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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४१

एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला पंचमी (२० जनवरी, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के समीप नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछाये गए पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे, पीले पुष्पों के हार पहने थे, पीले पुष्पों के गुच्छे कान पर धारण किए थे और पगड़ी में पीले पुष्पों के तुर्रे लटकते हुए रखे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधुवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा, “अब प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करिए।”

तब नृसिंहानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! ‘एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय।’६३ इस श्रुति-वाक्य का अर्थ जगत के कितने ही पंडित तथा वेदान्ती ऐसा समझते हैं कि प्रलयकाल में जो एकमात्र भगवान ही रहे थे, वही स्वेच्छा पूर्वक सृष्टिकाल में समस्त जीव एवं ईश्वररूप हो गए हैं। यह बात तो मूर्ख हो, वह माने, लेकिन हमें तो आपका आश्रय है, अतः उस बात का मेल नहीं बैठता है और हम ऐसा समझते हैं कि भगवान अच्युत हैं और वे च्युत होकर जीव-ईश्वररूप नहीं होते। अतः इस श्रुति-वाक्य का अर्थ आप ही कहें, ताकि यथार्थ बात समझ में आ सके।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “इस श्रुति का जैसा अर्थ वे सब बताते हैं, वैसा नहीं है। इसका अर्थ दूसरी तरह का है, वह वेदस्तुति के गद्य में कहा गया है कि - ‘स्वकृतविचित्रयोनिषु विषन्निव हेतुतया तरतमतश्चकास्स्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः।’६४ अर्थात् ‘पुरुषोत्तम भगवान स्वनिर्मित नाना प्रकार की योनियों में कारणभाव तथा अन्तर्यामी रूप से प्रवेश करके न्यूनाधिक भाव से उन्हें प्रकाशित करते हैं।’ उसकी प्रक्रिया यह है कि अक्षरातीत पुरुषोत्तम भगवान सृष्टिकाल में जब अक्षर के समक्ष दृष्टिपात करते हैं, तब उस अक्षर में से पुरुष (मुक्त) प्रकट होता है।

“इसके पश्चात् वे पुरुषोत्तम अक्षर में प्रवेश करके पुरुष में प्रवेश करते हैं तथा पुरुषरूप होकर प्रकृति को प्रेरित करते हैं। इस प्रकार ज्यों-ज्यों पुरुषोत्तम का प्रवेश६५ होता गया त्यों-त्यों सृष्टि की प्रवृत्ति हुई। तब प्रकृतिपुरुष से प्रधानपुरुष का आविर्भाव हुआ तथा उन प्रधानपुरुष से महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से तीन प्रकार के अहंकार, अहंकार से भूत, विषय, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा देवता हुए। उनसे विराट पुरुष तथा उनके नाभिकमल से ब्रह्मा हुए, उन ब्रह्मा से मरीच्यादिक प्रजापति, उनसे कश्यप प्रजापति, उनसे इन्द्रादि देवता और दैत्य उत्पन्न हुए तथा स्थावर-जंगम सृष्टि हुई। और, पुरुषोत्तम भगवान उन सबके कारण होने से सबमें अन्तर्यामी रूप से प्रवेश करके रहे हैं, किन्तु जिस प्रकार वे अक्षर में हैं, उस प्रकार प्रकृतिपुरुष में नहीं हैं।६६ जिस प्रकार प्रकृतिपुरुष में हैं, उस प्रकार प्रधानपुरुष में नहीं हैं, जैसे प्रधानपुरुष में हैं, वैसे महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्वों में नहीं हैं।

“जिस प्रकार चौबीस तत्त्वों में हैं, उस प्रकार विराटपुरुष में नहीं हैं, जैसे विराटपुरुष में हैं, वैसे ब्रह्मा में नहीं हैं, जिस प्रकार ब्रह्मा में हैं, उस प्रकार मरीच्यादिकों में नहीं हैं, जैसे मरीच्यादिकों में हैं वैसे कश्यप में नहीं हैं, जिस प्रकार कश्यप में हैं उस प्रकार इन्द्रादि देवताओं में नहीं हैं, जैसे इन्द्रादि देवताओं में हैं वैसे मनुष्य में नहीं हैं, जिस तरह मनुष्य में हैं उस प्रकार पशुपक्षी में नहीं हैं। इस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान, अपनी कारणता होने से अन्तर्यामी रूप से सबमें तारतम्यपूर्वक रहते हैं।

“जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि रहती है और वह भी लम्बे काष्ठ और टेढ़े काष्ठ में उसके आकार के समान ही रहती है, उसी प्रकार पुरुषोत्तम भगवान भी जिसके द्वारा जो कार्य करना है, उतने सामर्थ्य के साथ ही उसमें रहते हैं। अक्षर तथा पुरुष-प्रकृति आदि सबमें पुरुषोत्तम भगवान अन्तर्यामी रूप से रहते हैं, परन्तु पात्र के तारतम्य से सामर्थ्य में तारतम्य रहता है। इस प्रकार एकमात्र पुरुषोत्तम भगवान अन्तर्यामी रूप से इन सबमें प्रवेश करके रहते हैं,६७ किन्तु उन्होंने जीवत्व या ईश्वरत्व को स्वयं ग्रहण करके अनेक रूप नहीं किए हैं। इस श्रुति-वाक्य का यही अर्थ समझना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


६३. ‘तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय’ इस प्रकार छान्दोग्योपनिषद् (६/२/३) में पाठान्तर प्राप्य है।

६४. श्रीमद्भागवत: १०/८७/१९

६५. सर्वव्यापक पुरुषोत्तम भगवान का प्रवेश सर्वदा, सर्व वस्तुओं में अनादि काल से है; इसलिए यहाँ जिसे ‘प्रवेश’ कहा गया है, वह विशिष्ट शक्तियों से युक्त अनुप्रवेश समझना। (तैत्तिरीयोपनिषद्: २/६)

६६. अब प्रारंभ होनेवाले वाक्यों का अर्थ यह है कि परब्रह्म स्वयं, अक्षरब्रह्म के द्वारा जैसा सामर्थ्य दिखाते हैं, वैसा सामर्थ्य प्रकृतिपुरुष आदि द्वारा दिखाते नहीं हैं। इसमें पात्रता का भेद कारणभूत है। जैसे सूर्य की किरणें मिट्टी पर इतनी परावर्तित नहीं होतीं, जितनी पानी अथवा काँच पर परावर्तित होती हैं। यहाँ सूर्य की किरणें कारणभूत नहीं है, किन्तु पात्रों की पात्रता का भेद कारणभूत है।

६७. ‘सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।’ (गीता ११/४०)

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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