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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३८

सत्संग का मूल्यांकन; आत्मनिरीक्षण

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला प्रतिपदा (१६ जनवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में संध्या के समय घुड़साल के बरामदे में गद्दी बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी। सिर पर लाल पल्ले का सफ़ेद फेंटा बांधा था, डोरीबद्ध अंगरखा पहना था और सफ़ेद शाल ओढ़ी थी। उनके समक्ष सभा में साधु तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज समस्त हरिभक्तों की ओर देखते हुए बहुत देर तक सोचते रहे और बाद में इस प्रकार कहने लगे, “सुनिये! बात करते हैं। जो सत्संगी हो, उसने जबसे सत्संग में आना शुरू किया, तबसे लेकर आज तक अपने मन की जाँच पड़ताल करनी चाहिए कि, ‘प्रथम वर्ष में मेरा मन ‘ऐसा’ था और बाद में ‘ऐसा’ था तथा ‘इतनी’ भगवान की वासना थी और ‘इतनी’ जगत की वासना थी।’ इस प्रकार वर्षानुवर्ष सत्संग में अपनी स्थिति का लेखा-जोखा करते रहना चाहिए और अपने मन में जगत की जितनी वासना शेष रह गयी हो, उसे थोड़ा-थोड़ा करके निरन्तर समाप्त करते रहना चाहिए।

“यदि वह इस प्रकार विचार नहीं करता है और वासनिक वृत्तियों को एकत्र करता रहता है, तो उसकी वह वासना कभी नहीं मिटेगी। जैसे किसी बनिये के यहाँ कोई खाता खोला हो, उसका हिसाब यदि हर महीने नियमितरूप से चुका दिया जाए, तो उसका हिसाब चुकाने में कठिनाई नहीं पड़ती, किन्तु एक वर्ष का हिसाब इकट्ठा होने पर उसे चुकता करना बहुत कठिन हो जाता है, इस प्रकार निरन्तर विचार करते रहना चाहिए।

“और, मन तो जगत की वासनाओं से परिपूरित ही रहता है। जिस प्रकार तिल फूलों की सुगन्ध से सुगन्धित हो जाते हैं, उसी प्रकार भगवान के चरित्र का महिमा सहित नित्य स्मरणरूपी फूलों से मन को सुगन्धित करना चाहिए। और, भगवान के चरित्र रूपी जाल में मन को जकड़कर रखना चाहिए और मन में भगवान सम्बंधी संकल्प करते रहना चाहिए। एक संकल्प के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा संकल्प करते रहना चाहिए। इस प्रकार, मन को निवृत्त नहीं रहने देना चाहिए।” इतना कहने के बाद श्रीजीमहाराज ने भूत का दृष्टान्त५६ विस्तृतरूप से सुनाया।

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस प्रकार भगवान के एक दिन के चरित्रों, वार्ता तथा दर्शन का स्मरण करने लगें, तो उनका ही पार नहीं पाया जा सकता, तब जिसके सत्संग-प्रवेश के दस-पन्द्रह वर्ष लग चुके हैं, उनकी स्मृतियों का पार ही कैसे लग सकता है? और, उन चरित्रों को इस प्रकार स्मरण करें कि, ‘इस गाँव में इस प्रकार महाराज तथा परमहंसों की सभा हुई थी, इस तरह महाराज की पूजा तथा इस प्रकार वार्ता हुई थी।’ इत्यादि जो भगवान के चरित्र हैं उनका बार-बार स्मरण करना चाहिए। और जो अधिक न समझ पाता हो उसके लिए तो ऐसा करना ही श्रेष्ठ उपाय है, इसके समान दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।

“तब, आप कहेंगे कि, ‘अन्न कुछ कम खायें तथा अनेक उपवास करें।’ यह बात तो हम नहीं कहते। वह तो जिनके जो नियम बताए गए हैं, उन्हें उसी के अनुसार सामान्यरूप से रहना चाहिए, परंतु जो करना है, वह हमने यह जो बात आपसे की है, वही है। और, हम तो ऐसा मानते हैं कि मन निर्वासनिक होना चाहिए और कोई देह से चाहे जितनी प्रवृत्ति करे, किन्तु यदि उसका मन शुद्ध है, तो उसका अति अनिष्ट नहीं होता। और, संसार में तो प्रवृत्तिवाले का बुरा जैसा दिखाई पड़ता है।

“तथा, जिसके मन में वासना हो और बाहर से वह अच्छी तरह निवृत्तिपरायण आचरण करता हो, तो संसार में वह अच्छा ही दिखाई देता है, परन्तु उस जीव का अत्यन्त अनिष्ट होता है। क्योंकि मरण के समय, मन में जैसे संकल्प होते हैं, वैसी ही स्मृतियाँ उमड़ने लगती हैं। जैसे, भरतजी को अन्तकाल में मृगशावक की याद आ गई, तब उनका दूसरा जन्म मृग के आकार में हुआ। और उन्होंने पहले तो राज्य को छोड़ दिया था। ऋषभदेव भगवान उनके पिता थे, फिर भी ऐसा हुआ। इसलिए, मन से निर्वासनिक रहना यही हमारा मत है। उपवास आदि से देह के दुर्बल होने पर मन कमज़ोर हो जाता है, यह बात तो ठीक है, परन्तु जब देह पुष्ट हो जाए तब मन भी पुनः पुष्ट हो जाता है; अतः देह से विषयों का त्याग और मन से भी उनका त्याग, दोनों एकसाथ ही होने चाहिए। हमारे सत्संग में वही बड़ा है, जिसके मन में भगवान के संकल्प होते हों और जगत के संकल्प न होते हों; और यदि ऐसा न हो, तो वह छोटा है। गृहस्थ को भी ऊपर-ऊपर से व्यवहार करना, परन्तु मन से उसे भी त्यागी की भाँति निर्वासनिक रहना चाहिए, और भगवान का चिन्तन करना चाहिए और व्यवहार तो भगवान की आज्ञा के अनुसार रखना। एवं, यदि मन से किया गया त्याग सच्चा न हो, तो जनक का ही दृष्टांत लीजिए। वे राजकाज चलाते रहे थे, फिर भी उनका मन बड़े योगेश्वर के समान (निर्वासनिक) था। इसलिए, मन द्वारा जो त्याग करता है, वही उचित है।

“तथा, यदि अपने मन में बुरे संकल्प होते हों, तो उन्हें बता देना चाहिए, परन्तु जिस प्रकार ‘कुत्ते का मुख कुत्ता चाटे,’ ‘सर्प के घर मेहमान साँप, मुँह चाटकर लौटा आप’ और विधवा के पास सौभाग्यवती स्त्री जाए तो उससे वह यह कहे कि, ‘आ बहन तू भी मेरी जैसी हो जा’ ऐसी कहावतों की तरह जो अध्यात्म में हमारे समकक्ष ही हों, तथा जो स्वयं बुरे संकल्प से परेशान होते हों, उसके सामने अपने संकल्पों को प्रकट करना, उपरोक्त दृष्टान्तों के समान५७ है। इसलिए अपने बुरे संकल्प केवल उसी व्यक्ति के समक्ष प्रकट करने चाहिए, जिसके मन में कभी जगत के असत् संकल्प न होते हों, और जो स्वयं भीतर से बलिष्ट हो। और, ऐसे व्यक्ति भी अनेक हों, जिनके मन में ऐसे बुरे संकल्प न उठते हों, परन्तु उन सभी में से भी ऐसे व्यक्ति से संकल्प बताया जाए, जो उन बुरे संकल्पों को सुनकर उनको मिटाने के लिए बातें किया करे; और जब तक उस कहनेवाले का संकल्प मिटन जाए, तब तक बैठते-उठते, खाते-पीते, समस्त क्रियाओं में बातें करता ही रहे। वह भी जैसी अपने संकल्पों को टालने की तीव्रता हो, वैसी ही दरकार सामनेवाले के दोषों को मिटाने की हो, उसी के सामने संकल्पों को कहना, किन्तु जिसके समक्ष अपने बुरे संकल्पों के विषय में बात कहें, परन्तु यदि वह इस प्रकार हमारे दोष मिटाने की बात न करें और स्वयं आलसी हो, तो हमें लाभ क्या हो सकता है? अतः अपने मन के संकल्पों को कहकर, उनको मिटाकर अपने मन में केवल भगवान का संकल्प करते रहें तथा जगत के सुख से निर्वासनिक हो जाएँ।

“तथा, ‘एकादशी का व्रत करने का क्या लक्षण है?’ दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवें मन को अपने-अपने विषयों से हटाकर उन्हें भगवान में जोड़ देना, इसी को ‘एकादशी का व्रत’ करना कहा जाता है। भगवान के भक्त को ऐसा व्रत निरन्तर करना चाहिए। जिसका मन इस प्रकार निर्वासनिक न हो, परन्तु देह से व्रत, तप करता रहता हो, तो भी उसका परिणाम इतना अच्छा नहीं होता। इसलिए, भगवान के जो भक्त हों, उन्हें अपने-अपने धर्म में रहकर और भगवान के माहात्म्य को समझकर अपने मन को निर्वासनिक करने का नित्य अभ्यास करते रहना चाहिए।” ऐसी वार्ता कही।

फिर श्रीजीमहाराज ने दूसरी बात कही कि, “सच्चा त्यागी किसे कहा जाए? तो जिसने किसी पदार्थ का त्याग कर दिया, फिर उस पदार्थ का उसे कभी संकल्प न हो, उसे सच्चा त्यागी कहते हैं। इस विषय में नारदजी द्वारा शुकजी के प्रति कहा गया श्लोक है: ‘त्यज धर्ममधर्मं च।’५८ इस श्लोक का सारांश यह है कि एक आत्मा के सिवा जो अन्य पदार्थ हैं, उनका त्याग करके केवल आत्मारूप से रहें तथा भगवान की उपासना करें, उसी को पूर्ण त्यागी कहते हैं। गृहस्थ हरिभक्त तो जनकराजा के इस कथन को समझते हैं कि, ‘मेरी यह मिथिला नगरी जलती है, परन्तु उसमें मेरा कुछ भी नहीं जलता।’ वहाँ श्लोक है कि: ‘मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंञ्चन।’ वस्तुतः ऐसा ज्ञानी गृहस्थ ही सच्चा हरिभक्त कहलाता है। और, जो कोई इस प्रकार के त्यागी एवं गृहस्थ न हो, उसे प्राकृत भक्त कहते हैं, और पहले जैसा कहा गया है, वैसा भक्त हो तभी उसे एकान्तिक भक्त कहा जाता है।”

वह इसके पश्चात् बड़े आत्मानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा कि, “देह, इन्द्रियों, अन्तःकरण और देवता से भिन्न जो जीवात्मा है, उसका स्वरूप किस प्रकार का है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “संक्षेप में इसका उत्तर यह है कि देह तथा इन्द्रियों आदि के स्वरूपों का जो वक्ता है, श्रोता को उन सबके स्वरूपों को अलग-अलग करके समझाता है। वह जो समझानेवाला वक्ता है, वह देह आदि सबके प्रमाण का करनेवाला है और जाननेवाला है एवं वह सबसे पृथक् रहता है, उसी को जीव कहते हैं। तथा, जो श्रोता है, वह देहादिक के रूपों को अलग-अलग समझता है तथा उन्हें प्रमाणित करता है, और उसे जानता है तथा इन सबसे भिन्न है, उसी को जीव कहते हैं। इस प्रकार जीवात्मा सबसे पृथक् है; यही जीव के स्वरूप को समझने की रीति५९ है।” इस प्रकार श्रीहरि ने बातें कही।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३८ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


५६. एक व्यक्ति को भूत अपने वश में आ गया। वह उसका हर एक काम पल भर में निपटा लेता और जैसे ही फुर्सत पाता, उस व्यक्ति को कहता कि, “अब मैं तुझे खा जाऊँगा।” उसने परेशान होकर एक महात्मा को अपनी समस्या बताई। उन्होंने कहा कि, “जब तुम्हें भूत का कोई काम हो, तो बुला लेना और खाली समय में उसको एक खंभे के ऊपर लगातार चढ़ने-उतरने के लिए भेज देना।” इस प्रकार करने से भूत को कभी फुर्सत ही नहीं मिली और उसने कभी अपने मालिक को परेशान भी नहीं किया। इस प्रकार मन को हमेशा भगवान के लीलाचरित्रों में प्रवृत्त रखना चाहिए; अन्यथा वह फुर्सत पाते ही व्यक्ति को खा जाता है।

५७. रुचिकर वस्तुओं का लाभ नहीं होता, परंतु उसके बदले में अरुचिकर वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है।

५८. महाभारत, शांतिपर्व: ३१६/४०, ३१८/४४; यहाँ धर्मादि का स्वरूपतः त्याग नहीं कहा गया किन्तु भगवान के ध्यान में विघ्न करने वाले संकल्पों का त्याग कहा गया है अथवा एसे ही फल का त्याग कहा गया है।

५९. मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि का ज्ञाता, निश्चयकर्ता, दृष्टा, श्रोता, वक्ता, स्वाद लेनेवाला आदि क्रियाओं में जो लिप्त है वही जीवात्मा है।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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