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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ४९

अन्तर्दृष्टि

संवत् १८७६ में माघ शुक्ला चतुर्दशी (२९ जनवरी, १८२०) को सायंकाल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे चबूतरे के मध्य पलंग पर विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के सामने दो बड़े दीपक जल रहे थे। उन्होंने कंठ में पीले पुष्पों का हार पहना था, दोनों हाथों में पीले पुष्पों के गजरे धारण किए थे और श्वेत वस्त्र पहने थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए।”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “हम भगवान में जो वृत्ति रखते हैं, वह बहुत बलपूर्वक रखने के कारण रहती है, किन्तु जगत के पदार्थों में यह स्वयमेव रहा करती है, उसका क्या कारण है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “भगवद्भक्तों की वृत्ति भगवान के सिवा अन्य किसी भी स्थान पर नहीं रहती। उन्हें यही चिन्ता लगी रहती है कि, ‘हमें जगत के पदार्थों में वृत्ति रखना ही कठिन रहेगा।’ अतः परमेश्वर के भक्तों को जगत के पदार्थों में वृत्ति रखना ही कठिन है तथा जगत के जीवों के लिए परमेश्वर में वृत्ति रखना अत्यन्त दुष्कर रहता है। इसीलिए, जिसकी वृत्ति परमेश्वर में नहीं रहती, वह भगवद्भक्त नहीं है। फिर भी सत्संग में यदि आता रहे, तो वह धीरे-धीरे सन्त की वार्ता को सुनते-सुनते परमेश्वर का भक्त हो जाएगा।”

फिर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “इस प्रकार भगवान में वृत्ति रखने का कौन-सा साधन है?”

तब, श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान में वृत्ति रखने का साधन अन्तर्दृष्टि है। वह अन्तर्दृष्टि कौन-सी है? तो स्वयं को जो प्रत्यक्ष भगवान मिले हैं, उनकी मूर्ति के सामने देखते रहना ही अन्तर्दृष्टि है। यदि उस मूर्ति को छोड़कर षट्चक्र७७ दिखायी पड़े अथवा भगवान के गोलोक एवं वैकुंठ आदि धाम दृष्टिगोचर हो जाएँ, तो भी वह अन्तर्दृष्टि नहीं है।

“इस कारण भगवान की मूर्ति को अन्तःकरण में धारण करके, उसका अवलोकन करते रहने तथा बाहर भी भगवान की मूर्ति को निहारते रहने को ही अन्तर्दृष्टि कहा गया है। उस मूर्ति को छोड़कर अन्य जिस-जिस स्थान पर वृत्ति रहे, तो उसे बाह्यदृष्टि कहा जाता है।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज परमहंसों से बोले कि, “अब दो-दो भक्त आमने-सामने बैठकर प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम प्रारम्भ करें।” इसके पश्चात् परमहंसों ने बहुत देर तक परस्पर प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम चलाया। उन्हें सुनते हुए श्रीजीमहाराज उनकी बुद्धि की परीक्षा करने लगे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४९ ॥

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७७. षट्चक्र की विशेष जानकारी के लिए देखिए: वचनामृत गढ़डा प्रथम २५ की पादटीप क्रमांक: ३७

गणपति तथा विष्णु आदि के स्थान सम्बंधी जानकारी: आधार आदि छः चक्र तथा सातवें ब्रह्मरंध्र का वर्णन, योगशिखोपनिषद् के संदर्भानुसार (१/१६८-१७५) दिया गया है।

क्रमचक्र का नामकमल की पांखदेवताशरीर में स्थान
आधार (मूलाधार)चार पंखुड़ीवाला कमलगणपतिलिंग तथा गुदा के मध्य के बीच
स्वाधिष्ठान छः पंखुड़ीवाला कमलब्रह्मालिंग के पास
मणिपूरदस पंखुड़ीवाला कमलविष्णु नाभि के पास
अनाहतबारह पंखुड़ीवाला कमलशिवहृदय के पास
विशुद्धसोलह पंखुड़ीवाला कमलजीवात्माकंठ के पास
आज्ञाचक्रदो पंखुड़ीवाला कमलगुरुभ्रूकुटी के मध्य में
ब्रह्मरंध्रहज़ार पंखुड़ीवाला कमलपरमात्मामस्तिष्क में
SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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