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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४७

चार प्रकार की निष्ठा

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला द्वादशी (२७ जनवरी, १८२०) को प्रातःकाल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज दाहिने हाथ से चुटकी बजाकर बोले, “आप सब लोग सावधान होकर एक बात सुनिये। यद्यपि यह बात स्थूल है, फिर भी आप पूर्णरूप से ध्यान देकर उसे सुनेंगे तो समझ पाएँगे, अन्यथा नहीं समझ पाएँगे।”

तब समस्त हरिभक्त बोले, “हे महाराज! कहिये।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “परमेश्वर के भक्त हैं, उनमें से किसी में धर्मनिष्ठा, किसी में आत्मनिष्ठा, किसी में वैराग्यनिष्ठा और किसी में भक्तिनिष्ठा प्रधानरूप से रहती है। गौणरूप से तो ये सब निष्ठाएँ समस्त हरिभक्तों में होती हैं।

“उनमें से जिसमें भागवतधर्म-निष्ठा प्रधान होती है, वह अहिंसा तथा ब्रह्मचर्य आदि अपने वर्णाश्रम सम्बंधी सदाचार से युक्त होकर निर्दम्भभाव से भगवान और भगवद्भक्तों की सेवा-चाकरी करने में प्रीति पूर्वक कार्यरत रहता है। ऐसा भक्त भगवान के मन्दिरों का निर्माण करना, भगवान के लिए बाग-बगीचों को बनाना, भगवान को नाना प्रकार के नैवेद्य को अर्पित करना तथा भगवान के मन्दिरों और सन्तों के स्थान में लीपना-पोतना और झाड़ना आदि कार्यों में रुचि रखता है; तथा श्रवण-कीर्तनादि भक्ति में निर्दम्भभाव से तत्पर रहता है। ऐसी धर्मनिष्ठा रखनेवाला भक्त भागवतधर्मयुक्त शास्त्रों के श्रवण तथा कीर्तनादि में अतिशय रुचि रखता है।

“अब जिसमें आत्मनिष्ठा प्रधान रहती है, वह तीन देहों और तीन अवस्थाओं से परे रहनेवाली सत्तारूपी अपनी आत्मारूप में ही निरन्तर रहता है। और, वह अपने इष्टदेव प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण परमात्मा को सबसे परे, अति शुद्ध स्वरूप तथा सदा दिव्य साकारमूर्ति समझता है। और, वह अपनी आत्मा तथा परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली वार्ता को स्वयं करता है और उसे दूसरों से सुनता है। तथा, उसी प्रकार के शास्त्रों में प्रीतिपूर्वक प्रवृत्ति रखता है और स्वयं को आत्मसत्तारूप रहने में विक्षेप हो, तो उसे सहन न कर सकने की प्रकृतिवाला होता है।

“एवं, जिसकी वैराग्यनिष्ठा प्रधान होती है, उसे एकमात्र भगवान की मूर्ति के सिवा अन्य समस्त मायिक पदार्थों में निरन्तर अरुचि रहती है। उन्हें असत्यरूप समझकर मल की भाँति त्याग किए हुए अपने घर-परिवारजन आदि को वह सदैव विस्मृत करके व्यवहार करता है। और, ऐसा भक्त, भगवान के त्यागी भक्तों का ही संग करता है और भगवान की भक्ति भी ऐसी करता है कि अपने निजी त्याग में वह बाधक न बनने पाये। और, वह स्वयं त्यागप्रधान वार्ता करता है तथा त्याग का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों में रुचि रखता है। उसे अपने त्याग में बाधा डालनेवाले स्वादिष्ट भोजन तथा अच्छे वस्त्रादि एवं पंचविषय सम्बंधी मायिक पदार्थों को प्राप्त करने में अतिशय अरुचि रहती है।

“जिसकी भक्तिनिष्ठा प्रधान होती है, वह एकमात्र भगवान के स्वरूप में ही दृढ़ प्रीति बनाये रखता है और उन भगवान के स्वरूप से भिन्न अन्य मायिक पदार्थों में अपनी रुचि कभी नहीं रख सकता। ऐसा भक्त, भगवान को प्रेमपूर्वक वस्त्र एवं अलंकार धारण कराने, भगवान के मानवचरित्रों का श्रवण करने और भगवान की मूर्ति का निरूपण करनेवाले शास्त्रों में ही रुचि रखता है। तथा, वह केवल उसी भक्त से प्रीति करता है, जिस भक्त का प्रेम भगवान के प्रति देखता है। उस भक्त के सिवा अपने पुत्रादि से भी कभी प्रेम नहीं करता। और, भगवान सम्बंधी क्रियाओं में ही ऐसे भक्त को प्रवृत्ति निरन्तर बनी रहती है।

“इस प्रकार, ऐसी चार निष्ठाएँ रखनेवाले भक्तों के लक्षणों की वार्ता पर विचार करके, जिसका जैसा अंग हो (प्रधानरूप से जिस निष्ठा की दृढ़ता हो) उसका वर्णन कीजिए। तथा, यह वार्ता दर्पण के समान है, जो जिसका जैसा अंग होता है, उसे दिखला देती है। और, भगवान के जो भक्त हैं, वे बिना अंग के होते ही नहीं हैं, किन्तु वे अपने अंगों की परख नहीं कर पाते, इसीलिए इन अंगों की दृढ़ता नहीं हो पाती। जब तक अपने अंगों की दृढ़ता नहीं हो पाती, तब तक जैसी बात होती है, वैसा ही उसका अंग बन जाता है। इसीलिए, इस वार्ता पर विचार करके अपने-अपने अंगों को दृढ़ बनाइये और जिसका जैसा अंग हो वैसा बताइए।”

इसके पश्चात् समस्त हरिभक्तों में से जिसका जैसा अंग था, उसने वैसा बताया।

बाद में श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिनका एक-समान अंग हो, वे उठकर खड़े हो जाएँ।” तब जिस-जिसका एक-समान अंग था, वे सब उठकर खड़े हुए। बाद में श्रीजीमहाराज ने इन सबको बैठने का आदेश दिया।

इसके पश्चात् नित्यानन्द स्वामी ने पूछा, “इन चारों अंगोंवालों के अपने-अपने अंगों में कोई गुण-दोष है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो गुण-दोष हैं, उन्हें कहते हैं, सुनिये - इन चारों अंगोंवाले भक्तों के जो लक्षण हमने पहले बताए हैं, उनके अनुसार जो आचरण करते हैं, यह उनका गुण है तथा जो ऐसा आचरण नहीं करते, उतना उनका दोष है।”

तत्पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “इन चारों निष्ठावालों में कोई अधिक-न्यून हैं या ये चारों ही समान हैं?”

तब, श्रीजीमहाराज बोले, “जब तक मुमुक्षु एक-एक निष्ठा के साथ बरतने लगते हैं, तब तक ये चारों समान रहते हैं और जब ये चारों निष्ठाएँ एक मुमुक्षु सिद्ध कर ले, तब वह सबसे आगे रहता है। और एक में ही जब ये चारों निष्ठाएँ इकट्ठी रहती हैं, तब उसको परम भागवत कहते हैं तथा उसको ही एकान्तिक भक्त कहते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४७ ॥

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