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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४५

साकार और निराकार का रहस्य

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला दशमी (२४ जनवरी, १८२०) को सायंकाल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे चबूतरे पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत चादर ओढ़ी थी, सफ़ेद धोती धारण की थी, और सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! कितने ही वेदान्ती ऐसा कहते हैं कि भगवान का आकार नहीं है, और ऐसे ही सिद्धान्त के प्रतिपादन की श्रुतियों७२ का सन्दर्भ देते हैं। जबकि नारद, शुक, सनकादिक जैसे कितने ही भगवद्भक्त भगवान के साकार७३ होने का प्रतिपादन करते हैं, तो इन दोनों में सच्चे कौन हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान पुरुषोत्तम हैं, वे तो सदा साकार ही हैं तथा महातेजोमय मूर्ति हैं। और अन्तर्यामी रूप से सर्वत्र पूर्ण जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है, वह मूर्तिमान पुरुषोत्तम भगवान का तेज है। और, श्रुतियाँ भी ऐसा कहती हैं कि वे भगवान माया के सामने देख रहे थे।७४ अतः जब वे देख रहे थे, तो क्या उन्हें अकेली आँखें ही होंगी? हाथ-पैर भी तो होते हैं। इस प्रकार साकार रूप का ही प्रतिपादन हुआ। तथा, जिस प्रकार, समग्र जल के जीवरूप वरुण अपने लोक में साकार हैं, किन्तु जल निराकार कहलाता है। और, अग्नि की ज्वाला निराकार कहलाती है, परन्तु उसके देवता अग्नि अपने अग्निलोक में साकार हैं। और, जैसे समग्र धूप निराकार कहलाती है, परन्तु सूर्यमंडल में व्याप्त सूर्यदेव साकार हैं। ठीक वैसे ही सच्चिदानन्द ब्रह्म निराकार है, परन्तु पुरुषोत्तम भगवान साकार है। सर्वत्र पूर्णरूप से विद्यमान सच्चिदानन्द ब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान का तेज है।७५ यहाँ कोई तो ऐसा कहेंगे कि श्रुतियों में तो ऐसा बताया गया है कि, ‘परमेश्वर तो कर-चरणादि से रहित और सर्वत्र पूर्ण हैं।’ तो ऐसा जो यहाँ श्रुतियों ने करचरणादि का जो निषेध किया है, वह मायिक करचरणादि का निषेध है; परन्तु भगवान का आकार दिव्य है, मायिक नहीं है। यद्यपि अन्तर्यामी रूप से जीव-ईश्वर में व्यापक ऐसा जो पुरुषोत्तम भगवान का ब्रह्मरूप तेज है, वह निराकार है, तथापि उसमें जीव-ईश्वर दोनों को उनके कर्मानुसार यथायोग्य कर्मफल देने में नियन्तापन है और वह साकार के समान नियन्तारूप होकर क्रिया को करता है। अतः उस तेज को साकार जैसा समझना चाहिए। इस प्रकार भगवान पुरुषोत्तम सदैव साकार ही हैं, परन्तु निराकार नहीं हैं! फिर भी, उन्हें जो निराकार कहते हैं, वे ना-समझ लोग ही हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


७२. ‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। (श्वेताश्वतरोपनिषद्: ३/१९) इत्यादि श्रुतियों से।

७३. ‘य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश... तस्य यथा कप्यासं पुंडरीकमेवमक्षिणी।’ (छान्दोग्योपनिषद्: १/६/६-७) इत्यादि श्रुतियों से।

७४. ‘स ईक्षत’ (ऐतरेयोपनिषद्: ३/१) इत्यादि श्रुतियों से।

७५. यहाँ अपने तेज को ‘ब्रह्म’ कहा गया है, परन्तु ‘धामरूप अथवा सेवकरूप अक्षरब्रह्म’ नहीं समझना चाहिए।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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