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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४६

आकाश की उत्पत्ति एवं विलय

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला एकादशी (२५ जनवरी, १८२०) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के समीप चबूतरे पर दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और सिर पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय भट्ट माहेश्वर नामक वेदान्ती ब्राह्मण ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया, “समाधि में जब देहादिक सब कुछ लीन हो जाता है, तब आकाश किस प्रकार लीन होता है?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “आकाश के रूप का हम समुचित रूप से विश्लेषण करते हैं, उसे आप सब सावधान होकर सुनिए - आकाश अवकाश को कहते हैं,७६ और जिन-जिन पदार्थों का अस्तित्व रहता है, वे अवकाश में ही रहता है। उन पदार्थों में भी आकाश व्याप्त होकर रहता है। अतः ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जिसमें आकाश न हो; क्योंकि पृथ्वी के एक अतिसूक्ष्म रजकण में भी आकाश है, और यदि उसके करोड़ों टुकड़े भी कर डालें तो भी उसमें आकाश रहता है। इसीलिए, आकाश की दृष्टि से जब देखें तब पृथ्वी आदि चार भूत नहीं दिखाई पड़ते, अकेला आकाश ही दिखाई पड़ता है। वह आकाश सबका आधार है तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारणरूपी तीनों शरीर आकाश में रहते हैं। यह ब्रह्मांड भी आकाश में रहता है, और ब्रह्मांड के कारण प्रकृति-पुरुष भी आकाश में हैं। ऐसा आकाश प्रकृति-पुरुष तथा उनके कार्य पिंड-ब्रह्मांड आदि के भीतर भी रहता है तथा सबका आधार होकर बाहर भी रहता है। ऐसा यह आकाश सुषुप्ति अथवा समाधि में भी लीन नहीं होता। तब कोई कहेगा कि, ‘आकाशादिक पंचभूत तो तमोगुण से उत्पन्न हुए हैं, ऐसी स्थिति में उस आकाश को पुरुष तथा प्रकृति का आधार कैसे कहा जा सकता है? उसे सर्वव्यापक भी कैसे कहा जाए? तो इसका उत्तर यह है कि प्रकृति में यदि अवकाशरूपी आकाश न हो, तो जिस प्रकार वृक्षों से फल-पुष्पादिक बाहर निकलते हैं और गाय के पेट में से बछड़ा निकलता है, तथा प्रकृति में से जो महत्तत्त्व निकलता है, वह कैसे निकले? इसीलिए, प्रकृति में आकाश है तथा महत्तत्त्व में से अहंकार निकलता है, इस कारण महत्तत्त्व में आकाश है। इसी प्रकार, अहंकार में से तीन गुण निकले हैं, अतः अहंकार में भी आकाश है। वैसे तमोगुण में से आकाश आदि पाँच भूत निकलते हैं, अतः तमोगुण में भी आकाश है। और, तमोगुण में से जो आकाश निकलता है वह (आकाश) तमोगुण का कार्य है, और विकारवान है; किन्तु सबका आधार जो आकाश है, वह निर्विकारी हैं और अनादि है। ऐसा सर्वाधार जो आकाश है, उसे ब्रह्म तथा चिदाकाश कहते हैं।

“और, इस आकाश में पुरुष तथा प्रकृति संकोच और विकास-अवस्था को प्राप्त करते हैं। उसका प्रकार यह है कि जब पुरुष प्रकृति के सामने देखता है, तब स्त्री-पुरुष से होनेवाली सन्तानोत्पत्ति के समान पुरुषरूपी पति तथा प्रकृतिरूपी स्त्री से महत्तत्त्वादिक सन्तान की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार यह प्रकृति चौबीस तत्त्वरूप तथा पिंड-ब्रह्मांडरूप होती है, यह उसकी विकास-अवस्था है। इसके अतिरिक्त, प्रकृति के जितने कार्य हैं, उनमें पुरुष अपनी शक्ति द्वारा व्यापक रूप से रहता है, यही पुरुष की विकास-अवस्था है। जब काल द्वारा प्रकृति के सब कार्य नष्ट हो जाते हैं और प्रकृति भी पुरुष के अंग में लीन-सी रहती है, तब उसी को प्रकृति की संकोचावस्था कहा जाता है। जब पुरुष भी प्रकृति के समस्त कार्यों के नष्ट होने पर अपने स्वरूप में बना रहा, उसी को पुरुष की संकोचावस्था माना जाता है। जैसे कछुआ विकासोन्मुख होने पर अपने समस्त अंगों को बाहर निकाल लेता है और संकोचावस्था को प्राप्त होने पर अपने सभी अंगों को समेट लेता है, तब वह जड़-सा हो जाता है; वैसे ही पुरुष तथा प्रकृति की संकोच एवं विकास की अवस्था बनी रहती है। प्रकृति तथा उसके कार्यों में भी पुरुष का ही अन्वय-व्यतिरेक भाव रहता है। परन्तु सबका आधार जो चिदाकाश है, उसका ऐसा अन्वय-व्यतिरेक भाव नहीं है; क्योंकि जो सर्वाधार है, वह किससे व्यतिरिक्त हो सकता है? वह तो सदैव सबमें रहता है। यह जो ब्रह्मांड है, उसके चारों ओर लोकालोक पर्वत है, जो उसके लिए किले के समान रहता है। उस लोकालोक से बाहर अलोक है, उससे परे सात आवरण हैं, उन आवरणों से परे अकेला अन्धकार है और उस अन्धकार से परे प्रकाश है, जिसे चिदाकश कहते हैं। उसी प्रकार, ऊँचाई भी ब्रह्मलोक तक बताई गई है। उसके परे सप्त आवरण हैं, उनसे परे अन्धकार है, उससे परे प्रकाश है, जिसे चिदाकाश कहा जाता है।

“इस प्रकार ब्रह्मांड के चारों ओर चिदाकाश है, और वही ब्रह्मांड के अन्दर भी है। ऐसा जो वह सर्वाधार आकाश है, उसके आकार में जिसकी दृष्टि पहुँचती हो उसे ‘दहरविद्या’ कहते हैं। और भी ‘अक्षिविद्या’ आदि अनेक प्रकार की ब्रह्मविद्याएँ कही गई हैं, जिनमें एक ब्रह्मविद्या भी है। यह चिदाकाश अतिप्रकाशवान है तथा अनादि है। उसकी उत्पत्ति तथा विनाश नहीं होता। जिस आकाश की उत्पत्ति तथा विनाश की बात कही गई है, वह आकाश तो (तमोगुण से उत्पन्न होने के कारण) तमोगुण का कार्य और अन्धकाररूप है और वह लीन हो जाता है। परन्तु, सबका आधार जो चिदाकाश है, वह लीन नहीं होता। इस प्रकार आपके प्रश्न का उत्तर दिया है। अब उसमें किसी को शंका हो तो पूछिये।”

तब वह वेदांती ब्राह्मण तथा समस्त हरिभक्त बोले कि, “अब किसी को लेशमात्र भी संशय नहीं है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


७६. आकाश के दो प्रकार हैं: भौतिक तथा महाकाश। योगी महाकाश को ही चिदाकाश कहते हैं। समाधि में चिदाकाश का लय नहीं होता परंतु भौतिक आकाश का संकोचनरूप लय होता है, यही भावार्थ है।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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