरा है,’ ऐसा विचार तक नहीं रहता तथा एकमात्र भगवान में ही उसकी प्रीति बनी रहती है, वही सच्चा त्यागी है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३६ ॥

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