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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ५१

हीरे से हीरे का छेद, भगवान से भगवान का निश्चय

संवत् १८७६ में माघ कृष्णा द्वितीया (१ फरवरी, १८२०) को रात्रि के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा और श्वेत अंगरखा पहना था, सिर पर सफ़ेद पाग बाँधी थी। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछने का आदेश दिया, तब पूर्णानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “दस इन्द्रियाँ रजोगुणात्मक हैं तथा चार अन्तःकरण सत्त्वगुणमूलक हैं। अतः ये समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण मायिक हैं और भगवान माया से परे हैं, तब मायिक अन्तःकरण द्वारा उन भगवान का निश्चय किस प्रकार से हो सकता है? और, चक्षु आदि मायिक इन्द्रियों द्वारा भगवान कैसे दृष्टिगोचर हो सकते हैं?”

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “मायिक वस्तुओं द्वारा मायिक पदार्थों का बोध हो सकता है, इस कारण, मायिक अन्तःकरण तथा इन्द्रियों द्वारा भगवान को बोधगम्य किया जाए, तो भगवान भी मायिक सिद्ध हो जाएँगे, यही आपका प्रश्न है?”

पूर्णानन्द स्वामी तथा समस्त मुनियों ने कहा, “हे महाराज! यही प्रश्न है, जिसकी आपने पुष्टि कर दी है।”

तब, श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इसका उत्तर यह है कि पचास कोटि योजनपर्यन्त पृथ्वी की पीठ है, उस पृथ्वी पर घटपटादिक अनेक पदार्थ हैं। उन समस्त पदार्थों में यह पृथ्वी स्थित है तथा वह अपने स्वरूप से भिन्न भी रही है। इसीलिए, जब पृथ्वी की दृष्टि से देखेंगे तो प्रतीत होगा कि इन समस्त पदार्थों के रूप में पृथ्वी का अस्तित्व बना हुआ है और पृथ्वी के सिवा दूसरा कोई भी पदार्थ नहीं है।

“और, वह पृथ्वी जल के एक अंश से हुई है, और जल पृथ्वी के नीचे, पार्श्व में और ऊपर भी है तथा पृथ्वी के मध्य में भी जल सर्वत्र व्यापक होकर रहता है। इसीलिए, यदि जल की दृष्टि से देखा जाए तो लगेगा कि पृथ्वी है ही नहीं, बल्कि अकेला जल ही है। इस जल की भी उत्पत्ति तेज के एक अंश से हुई है, इसीलिए, तेज की दृष्टि से देखेंगे, तो जल है ही नहीं, वरन् अकेला तेज ही है। और, वह तेज भी वायु के एक अंश से उत्पन्न हुआ है, इसीलिए, वायु की दृष्टि से देखेंगे, तो तेज है ही नहीं, किन्तु एकमात्र वायु ही है।

“वस्तुतः वायु भी आकाश के एक अंश से उत्पन्न हुई है, इसीलिए, आकाश की दृष्टि से देखेंगे, तो वायु आदि चारों भूत तथा उनके कार्य पिंड-ब्रह्मांड कुछ भी नहीं दिखाई देंगे, किन्तु अकेला आकाश ही सर्वत्र दिखाई पड़ेगा। और, वह आकाश भी तामस अहंकार के एक अंश से उत्पन्न हुआ है। वह तामस अहंकार, राजस अहंकार, सात्त्विक अहंकार तथा भूत, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण और देवता, ये सब महत्तत्त्व के एक अंश से उत्पन्न हुए हैं। अतएव, महत्तत्त्व की दृष्टि से देखा जाए तो तीन प्रकार के अहंकार, भूत, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा देवता, ये सब है ही नहीं, बल्कि केवल महत्तत्त्व ही दिखाई पड़ेगा।

“और, यह महत्तत्त्व भी प्रधान-प्रकृति के एक अंश से उत्पन्न हुआ है। इसलिए, यदि प्रकृति की दृष्टि से देखें तो महत्तत्त्व है ही नहीं, एकमात्र यह प्रकृति ही है। तथा, वह प्रकृति भी प्रलयकाल में पुरुष के एक अंश में लीन हो जाती है और बाद में सृष्टि के समय एक अंश से उत्पन्न होती है। इसीलिए, पुरुष की दृष्टि से देखें तो यह प्रकृति है ही नहीं, अकेला पुरुष ही है। एवं, ऐसे अनन्तकोटि पुरुष हैं, जो महामाया के एक अंश से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए, इस महामाया की दृष्टि से देखेंगे, तो ये पुरुष है ही नहीं, अकेली महामाया ही है। और, वह महामाया भी महापुरुष के एक अंश में से उत्पन्न होती है। इसलिए, यदि महापुरुष की दृष्टि से देखा जाए तो, वह महामाया है ही नहीं, बल्कि अकेला महापुरुष ही है। और, यह महापुरुष भी पुरुषोत्तम भगवान का जो अक्षरधाम है, उस अक्षर के एक स्थल से उत्पन्न होता है; इसीलिए, उस अक्षर की दृष्टि से देखें तो ये महापुरुष आदि सब हैं ही नहीं, वरन् एक अक्षर ही दिखाई पड़ेगा। और, उस अक्षर से परे अक्षरातीत ऐसे जो पुरुषोत्तम भगवान हैं, वे ही सबकी उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कर्ता हैं और सबके कारण हैं। और, जो कारण होता है, वह अपने कार्य में व्यापक होता है तथा उससे अलग भी रहता है। इसीलिए, उन सबके कारणरूप पुरुषोत्तम भगवान की दृष्टि से देखा जाए, तब उन पुरुषोत्तम भगवान के सिवा अन्य कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा।

“ऐसे जो भगवान हैं, वही कृपा करके जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर सभी मनुष्यों को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। उस समय जो जीव सन्त की संगत करके इन पुरुषोत्तम भगवान की ऐसी महिमा को समझ लेता है, तब उसकी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण, सब पुरुषोत्तममय हो जाते हैं। तभी, उनके द्वारा उन भगवान का निश्चय हो जाता है। जिस प्रकार हीरे के द्वारा ही हीरा पृथक् किया जाता है, लेकिन दूसरे के द्वारा वह पृथक् नहीं होता, वैसे ही भगवान का निश्चय भी भगवान के द्वारा ही होता है; तथा भगवान का दर्शन भी भगवान के द्वारा ही होता है, किन्तु मायिक इन्द्रियों तथा अन्तःकरण द्वारा नहीं होता।”

इस तरह वार्ता करने के पश्चात् श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास स्थान पर पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५१ ॥

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