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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४

नारदजी जैसी ईर्ष्या

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी (२४ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधु तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त उपस्थित थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान के भक्तों को परस्पर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।”

तब आनन्दानन्द स्वामी बोले कि, “हे महाराज! ईर्ष्या तो रहती है।”

इस पर श्रीजीमहाराज ने कहा, “यदि ईर्ष्या ही करनी है, तो वह नारदजी जैसी होनी चाहिए। एक बार नारदजी और तुंबरु दोनों वैकुंठ में लक्ष्मीनारायण के दर्शन करने गए। उस समय तुंबरु ने लक्ष्मीनारायण के सामने स्तोत्र-गान किया। उससे लक्ष्मी और नारायण, दोनों प्रसन्न हो गए तथा उन्होंने तुंबरु को अपने वस्त्र और आभूषण दे दिए। इससे तुंबरु के प्रति नारदजी में ईर्ष्या उत्पन्न हो गयी और उन्होंने सोचा कि मुझे तुंबरु जैसी गायनविद्या सीखकर भगवान को प्रसन्न करना है। फिर नारदजी ने गायनविद्या सीखी और भगवान के सामने स्तुति-गान किया; किन्तु भगवान ने कहा, ‘तुम्हें तुंबरु जैसा गाना नहीं आता।’ अतः नारदजी ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की। उनसे वरदान प्राप्त कर गायनविद्या सीखी और वे भगवान का गुणगान करते रहे।

“इस पर भी भगवान प्रसन्न नहीं हुए। फिर नारदजी ने सात मन्वन्तर तक गायनविद्या का अभ्यास किया और भगवान का गुणगान करते रहे। फिर भी भगवान प्रसन्न नहीं हुए। अन्ततः उन्होंने स्वयं तुंबरु से गायनविद्या सीखी और द्वारिका में श्रीकृष्ण भगवान के सम्मुख गान किया। तब श्रीकृष्ण भगवान प्रसन्न हो गए और उन्होंने अपने वस्त्र-अलंकार नारदजी को भेंट कर दिए। उसी समय से तुंबरु से नारदजी की ईर्ष्या समाप्त हो गई। अतः यदि ईर्ष्या करनी हो तो इस प्रकार की करनी चाहिए कि जिससे ईष्या हो, उसके गुणों का ग्रहण करें और अपने अवगुणों का परित्याग कर दें। यदि ऐसा न हो सके तो भगवान के भक्तों को उसके प्रति द्रोह उत्पन्न करनेवाली ईर्ष्या का सर्वथा परित्याग कर दें।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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