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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा प्रथम ४०
सविकल्प-निर्विकल्प समाधि
संवत् १८७६ में माघ शुक्ला चतुर्थी (१९ जनवरी, १८२०) को प्रातःकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी, उस पाग में पीले पुष्पों का तुर्रा लटक रहा था और कंठ में पीले पुष्पों का हार पहना था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में समस्त मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।
तब, मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा, “हे महाराज! सविकल्प समाधि तथा निर्विकल्प समाधि किसे कहते हैं?”
श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान के स्वरूप में जिसकी स्थिति हो गई हो उसमें अशुभ वासना तो नहीं रहती; किन्तु शुभ वासना रही हो कि, ‘मैं नारद-सनकादिक तथा शुकजी जैसा हो जाऊँ, अथवा नरनारायण के आश्रम में जाकर और वहाँ के मुनियों के साथ रहकर तप करूँ, अथवा श्वेतद्वीप में जाकर तपस्या करके श्वेतमुक्त सदृश हो जाऊँ ऐसा विकल्प जिसके मन में रहता हो, उसे सविकल्प समाधिवान् कहते हैं। और, जिसे ऐसा विकल्प न हो, तथा अक्षरब्रह्म के साधर्म्यभाव को प्राप्त करके केवल भगवान की मूर्ति में ही निमग्न रहता हो, उसे निर्विकल्प समाधिवान् कहते हैं।”६१
फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! भक्ति तथा उपासना में क्या अन्तर रहता है?”
श्रीजीमहाराज बोले कि –
“‘श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।अर्चनं वन्दनं दास्यं, सख्यमात्मनिवेदनम् ॥’६२
“इस तरह (प्रीतिपूर्वक) नव प्रकार से भगवान की जो भक्ति की जाती है उसे ‘भक्ति’ कहते हैं। तथा उपासना तो उसे कहा जाता है, जिसे भगवान के स्वरूप में सदैव साकार-भाव की दृढ़ निष्ठा हो और भजन करनेवाला यदि स्वयं ब्रह्मरूप हो जाए तो भी उस निष्ठा का लोप न हो और निराकारभाव का प्रतिपादन करनेवाले चाहे किसी भी ग्रन्थ को सुनें, तो भी भगवान के स्वरूप को सदा साकार ही समझें और शास्त्रों में चाहे कैसी ही बात आए, किन्तु स्वयं भगवान के साकार स्वरूप का ही प्रतिपादन करें, परन्तु अपनी उपासना का खंडन नहीं होने दे। इस प्रकार जिसकी दृढ़ समझ हो, उसे उपासक कहते हैं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ४० ॥
This Vachanamrut took place ago.
६१. योगदर्शन में इन दोनों प्रकार की समाधियों का वर्णन कठिनरूप से किया गया है। (योगसूत्र: १/१७,१८, ध्यानदीप: १२६-१२९) परंतु भगवान स्वामिनारायण ने दोनों समाधियों को अत्यंत सरल ढंग से निरूपित किया है। जिसमें स्पष्ट किया गया है कि सविकल्प समाधि में उपास्य एवं उपासक दोनों की शुद्धि नहीं है, जबकि निर्वकल्प समाधि में उपासक गुणातीत है, अर्थात् अक्षरब्रह्म के साधर्म्य को प्राप्त हुआ है तथा उपास्य इष्टदेव मायिक गुणों से परे परमात्मा है।
६२. भगवान की कथा का श्रवण, कीर्तनों का गान, स्मृति, चरण-सेवा, अर्चन-पूजा, अष्टांग अथवा पंचांग प्रणाम, दासभाव पूर्वक आज्ञापालन, निष्कपटभाव, सर्वस्व सर्मपण - ये नव प्रकार की भक्ति कही गई है। (श्रीमद्भागवत: ७/५/२३)