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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा प्रथम ४४
परमेश्वर में दृढ़ प्रीति तथा देहरूप अंगरखा
संवत् १८७६ में माघ शुक्ला अष्टमी (२३ जनवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढडा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में प्रातःकाल में ही श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्यभाग में बिछाये गए पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी, सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी और उस पाग के अन्तिम छोर को मुख पर लपेटा हुआ था। उस पाग पर सफ़ेद पुष्पों के हार सुशोभित हो रहे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।
उस समय श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “भगवान में स्नेह हो, उसका क्या स्वरूप (लक्षण) है?”
तब ब्रह्मानन्द स्वामी स्नेह का स्वरूप बताने लगे, परन्तु समाधान नहीं हुआ।
तब श्रीजीमहाराज बोले, “आपको तो स्नेह की दिशा ही नहीं मिली, और आपने ‘पिंड-ब्रह्मांड से निःस्पृह रहने’ को स्नेह बताया, परन्तु यह स्नेह का स्वरूप नहीं, यह तो वैराग्य का रूप है। वस्तुतः स्नेह तो उसे कहते हैं, जिसके द्वारा ‘भगवान की मूर्ति की अखंड स्मृति बनी रहे।’ जिस भक्त का पूर्ण स्नेह भगवान में रहता हो, उसे तो भगवान के सिवा अन्य संकल्प होता ही नहीं। और, यदि भगवान के बिना अन्य संकल्प होते हैं, तो उसके स्नेह में उतनी कमी है। तथा, जिसे भगवान से पूर्ण स्नेह हो, उसे जाने-अनजाने में यदि भगवान की मूर्ति के सिवा अन्य कोई भी संकल्प हो गया, तो उसे इतना असह्य कष्ट होता है कि जिस प्रकार पाँच प्रकार के स्वादिष्ट भोजन करते समय किसी के द्वारा अंजली भरकर कंकड़ और मिट्टी डाले जाने पर होता है अथवा भाल में किसी तप्तमुद्रा दाग दिये जाने पर होता है। इस तरह भगवान के बिना मन में दूसरा संकल्प उठने पर ऐसा कष्ट होता हो, तो समझें कि उसे भगवान से प्रीति है। अतः आप सब अपने-अपने हृदय को टटोल कर देखिए, तो जिसको जितनी प्रीति होगी, उसका पता उसको लग जाएगा।”
फिर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान से ऐसी दृढ़ प्रीति बनी रहे, उसका कौन-सा साधन है?”
तब श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “सत्पुरुष का प्रसंग (आत्मबुद्धि पूर्वक जुड़ जाना) ही परमेश्वर में दृढ़ प्रीति होने का कारण होता है।”
फिर सोमलाखाचर बोले कि, “ऐसा प्रसंग तो बहुत करते हैं, फिर भी ऐसी दृढ़ प्रीति क्यों नहीं होती?”
तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “आप प्रसंग तो करते हैं, परन्तु उसमें भी आधा प्रसंग हमारा और आधा प्रसंग जगत-संसार का करते हैं। इसी कारण भगवान में दृढ़ प्रीति नहीं होती।”
इसके बाद गाँव वसो के विप्र वालाध्रुव ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! देह तथा देह के सम्बंधियों में अहंता-ममता के जो संकल्प होते रहते हैं, उन्हें कैसे मिटाया जाए?”
तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “वह तो जीव को विपरीत भावना हुई है कि वह स्वयं को देह से पृथक् रहनेवाली जीवात्मा नहीं समझता, किन्तु देहरूप ही समझता है! और, उस जीवात्मा में देहभाव किस प्रकार लिपटा हुआ है, वह बताते हैं। जिस प्रकार कोई पुरुष दर्जी के घर जाकर अंगरखा सिलाता है, और उसे पहनकर यदि वह माने कि, ‘दर्जी मेरा बाप है और दर्जिन मेरी माँ है।’ तो वह मूर्ख ही कहलाता है। उसी प्रकार इस जीव का यह देहरूपी जो अंगरखा है, वह कभी ब्राह्मण और ब्राह्मणी से उत्पन्न होता है, और कभी उसकी उत्पत्ति नीच जाति से होती है तथा चौरासी लाख योनियों से देह उत्पन्न होती है। यदि उस देह में जो अहंभाव रखता है और उस देह के माँ-बाप को अपना माँ-बाप समझता है, तो वह मूर्ख कहलाता है, और उसे पशु के समान समझा जाना चाहिए। तथा, चौरासी लाख योनियों में अपनी जो माताएँ, बहनें, लड़कियाँ और स्त्रियाँ होती हैं, उनमें से कोई भी पतिव्रता के धर्म का पालन नहीं करती। अतः जो ऐसे सम्बंध को सच्चा मानता है, उसके अहंता एवं ममता के संकल्प कैसे मिटेंगे? और इस प्रकार की समझ के बिना जन्मभूमि की वासना को मिटाना अत्यन्त कठिन है। तथा, जब तक देह को अपना स्वरूप मानता रहता है, तब तक उसकी समस्त समझ वृथा ही रहती है।
“एवं, जब तक वह वर्ण अथवा आश्रम के घमंड से साथ घूमता-फिरता है, तब तक उसमें साधुता आती ही नहीं। इसीलिए, देह तथा देह के सम्बंधियों के साथ रहनेवाली अहंता तथा ममता दोनों का परित्याग करके, अपनी आत्मा को ब्रह्मरूप मानकर तथा समस्त वासनाओं का त्याग करके जो पुरुष स्वधर्मरत रहते हुए भगवान का भजन करता है, वह साधु कहलाता है। जिसमें ऐसी साधुता आती है, उसके और पुरुषोत्तम भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती। अन्य सब कुछ हो सकता है। परन्तु इस प्रकार की साधुता को पाना, वह तो बहुत ही कठिन है। और, ऐसा साधु तो मैं हूँ, क्योंकि मुझमें वर्णाश्रम का लेशमात्र भी अभिमान नहीं है।”
इस प्रकार से श्रीजीमहाराज ने जो कुछ कहा वह अपने भक्तों को शिक्षा देने के निमित्त ही बताया है, ऐसा समझना। क्योंकि वे स्वयं साक्षात् पुरुषोत्तम नारायण हैं।
॥ इति वचनामृतम् ॥ ४४ ॥
This Vachanamrut took place ago.