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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४८

चार प्रकार के कुसंगी

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला त्रयोदशी (२८ जनवरी, १८२०) को सायंकाल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। उनके सामने दो मशालें जल रही थीं और श्रीवासुदेव नारायण की सन्ध्या आरती तथा नारायणधुन हो चुकी थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “आप सब सावधान होकर सुनिये, एक वार्ता करते हैं।”

तब समस्त मुनि तथा हरिभक्त बोले कि, “हे महाराज! कहिये।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान के भक्त को प्रतिदिन भगवान की पूजा तथा स्तुति करके उनसे यह माँगना चाहिए कि, ‘हे महाराज! हे स्वामिन्! हे कृपासिन्धो! हे शरणागत-प्रतिपालक! कुसंगी से मेरी रक्षा करना।’

“वे कुसंगी चार प्रकार के हैं - एक कुंडापन्थी (वाममार्गियों का एक विभाग), दूसरा शक्तिपन्थी, तीसरा शुष्कवेदान्ती तथा चौथा नास्तिक। उनमें से यदि कुंडापन्थी का संग हो जाए तो वह निष्काम धर्म (ब्रह्मचर्यव्रत तथा व्रतमान धर्म) से हटाकर उसे भ्रष्ट कर डालता है। यदि शक्तिपन्थी का संग हो जाए, तो वह शराब पिलाकर और माँस खिलाकर स्वधर्म से भ्रष्ट कर डालता है। यदि शुष्कवेदान्ती का संग हो जाए, तो वह भगवान के धाम तथा भगवान के शाश्वत दिव्य आकार और उनके अवतारों की मूर्तियों के आकारों, सबको मिथ्या बताकर भगवान की भक्ति-उपासना से भ्रष्ट करता है। यदि नास्तिक का संग हो जाए, तो वह कर्मों को ही सही बतलाकर परमेश्वर, जो श्रीकृष्ण भगवान हैं, उन्हें मिथ्या कर दिखाता है तथा अनादि सत्शास्त्रों द्वारा बताए गए मार्ग से भ्रष्ट कर डालता है।

“अतः भगवान से याचना करनी चाहिए कि, ‘ऐसे चार प्रकार के मनुष्यों का संग कभी भी न हो।’ तथा, यह प्रार्थना भी करनी चाहिए कि, ‘हे महाराज! काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या और देहाभिमान आदि अन्तःशत्रुओं से रक्षा कीजिए तथा नित्य अपने भक्तों के सत्संग का अवसर प्रदान कीजिए।’ इस प्रकार, नित्य ही भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए तथा इन कुसंगियों और अन्तःशत्रुओं से निरन्तर डरते रहना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४८ ॥

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