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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३९

सविकल्प तथा निर्विकल्प स्थिति

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला तृतीया (१८ जनवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, पीले पुष्पों के गुच्छे खोंसे थे और कंठ में पीले पुष्पों के हार पहने थे। उस समय उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब, श्रीजीमहाराज ने वहाँ आए हुए एक वेदान्ती ब्राह्मण से प्रश्न पूछा, “आप एक ब्रह्म का प्रतिपादन करते हो तथा ब्रह्म के सिवा अन्य जो जीव, ईश्वर, माया, जगत, वेदों, शास्त्रों एवं पुराणों को मिथ्या कहते हो, यह बात हमारी समझ में नहीं आती,६० अतः हम उसे नहीं मानते। अतएव, हम आपसे पूछते हैं, उस प्रश्न का उत्तर दीजिए। आप यह उत्तर वेदों, शास्त्रों, पुराणों, स्मृतियों तथा इतिहास के प्रमाणों-सन्दर्भों के साथ देना। यदि आप किसी कल्पित ग्रन्थ के वचनों का उद्धरण देकर उत्तर देंगे, तो हम उसे नहीं मानेंगे। यदि आप यही उत्तर व्यासजी के वचनों के आधार पर देंगे तो हम उसे मान लेंगे, क्योंकि व्यासजी के वचनों में हमारा दृढ़ विश्वास है।”

फिर वह वेदान्ती अनेक प्रकार की युक्तियों के साथ उत्तर देने लगा, परन्तु श्रीजीमहाराज ने उसमें शंका प्रकट की, अतः उस प्रश्न का समाधान नहीं हुआ। तब श्रीजीमहाराज बोले, “सुनिये, इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं कि परमेश्वर का भजन करके जो ‘मुक्त’ हुए हैं, उनकी स्थिति के दो प्रकार हैं। जैसे मेरु पर्वत पर खड़े हुए पुरुष मेरु के निकटवर्ती समस्त पर्वतों, वृक्षों और उनका आधार स्वरूप पृथ्वी का तल आदि सबको पृथक् रूप से देखते हैं, वैसे ही सविकल्प समाधिवाले ज्ञानी मुक्त जीव, ईश्वर, माया तथा उनके आधाररूप जो ब्रह्म, सबको अलग-अलग रूप से देखते हैं। और जैसे लोकालोक पर्वत के ऊपर खड़े हुए पुरुष उस पर्वत के समीपवर्ती पर्वतों तथा वृक्षों को एकमात्र पृथ्वीरूप में ही देखता है, परन्तु पृथक् रूप से नहीं देखता, वैसे ही निर्विकल्प समाधिवाले जो महामुक्त हैं, वे जीव, ईश्वर तथा माया को एकमात्र ब्रह्मरूप में ही देखते हैं, किन्तु पृथक्‌रूप से नहीं देखते। ऐसे दो प्रकार की स्थितिवाले मुक्त हैं। इन दोनों मुक्तों की स्थिति के कारण इन सभी तत्त्वों की सत्यता एवं असत्यता को कहा गया है।

“तथा, सविकल्प स्थितिवालों के वचन वेदों, शास्त्रों तथा पुराणों आदि में आते हैं, जो वचन उपरोक्त तत्त्वों को सत्य कहते हैं तथा निर्विकल्प स्थितिवालों के वचन इन सभी को असत्य कहते हैं, परन्तु ये सब असत्य नहीं हैं। क्योंकि वे तो अपनी निर्विकल्प स्थिति के कारण (अलग-अलग रूप से) दृष्टिगोचर नहीं होते, इसी कारण उन्हें असत्य कहते हैं। और जैसे, सूर्य के रथ में बैठनेवालों के लिए रात्रि नहीं होती, परन्तु पृथ्वी के ऊपर रहनेवालों के लिए रात और दिन दोनों होते हैं। उसी प्रकार निर्विकल्प स्थितिवालों के मतानुसार ये सब तत्त्व नहीं हैं, किन्तु दूसरों के मत से (सविकल्प स्थिति के लिए) ये सभी तत्त्व हैं। इस प्रकार ब्रह्मनिरूपण करने से शास्त्रों के वचनों में पूर्वापर कोई बाध नहीं आएगा, अन्यथा पूर्वापर बाध होता है। उस बाध को जो न समझता हो तथा ऐसी स्थिति को भी प्राप्त नहीं हुआ हो और केवल शास्त्रों में से सीखकर वचनमात्र से केवल एक ब्रह्म ही है - ऐसा प्रतिपादन करता हो, तथा गुरु, शिष्य, जीव, ईश्वर, माया, जगत और वेदों, पुराणों, शास्त्रों को कल्पित कहता हो, वह महामूर्ख है और अन्त में वह नरक का अधिकारी हो जाता है।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमने यह बात कही है, उसमें यदि आपको शंका होती हो तो बोलिए।”

तब वह वेदान्ती ब्राह्मण बोला, “हे महाराज! हे प्रभो! हे स्वामिन्! आप तो परमेश्वर हैं और जगत के कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं। अतएव, आपने जो उत्तर दिया है वह यथार्थ है, उसमें शंका के लिए कोई भी स्थान नहीं है।”

इतना कहकर वह वेदान्ती ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपने अज्ञान का परित्याग करके श्रीजीमहाराज का आश्रित हो गया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३९ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


६०. परब्रह्म को निराकार एवं निर्गुण प्रतिपादन करनेवाले शुष्कज्ञानी सीप में जैसे कोई चांदी को देखता है, परंतु सीप में चांदी तो नहीं है, उसी प्रकार उपरोक्त तत्त्व भी नहीं है, इस प्रकार तत्त्वों को मिथ्या दिखाते है, यही भावार्थ है।

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