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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४२

विधिनिषेध

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला षष्ठी (२१ जनवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे पर बिछाये गए पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने सिर पर श्वेत पगड़ी बाँधी थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, श्वेत धोती धारण की थी और दोनों कानों के ऊपर पीले पुष्पों के गुच्छ शोभते थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधुवृंद तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस सभा में कई वेदान्ती ब्राह्मण भी आकर बैठे थे। उन्हें देखकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “वेदान्तशास्त्र को जो-जो पढ़ते और सुनते हैं, वे ऐसा कहते हैं कि, ‘विधि-निषेध तो मिथ्या हैं तथा विधि-निषेध से प्राप्त होने योग्य स्वर्ग और नरक भी मिथ्या हैं, और उन्हें पानेवाला शिष्य और गुरु भी मिथ्या हैं। एकमात्र ब्रह्म ही सबमें समाया हुआ है, वही सत्य है।’ इस प्रकार जो कहते हैं, वे क्या समझकर कहते होंगे? और, समस्त वेदान्तियों के आचार्य शंकराचार्य ने तो अपने शिष्यों को दंड-कमंडल धारण कराये और कहा कि, ‘भगवद्‌गीता तथा विष्णुसहस्रनाम का पाठ करना, और विष्णु का पूजन करना, तथा तरुणों को वयोवृद्ध व्यक्तियों का सम्मान करना और पवित्र ब्राह्मण के घर की ही भिक्षा ग्रहण करना।’

“इस प्रकार उन्होंने विधि-निषेध का प्रतिपादन किया,६८ तो क्या उन्हें यथार्थ ‘ज्ञान’ नहीं था? और, आजकल के जो ‘ज्ञानी’ हुए हैं, उन्होंने विधि-निषेध को मिथ्या कर डाला है तो क्या वे शंकराचार्यजी से भी बड़े हो गए? अतः ऐसा प्रतीत होता है कि वे यह बात केवल मूर्खता के कारण कहते हैं।

“विधि-निषेध को शास्त्रों में जिस प्रकार मिथ्या कहा गया है, उसे इस तरह बताया गया है कि जैसे कोई बड़ा जलपोत हो, वह महासागर में एक वर्ष तक चलता ही रहे और उसे अगला या पिछला किनारा भी दिखाई नहीं पड़े। तथा दोनों किनारों के बड़े-बड़े पर्वत भी न दिखाई दें, तो वहाँ के वृक्ष तथा मनुष्य कैसे दिखाई पड़ेंगे? जहाँ देखा जाए, वहाँ केवल जल ही जल दिखाई देगा, जल के अतिरिक्त दूसरी कोई भी वस्तु दिखाई नहीं पड़ेगी। और यदि ऊपर को देखा जाए तो भी समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरों के उठने पर ऊपर भी जल ही दिखाई देगा, तब उस जलपोत में बैठे हुए पुरुष ऐसा कहें कि, ‘सर्वत्र केवल जल ही जल है, दूसरा कुछ भी नहीं है!’

“इस दृष्टान्त का तात्पर्य यह है कि ब्रह्मस्वरूप में जिनकी निर्विकल्प स्थिति हो गयी, वे तो ऐसा ही कहेंगे कि एकमात्र ब्रह्म ही है और उसके सिवा जो अन्य जीव, ईश्वर और माया आदि हैं, वे सब मिथ्या हैं। और उनके शास्त्र में लिखित वचनों को सुनकर अपनी तो स्थिति ऐसी (ब्रह्ममय) न हुई हो, तो भी वह विधि-निषेध को मिथ्या कहने लगता है। वह मिथ्याज्ञानी अपनी स्त्री और बच्चों की तो शुश्रूषा करता है, और संसार का जितना भी व्यवहार है, सबको सच्चा जानकर सावधानी के साथ करता रहता है, और शास्त्रों में प्रतिपादित विधि-निषेध को मिथ्या कहता है! अतः इस जगत में केवल ऊपर-ऊपर से ज्ञान रटनेवाले कथित ज्ञानी को घोर अधम तथा नास्तिक समझना।

“एवं, शंकराचार्य ने जीव के हृदय में नास्तिकता आ जाने की आशंका के कारण ‘भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढमते!’ आदि विष्णु के अनेक स्तोत्र रचे हैं, तथा शिवजी, गणपति आदि बहुत से देवताओं के स्तोत्र भी रचे हैं, जिनको सुनकर सब देवताओं के सम्बंध में सत्यता का दर्शन हो जाए, इस आशय से ही शंकराचार्य ने सभी देवताओं के स्तोत्रों की रचना की है। किन्तु आजकल के कथित ज्ञानी लोग सबको मिथ्या कहकर ऐसा बोलते हैं कि, ‘ज्ञानी चाहे कैसा ही पाप करें, पर उन्हें कुछ भी असर नहीं होगा।’ ऐसी बात वे मूर्खता के कारण कहते हैं। अतः जितने त्यागी-परमहंस हो गए, उन सबमें जड़भरत श्रेष्ठ थे और जितने पुराण तथा वेदान्त सम्बंधी ग्रन्थ हैं, उन सबमें जड़भरत की घटना लिखी गयी है।

“ऐसे महान जड़भरत पूर्वजन्म में ऋषभदेव भगवान के पुत्र थे। वे राज्य का त्याग करके वन में गए थे, परन्तु केवल दया के कारण उन्हें मृग के साथ प्रीति हो गई, तो उनको दोष लगा और उन्हें स्वयं को मृग के रूप में जन्म लेना पड़ा। मृग के समान चार पाँव, छोटी पूँछ, सिर में छोटे सींग, ऐसा आकार उन्हें प्राप्त हुआ। तथा, परमात्मा श्रीकृष्ण भगवान के साथ व्रज की गोपियों ने कामबुद्धि से प्रीति की तो भी सब भगवान की माया को तैर गईं और स्वयं गुणातीत होकर उन्होंने भगवान के निर्गुण अक्षरधाम को प्राप्त कर लिया। उसका कारण यह है कि श्रीकृष्ण भगवान स्वयं साक्षात् पुरुषोत्तम, गुणातीत, दिव्यमूर्ति थे, तो गोपियों ने उनके साथ जानबूझकर या अनजाने में प्रीति की, तो भी वे गुणातीतरूप हो गईं। और भरतजी ने दया की भावना से मृग से प्रीति की तो वे (दूसरे जन्म में) मृग हो गए। इसीलिए, चाहे कोई जितना भी बड़ा हो, उसे भी कुसंग के कारण तो बुरा ही फल मिलता है। चाहे जितना भी पापी जीव हो, पर यदि वह सत्यस्वरूप ऐसे भगवान से अटूट प्रीति-सम्बंध करे, तो परम पवित्र होकर अभयपद को पा जाता है।

“और, यदि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं गुणातीत न होते तो उनकी भक्त गोपियाँ गुणातीतभाव को प्राप्त नहीं कर पातीं। और यदि उन्होंने गुणातीत पद को प्राप्त कर लिया तो भगवान श्रीकृष्ण गुणातीत कैवल्य दिव्यमूर्ति ही हैं। तथा, वेदान्ती तो यह कहते हैं कि ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है। तब जिस प्रकार गोपियों ने श्रीकृष्ण भगवान से प्रीति की, वैसे ही सब स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों से प्रीति करती हैं और सब पुरुष अपनी-अपनी स्त्रियों से प्रीति करते हैं, तो भी उन्हें गोपियों जैसी प्राप्ति नहीं होती। उन्हें तो घोर नरक की प्राप्ति होती है। इसीलिए, विधि-निषेध सच्चे हैं, परन्तु मिथ्या नहीं हैं। जो विधि-निषेधों को मिथ्या कर दिखाते हैं, वे तो नारकी हो जाते हैं।”

ऐसी वार्ता करके श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास स्थान पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


६८. ‘चर्पटपंजरीका स्तोत्र,’ ‘यतिधर्मनिर्णय,’ ‘संन्यासधर्मपद्धति,’ ‘साधनपंचकम्’ - आदि शंकराचार्य रचित ग्रंथों में विधि-निषेध के आदेश प्राप्त होते हैं।

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